पिछली कड़ी में आपने अब तक पढ़ा कि....
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इसके आगे अब समझते हैं कि.....
अपने विस्तृत अर्थों में दण्ड ऐसी शारीरिक या मानसिक यातना है जो किसी के अधिकारों का हनन या किन्हीं नियमों के उल्लघंन पर दी जाती है। दण्ड के इस अर्थ का मोटा सम्बन्ध पुलिस और न्याय व्यवस्था से जुड़ा हुआ है। परन्तु विद्यालयों के संदर्भ में भी कई बार दण्ड का प्रयोग इन्हीं अर्थों में कर लिया जाता है। विद्यालय के संदर्भ में दण्ड की आवश्यकता , नियमों का पालन करवाने, शिक्षक की बात मनवाने, समूह/कक्षा में व्यवस्था व चुप्पी बनाये रखने इत्यादि के लिए होती है। इनके लिये शारीरिक व मानसिक दण्डों का खुल कर प्रयोग किया जाता है। अत: उनके उदाहरणों की शायद यहां जरूरत नहीं है।
वैसे इस बात पर भी सामूहिक चर्चा की जा सकती है कि शारीरिक व मानसिक दण्ड में से कौन सा अधिक प्रभावी होता है और क्यों? चूंकि दण्ड मूलत: भय पैदा करने का औजार है और भय के प्रभावों/दुष्प्रभावों का जिक्र पहले किया जा चुका है, अत: यहां उन्हें दोहराने की जरूरत नहीं हैं। लेकिन दण्ड की व्यवस्था में अन्तर्निहित कुछ चीजों पर यहां ध्यान देना शायद उचित होगा। समूह/कक्षा व विद्यालय में दण्ड का अधिकार मूलत: शिक्षक के पास सुरक्षित होता है।
शारीरिक रूप से बच्चों से कहीं अधिक सक्षम शिक्षक को दण्ड का अधिकार एक शक्तिशाली व्यक्ति बना देता है, जिसमें शिक्षक आमतौर पर सही और बच्चे आमतौर पर गलत होते हैं। साधारणत: बच्चों को उसके व्यवहार/कार्यों पर प्रद्दन उठाने का अधिकार हासिल नहीं होता है । इसी तरह दण्ड, भय के माहौल में बालक की स्वतंत्रता काफी सीमित हो जाती है। वह अपनी इच्छा से बोल नहीं सकता, मदद नहीं कर सकता, अपनी जगह से हिल नहीं सकता इत्यादि। इसी बंधाई व सीमित दिनचर्या का ही शायद यह प्रभाव पड़ता है कि साधारणत: बच्चे छुटटी की घंटी के बाद विद्यालय से ऐसे निकल भागते हैं जैसे जेल से छूटे कैदी।
बच्चों के विकास के लिए उन्हें स्वतंत्रता शुरू से ही हो इसकी आवश्यकता पड़ती है तभी वे स्वनिर्णय लेने वाले व्यक्ति के रूप में विकसित हो पायेंगे। जो कि शिक्षा का हमारा एक स्वीकृत उद्देद्दय है। यहां स्वतंत्रता अपने आप में असीमित नहीं है। समूह में काम करते समय प्रत्येक की स्वतंत्रता अन्य बच्चों की स्वतंत्रता से सीमित हो जाती है। अत: यह कहा जा सकता है कि समूह/कक्षा में ऐसा माहौल हो कि बच्चे दूसरों की स्वतंत्रता का ख्याल रखते हुए स्वयं का कार्य स्वतंत्रतापूर्वक करते रहें। अर्थात यदि एक बच्चे की स्वतंत्रता की वजह से पूरे समूह या अन्य बच्चों को परेशानी हो रही हो तो उसका कोई समाधान ढूंढने की जरूरत हो सकती है जो कि बातचीत के माध्यम से किया जा सकता है।
विचारणीय और बेहतरीन पोस्ट.
ReplyDeleteदंड और अनुशासन को सही परिप्रेक्ष्य में रखता आलेख !
ReplyDeleteमन को प्रभावित करने वाला पोस्ट। गम्भीर बिषय की चिन्ता साधारण शब्दों मे।
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
सुन्दर आलेख । पिछली प्रविष्टि का सारांश लिख कर आगे लिखना, अच्छा लगा ।
ReplyDeleteआप ऐसे ही लिखते रहें । आभार ।
Bachchon ki gardanon par sabhyata aur shikska apne beraham ya naasamajh haathon ke naye naye shikanje majboot karti aayi hai. Jis bachche ko jab mauka milta hai, wo iska badla saaer samaaj se leta hai. Aatankwaad ke peechhe bachpan me hi prem se mahroom kar dena hai... apne pichhle dharm, tahjeeb aur taaleem ko laad dena.
ReplyDeleteSnowa Borno
Sainny Ashesh Pariwaar ke sath aapko dhanyawaad deti hai. Aap mere blog ko dekhen : snowa...the mystic
ई मेल सब्सक्राइव किया हुआ है। आप के लेख विलुप्त होती 'गुरु शिष्य' परम्परा से आते हैं। बहुत सुकून मिलता है यहाँ।
ReplyDeletebachchon ke liye anushasan-parak shiksha dena zaroori hai,nahin to ve track badal dete hain.iska matlab kewal sharirik dand se nahi hai.
ReplyDeleteजब तक स्कूलों की जेल की तरह और मास्टरों को जेलर की तरह रखा जाएगा, बच्चे यूं छूट भागने के मौक़े ढूंढते रहेंगे.
ReplyDeleteविचारणीय मुद्दा है। ज्यादातर स्थितियों में हमारा अनुशासन बच्चे के विकास में बाधा ही डालता है।
ReplyDeleteSahi kaha aapne...gambheer va chintneey aalekh...
ReplyDeleteयह सब बातें बड़ों के साथ भी उचित नहीं हैं. एक सभ्य समाज मे इन सबके लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए. वरना बच्चे स्कूल मे असल ज़िंदगी का सबक सीखते हैं, उनके साथ अध्यापक वही करते हैं जो उन्हे बाहरी दुनिया मे ज़िंदगी भर झेलना है.
ReplyDeleteविचारणीय और गम्भीर विषय पर चर्चा कर रहे हैं आप। शिक्षा-मनोविज्ञान का पाठ तो पढ़ाया जाता है शिक्षकों को लेकिन उसका पालन नहीं हो पाता गम्भीरता से। प्रवीण जी मैं कक्षा पाँच तक नियमित स्कूल नहीं गया इन्ही मास्साब लोगों के डर से। एक बाबूसाब थे(हम लोग उनको इसी नाम से जानते थे) वो इतना पीटते थे बच्चों को कि उसको देख कर मेरी हिम्मत नहीं पड़ती थी स्कूल जाने की। एक पंडित जी थे वो बच्चे की नाभि को पकड़ धीरे-धीरे मसलते थे और बच्चा दर्द से दुहरा हो जाता था परन्तु वे मुस्कराते हुये दबाव और बढ़ाते जाते थे। हम पर दोहरा दबाव था। घर से स्कूल जाने का वरना वहाँ पर प्रताड़ना और स्कूल आने पर शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना। किसी तरह प्राइमरी की शिक्षा खतम हुई तो कुछ राहत मिली। लेकिन एक भय मन में व्याप्त हो गया जो निकलते-निकलते निकल पाया कि कुछ कहने से पहले मन मे यह शंका रहना कि गलत हो गया तो अपमानित होना पड़ेगा।
ReplyDeleteआप की बात से सहमत है जी
ReplyDeleteजो शिक्षक दंड देते हैं बच्चों को, मूल कारण जानने की बजाय, वे ख़ुद मानसिक रूप से बीमार हैं। छोटे बच्चों को मार कर, प्रताड़ना से किसी को क्या संतुष्टि मिलती होगी, मेरे समझ के परे है। अमिताभ जी की टिप्प्णी ने तो दिल दहला दिया।
ReplyDeletesantusti nahi milati aise log har samaya nayi samsya se jude rahate hai
Deletestudents ko anusasan mai krane ke liya kya kya karna chahiye
Deletestudents ko anusasan mai lane ke liye kya kya karna chahiye
Deleteप्रवीण जी पोस्ट का शीर्षक ही जाने कितनी देर तक विस्मित किये रखता है
ReplyDeleteप्रभावित करने वाला
ReplyDeleteविचारणीय और बेहतरीन पोस्ट.
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आप की बात से सहमत
आभार
sarthk post.....
ReplyDeleteदंड और भय के अंतर को अध्यापक नहीं समझ पा रहे जबकि वे भी उसी गली से होकर गुजरे हैं।
ReplyDeleteबालमनोविज्ञान पर यह बेहतरीन आलेख है ।
ReplyDeleteबहुत अच्छी श्रंखला प्रवीण जी , शुभकामनायें, आपका यह परिश्रम सार्थक होगा !
ReplyDeleteएक बेहतरीन रचना ...बच्चों के मनोविज्ञान पर अच्छी श्रृंखला ।
ReplyDeleteअनुशासन किस लिए होता है - बच्चों के लिए या बच्चों को अपनी बात मनवाने के लिए। जब तक बच्चे समझेंगे नहीं की उन्हें जो बताया जा रहा है की उनके क्या फायदे हैं और उनके न मानने के क्या नुक्सान है फिर अनुशासन सिर्फ डर और छड़ी में ही रहेगा और बच्चे ऐसे ही भागते रहेंगे। मुझे लगता है हमारी शिक्षा प्रणाली में शिक्षक और विद्यार्थी में संवाद की बहुत कमी है। शिक्षक समझते हैं की उन्होंने जो कहा है बच्चों को मानना ही होगा और फिर बच्चे उनकी बातों को नहीं मानते....
ReplyDeleteआपका ब्लॉग सराहनीय है, आभार।
अच्छा विश्लेषण है. यह नए सिरे से विचार के लिए मज़बूर करता है.
ReplyDeleteप्रवीण जी, आपका लेख आज के विद्याल्यों शिक्षा व्यवस्था और बच्चों के सन्दर्भ में बहुत सामयिक है। आपने बच्चों को लेकर जो प्रश्न उठाये हैं वो भी विचारणीय हैं। सुन्दर प्रस्तुति के लिये शुभकामनायें। पूनम
ReplyDeleteआज दिनांक 26 फरवरी 2010 के दैनिक जनसत्ता में भय की शिक्षा के नाम से संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में प्रकाशित हुई है। विषय जोरदार है और इस पर अमल किया जाना भी जरूरी है कि बच्चे डरें नहीं। शुभकामनायें।
ReplyDeleteहोली की हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteएक बेहतरीन प्रशंशनीय पोस्ट है.
ReplyDeleteआपको होली की रंगीली बधाई.
ReplyDeleteवाकई आप इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं. सुन्दर जानकारी, अद्भुत विश्लेषण, सार्थक प्रस्तुति..बधाई.
ReplyDelete______________
''शब्द-सृजन की ओर" पर- गौरैया कहाँ से आयेगी
बेहतरीन विचारणीय पोस्ट..ज्यादा अनुशाशन बच्चे को हमसे दूर करता है और उसे विद्रोह करने पर मजबूर.
ReplyDeleteAnushasan ke zaroorat sirf bachho mai hi nahi balki bado mai bhi hoti hai. Ragging jo ki ek "punishable offense" hai, mainey uska upyog bhi dekha hai. Woh kuchh badey bachhey jo ghar se door ho key aazadi mai kho jaatey hai unko sambhaal ke rakhti hai ye ragging.
ReplyDeleteAapka post mujhey hindi se jodey rakhta hai. Iska dhanyvaad.
Paritosh
bachchon ko pyaar se samjhane se unka mansik vikash hota hai.
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने...पूर्ण सहमति है...
ReplyDeletebahot bohot dhanyavaad darasal hamare vidyaale mein vaaad vivaad pratiypgita hai jiske liye hame anushasan ke liye dand aavashyak nahi hai us par bolna hai isliye meri madad kare
ReplyDeleteAap pata nahi kis anusashan ki baat kar rahe hain hamare school je bachhe to hamare saath apne ghar chalne ke liye chutti ke tab tak intajaar karte hain jub tak nain unke saath na chal doon
ReplyDeleteNice
ReplyDeleteak sbhya smaj banana k liya ak baccha ki life m teacher ka roll aham hota h .ak teacher ka dwara hi vo ak sbhya smaj bana sakta h.baccha school m jo bhi sikhta h vahi apni life m bhi apnata h
ReplyDeleteak sbhya smaj banana k liya ak baccha ki life m teacher ka roll aham hota h .ak teacher ka dwara hi vo ak sbhya smaj bana sakta h.baccha school m jo bhi sikhta h vahi apni life m bhi apnata h
ReplyDeleteuttam vichar
ReplyDeleteJitna baccho ko pyar sy samjhaya ja sakta h utna narazagi sy nahi y sochker samjhay Ki kabhi hum bhi bacche thy😊
ReplyDeleteall right
ReplyDeleteGood
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