उक्त कथन सिर्फ एक नैतिक सलाह नहीं है, यह एक गहरी मनोवैज्ञानिक पड़ताल की माँग करता है। यह उन नकाबों को खींचता है जो हम तथाकथित “अच्छा इंसान” बनने के लिए पहनते हैं।
हर किसी को खुश रखने की प्रवृत्ति एक मानसिक असुरक्षा से जन्म लेती है। यह स्वयं को स्वीकार न कर पाने की पीड़ा है। हम इस भ्रम में जीते हैं कि अगर सब खुश रहेंगे, तो हम सही हैं। पर सच्चाई यह है कि जब आपके चारों ओर कोई भी असहमत नहीं है, तब असल में आपने अपने आत्म-सम्मान की कीमत पर शांति खरीदी है। और यह शांति नहीं, आत्म-समर्पण है।
मानव मन सामाजिक है, लेकिन जब यह सामाजिकता चापलूसी बन जाती है, तब व्यक्ति अपने नैतिक मूल्यों से समझौता करता है। वह विरोध से डरने लगता है, उसे असहमति अपराध लगने लगती है, और आलोचना व्यक्तिगत अपमान। तब वह समझौतों की एक लंबी सूची बनाता है—जहाँ उसने अपने विचार नहीं रखे, जहाँ उसने अन्याय को चुपचाप देखा, जहाँ उसने अपने मन को मार कर दूसरों की इच्छाओं को पालना चुना।
अगर आप हर किसी के साथ खुश हैं, तो इसका अर्थ है कि आप किसी के व्यवहार से कभी आहत नहीं हुए—या शायद आप आहत तो हुए, पर आपने उस पीड़ा को दबा दिया। आपने किसी की कठोरता को माफ़ नहीं किया, बल्कि नज़रअंदाज़ कर दिया। और यह अनदेखी रिश्तों को मजबूत नहीं करती, उन्हें खोखला करती है। जो संबंध केवल चुप्पी पर टिके हों, वे वक्त के एक झटके में ढह जाते हैं।
यह मानसिक प्रवृत्ति व्यक्ति को भीतर से खोखला करती है। वह हर किसी का हो जाता है, लेकिन खुद का नहीं रह पाता। वह सबके चेहरे पढ़ना सीखता है, लेकिन अपनी आत्मा की भाषा भूल जाता है। अंततः वह एक ऐसा मुखौटा बन जाता है, जो हर चेहरे पर फिट बैठता है—सिवाय अपने असली चेहरे के।
समाज ऐसे लोगों को पुरस्कार देता है—उन्हें ‘समझदार’, ‘संयमी’ और ‘मिलनसार’ कहता है। पर यह पुरस्कार आत्मा की कब्र पर रखे फूल हैं। इस समाज में विरोध करने वाला 'अहंकारी' कहलाता है, और चुप रहने वाला 'सभ्य'। जबकि सच्चाई यह है कि असहमति का साहस ही मानसिक स्वतंत्रता की पहली सीढ़ी है।
अब समय है कि हम “सबको खुश रखने” के रोग से बाहर निकलें। आत्म-सम्मान कोई विलासिता नहीं, एक बुनियादी ज़रूरत है। जो दूसरों के व्यवहार पर मौन रहकर शांत रहता है, वह भीतर ही भीतर शोर में जल रहा होता है। हमें यह शोर सुनना होगा। क्योंकि जो व्यक्ति सबको खुश रखने की कोशिश में लगा है, वह अंततः खुद से दूर होता जा रहा है। और जो व्यक्ति खुद से दूर हो गया, वह चाहे जितना मुस्कुराए, वह भीतर से टूटा हुआ ही होगा।
अब वक्त है कि हम खुश रखने की नीति को चुनौती दें। असहमति से डरें नहीं, संवाद से भागें नहीं, और अपनी आत्मा की आवाज़ को चुप न करें। यही मानसिक क्रांति की शुरुआत है।
✍️ प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर
परिचय
बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।
शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।