"पुस्तकें: जीवन का अनमोल संवाद" – विश्व पुस्तक दिवस पर विशेष
हमारे समय का एक बड़ा संकट यह है कि हम तेजी से सूचना की भीड़ में डूबते जा रहे हैं, लेकिन ज्ञान की गहराई से दूर होते जा रहे हैं। यह वह दौर है जहाँ तकनीक की गति ने सोचने की प्रक्रिया को तेज़ नहीं, बल्कि छलपूर्वक सतही बना दिया है। ऐसे समय में जब हर उत्तर एक क्लिक दूर हो, तो प्रश्नों की ज़रूरत और गंभीरता दोनों को किताबें ही जीवित रखती हैं।
किताबें केवल पढ़ने की चीज़ नहीं होतीं, वे आत्मा की परतों को खोलने का अवसर होती हैं। वे एकांत की संगिनी हैं, पर वह एकांत खालीपन से नहीं, आत्ममंथन से भरा होता है। जब हम किसी पुस्तक को पढ़ते हैं, तो दरअसल हम लेखक से नहीं, स्वयं से संवाद कर रहे होते हैं। यह संवाद ही वह प्रक्रिया है जो मनुष्य को सिर्फ जीवित नहीं रखती, बल्कि चिंतनशील, संवेदनशील और विवेकशील बनाती है।
आज के युवाओं के लिए किताबें महज़ परीक्षा की तैयारी का साधन बनकर रह गई हैं। पाठ्यक्रम की सीमाओं में बंधी हुई किताबें, जीवन के बड़े प्रश्नों से मुंह चुराती दिखती हैं। जबकि सच यह है कि जीवन की सबसे जटिल समस्याओं का उत्तर उन्हीं पन्नों में छिपा होता है जो परीक्षा में नहीं आते। किताबें हमें सिखाती हैं — कैसे सोचा जाए, न कि क्या सोचना चाहिए।
पुस्तकें मनुष्य को निर्णय लेने की क्षमता देती हैं, विचारों को समृद्ध करती हैं, भीतर के द्वंद्व को दिशा देती हैं। वे हमारे पूर्वाग्रहों को तोड़ती हैं और सोच में एक ऐसा विस्तार देती हैं जहाँ हर बात के कई पक्ष उभरते हैं। किताबें ही वह ज़मीन तैयार करती हैं जहाँ संवाद पनपता है, असहमति का सम्मान होता है और सोचने का लोकतंत्र फलता-फूलता है।
एक अच्छी किताब से गुज़रना किसी यात्रा से गुज़रने जैसा है — एक ऐसी यात्रा जहाँ न दृश्य पहले से तय हैं, न गंतव्य। लेकिन जब हम लौटते हैं, तो वही नहीं रहते जो इस यात्रा पर निकले थे। हम थोड़ा और नम्र, थोड़ा और गहरे और थोड़ा और मनुष्य हो जाते हैं। किताबें हर युग में अपने पाठकों से कहती हैं — "तुम केवल जानो नहीं, समझो। केवल देखो नहीं, देख पाने की दृष्टि विकसित करो।" यह दृष्टि, यह समझ, यह भीतर का विस्तार ही है जो मनुष्य को मशीन से अलग करता है।
आज जबकि तेज़ी से सब कुछ विस्मृत होता जा रहा है — रिश्ते, मूल्य, संवेदनाएँ — तब किताबें स्मृति की मशाल लेकर चल रही हैं। वे हमें हमारी जड़ों से जोड़ती हैं, और आने वाली पीढ़ियों को मनुष्यत्व की विरासत सौंपती हैं। इसलिए, किताबें पढ़ना एक आदत नहीं, एक ज़िम्मेदारी है — अपने भीतर को बचाए रखने की ज़िम्मेदारी। क्योंकि किताबें हमें केवल सूचना नहीं, आत्मा की भाषा सिखाती हैं।
✍️ प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर
परिचय
बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।
शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।