गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट

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शिक्षा-प्रणाली में विद्यार्थी को केन्द्र में रखने की आवश्यकता को महत्वपूर्ण ढंग से रेखांकित करने के बावजूद रवीन्द्रनाथ ने गुरु की भूमिका और महत्ता पर विशेष बल दिया है। प्रस्तुत है कबीर के नजरिये से सम्बंधित तीसरी कड़ी.....





 
कुमति  कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय ।
जनम  जनम का मोरचा, पल में डारे धोय ।।

कुबुद्धि (अविवेक) रूपी कीचड/गंदगी से शिष्य भरा है, उसे धोने के लिए गुरु का ज्ञान जल की तरह है। कई जन्मों की बुराई (जैसे लोहे में लगी जंग/मुरचा) गुरुदेव एक क्षण/पल में ही नष्ट कर देते हैं।





गुरु  कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि  गढ़ि काढ़ै खोट ।
अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट ।।

गुरु कुम्हार है, और शिष्य घड़ा है; गुरु भीतर से हाथ का सहारा देकर और बाहर से चोट मार मार कर तथा गढ़-गढ़ कर शिष्य की बुराई को निकालते हैं।

जिस तरह कुम्हार अनगढ मिट्टी को तराशकर उसे सुंदर घडे की शक्ल दे देता है, उसी तरह गुरु भी अपने शिष्य को हर तरह का ज्ञान देकर उसे विद्वान और सम्मानीय बनाता है। हां, ऐसा करते हुए गुरु अपने शिष्यों के साथ कभी-कभी कडाई से भी पेश आ सकता है, लेकिन जैसे एक कुम्हार घडा बनाते समय मिट्टी को कडे हाथों से गूंथना जरूरी समझता है, ठीक वैसे ही गुरु को भी ऐसा करना पडता है। वैसे, यदि आपने किसी कुम्हार को घडा बनाते समय ध्यान से देखा होगा, तो यह जरूर गौर किया होगा कि वह बाहर से उसे थपथपाता जरूर है, लेकिन भीतर से उसे बहुत प्यार से सहारा भी देता है।



आजकल 'कबीर' पर कुछ अध्ययन मनन चल रहा है और उसका परिणाम है यह पोस्ट और आगे "कबीरवाणी" और "गुरु" लेबल के अंतर्गत आगे आने वाली क्रमिक पोस्ट्स। समय के प्रवाह में शायद इसी बहाने इनपर कुछ नया विमर्श मिल सके इस आशा के साथ "गुरु" केंद्रित कबीरवाणी आगे भी क्रमशः प्रस्तुत की जायेगी। कबीर की गुरु भक्ति उस चरम बिदु पर थी जहाँ उन्होंने कहा है-
"गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागू पाय, बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय।"
क्रमशः  जारी ...


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9Comments
  1. जय गुरुदेव!

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  2. गुरु चाह ले तो क्या हो सकता है,यह बात कबीर के ज़माने से लेकर आज तक सही है !

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  3. गुरु को कबीर ने बड़ी सरलता से व्याख्यायित किया है, बड़ी सुन्दर प्रस्तुति।

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  4. बहुत बढ़िया !

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  5. guru lobhi sishy lalchi ,dono khelain davn
    kah kabir dono bude chadgh pathar ki navn //

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