पदोन्नति की राह में हर बार ठहर जाते हैं,
हर योजना के पीछे हम कहीं खो जाते हैं।
हाईकोर्ट के फैसले क्या देंगे उड़ान,
फिर से हम राह तकते रह जाते हैं।
लगभग आठ सालों से प्रमोशन की आस लगाए बैठे प्राथमिक शिक्षकों के लिए यह खबर बिल्कुल वैसी ही लग रही है, जैसे रेगिस्तान में मृगतृष्णा का दृश्य। "नई नीति करीब-करीब तय हो चुकी है"—यह वाक्य शिक्षकों के लिए पिछले कुछ सालों से अधिक सुनने को मिल रहा है, मगर परिणाम वही ढाक के तीन पात।
हर तीन साल में प्रमोशन का सपना दिखाया जा रहा है, जबकि पिछले आठ सालों में एक बार भी पदोन्नति की खुशबू तक नहीं आई। हालात यह हैं कि कुछ शिक्षक प्रमोशन की आस में हाईकोर्ट तक जा पहुंचे, और अब उम्मीद यह है कि नए आदेश "जल्द ही" जारी होंगे। ऐसे में शिक्षक यह सोच रहे होंगे, "नई नीति का इंतजार करते-करते कहीं हम स्वयं ’पुरानी नीति’ न हो जाएं!"
प्राइमरी शिक्षकों की पदोन्नति की कहानी आज की नहीं है। यह गाथा अब तक आठ सालों से चल रही है। हर साल उम्मीदें जागती हैं, लेकिन फिर इंतजार का पहाड़ खड़ा हो जाता है। पदोन्नति की नई नीति तो लगभग तय है, मगर शिक्षकों के मन में सवाल उठता है कि क्या ये सच में उनके लिए खुशियां लेकर आएगी या फिर यह सिर्फ एक और तारीख की घोषणा होगी, जिसे अगले कुछ महीनों में फिर से आगे बढ़ा दिया जाएगा?
शिक्षकों का तो यही कहना है, "बेसिक शिक्षा विभाग का काम कभी टाइमलाइन पर हो जाए, तो वह चमत्कार ही कहलाएगा!" आठ साल से पदोन्नति का इंतजार करते-करते उनके हौंसले पस्त हो गए हैं। अब तो यह ऐसा लगता है जैसे किसी को पतंग उड़ाने का सपना दिखा दिया हो, लेकिन डोर थमा न दी हो। हर बार नई नीति की चर्चा होती है, लेकिन असलियत में कुछ बदलता नहीं।
ज्येष्ठता सूची के बार-बार लटकने की कहानी किसी पुराने हिंदी सीरियल की तरह हो गई है, जहां हर बार कुछ नया ड्रामा आ जाता है। जिलों में लापरवाही की गाथा तो वैसे भी शिक्षा विभाग की पहचान बन चुकी है। जब किसी सूची को 10 बार बढ़ाया जा चुका हो, तो संदेह करना स्वाभाविक है कि वह सूची कभी तैयार होगी भी या नहीं। शिक्षकों के लिए यह एक पहेली बन चुकी है—"आज हमारी सूची आएगी या नहीं?" हर बार नई तारीख और हर बार नए बहाने। शायद बेसिक शिक्षा विभाग को यह समझ में नहीं आता कि शिक्षकों की जिंदगी भी किसी टाइमलाइन पर चलती है।
अब पदोन्नति की नई नीति आने की खबर है, जो हर तीन साल में प्रोन्नति का वादा करती है। मगर क्या यह वादा भी पिछले वादों जैसा ही साबित होगा, जो आते ही अनंत काल में खो जाता है? विभाग की पुरानी रफ्तार देखकर तो यही लगता है कि तीन साल की जगह छह साल में भी काम हो जाए, तो गनीमत है।
आठ साल से प्राइमरी के शिक्षकों का धैर्य जवाब दे चुका है। शायद उनके लिए अब पदोन्नति किसी मृगतृष्णा से कम नहीं। यह ऐसा सपना है जो दिखता तो है, लेकिन हासिल नहीं होता। विभाग की अनियमितताओं और लापरवाही की इस दास्तान में शिक्षकों के पास अब उम्मीदें खोने के अलावा कुछ बचा नहीं है।
शिक्षक बेचारे भी सोचते हैं, "यही आखिरी उम्मीद है!" लेकिन हर बार नया अचम्भा सामने आता है। इस बार तो आलम यह है कि पदोन्नति के वादे ने कोर्ट कचहरी का भी रास्ता पकड़ लिया। क्यों न पकड़ता? शिक्षा विभाग के हर बड़े फैसले की मंज़िल वहीं होती है—कोर्ट में दस्तावेजों के ढेर के नीचे, जहां समय की धारा इतनी धीमी बहती है कि शिक्षक के बाल सफेद हो जाते हैं और उसका बच्चा उसी स्कूल में सहायक अध्यापक बन जाता है जहां वो खुद कभी प्रमोशन की आस लगाए बैठा था।
मामला चाहे पदोन्नति का हो या ज्येष्ठता सूची का, शिक्षा विभाग की एकलौती नीति यही है: "जब तक कोर्ट न बोले, कुछ न बोले।" हर योजना लटकी हुई है, जैसे पुराने जमाने का पंखा, जो बिजली के बिना महज धागे से घुमाया जा सकता है। कुछ शिक्षकों ने जब हार मानकर हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया, तो अचानक से जिलों से सूचनाएं मंगाने की होड़ मच गई। मानो हाईकोर्ट न होता, तो सब उसी लटकी हुई रस्सी पर झूलते रहते।
अब सवाल यह उठता है कि क्या यह नई नीति भी उन्हीं पुरानी नीतियों की तरह कहीं कागजों में गुम हो जाएगी, या फिर वास्तव में शिक्षकों की पदोन्नति का सपना पूरा होगा? जवाब शायद अगली तारीख में मिलेगा, या फिर अगली तारीख में, या शायद... फिर से अगली तारीख में।
✍️ प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर
परिचय
बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।
शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।