रघुवीर बाबू, उत्तर भारत के एक छोटे शहर के साधारण सरकारी कर्मचारी, अपनी हर महीने की तंगी को बड़े ही धैर्य से झेलते थे। उनका पूरा परिवार हर साल बजट के दिन कुछ ऐसा सुनने की उम्मीद करता, जिससे उनके जीवन की मुश्किलें थोड़ी कम हो सकें। लेकिन हर बार नतीजा वही ढाक के तीन पात। 2025 का बजट आने वाला था, और छूट मिलने की आशाओं वाली अखबारी खबरें पढ़कर इस बार उनके भीतर आशा की एक नई किरण जागी थी।
बजट से एक दिन पहले की रात, उन्होंने देवी लक्ष्मी की पूजा बड़े विधिपूर्वक की। ऐसा लग रहा था मानो उनके घर में बजट का देवता खुद विराजमान हो गया हो। पूजा के बाद बच्चों ने पूछा, "पापा, क्या बजट में हमें भी नई साइकिल मिलेगी?" रघुवीर बाबू मुस्कराए और बोले, "अगर सरकार ने आयकर में छूट दी तो साइकिल ही नहीं, स्मार्टफोन भी मिलेगा।" बच्चे खुश हो गए। पत्नी ने तंज कसा, "पहले किराने का बजट तो संभाल लो, स्मार्टफोन बाद में ले लेना।"
रात में सोते ही रघुवीर बाबू को सपना आया। उन्होंने देखा कि वित्त मंत्री संसद में मुस्कुराते हुए कह रही हैं, "इस बार आयकर की सीमा 15 लाख रुपये तक कर दी गई है और पेंशनधारकों को भी विशेष राहत मिलेगी।"
रघुवीर बाबू के चेहरे पर खुशी की चमक आ गई। उन्होंने सपना देखा कि उनका पुराना घर चमचमाता नया मकान बन चुका है। मोहल्ले के लोग उन्हें बधाई देने आ रहे हैं। बाजार में उनकी नई कार खड़ी है। बच्चे साइकिल चला रहे हैं, और उनकी पत्नी नई साड़ी पहनकर मिठाइयां बांट रही हैं। यहां तक कि उनकी छत पर एक हेलीकॉप्टर भी लैंड करने की तैयारी में था।
तभी अलार्म घड़ी ने उन्हें सपना तोड़कर हकीकत में ला पटका। रघुवीर बाबू उठे और फौरन टीवी चालू किया। चैनलों पर बजट की खबरें चल रही थीं। उन्होंने देखा कि वित्त मंत्री बोल रही थीं, "इस साल कोई नई टैक्स छूट नहीं दी जाएगी। यह सुनते ही रघुवीर बाबू के हाथ से चाय का कप गिर गया।
फिर उन्होंने अखबार उठाया, जिसमें हेडलाइन थी—“आयकर छूट की सीमा नहीं बढ़ी, महंगाई के चलते मिडिल क्लास की हालत और खराब।” रघुवीर बाबू ने गहरी सांस ली और अपने सामने पड़ी बिलों की मोटी फाइल को देखा। बच्चों की स्कूल फीस, बिजली का बिल, गैस सिलेंडर के दाम और राशन की सूची—सब कुछ जैसे उन पर हंस रहा था। उन्हें लगा कि फाइलें कह रही हों, “तुम्हारी उम्मीदों पर हमारी गारंटी नहीं।”
उनकी पत्नी ने किचन से आवाज दी, "सुना, बजट में क्या मिला?" उन्होंने निराशा भरी आवाज में कहा, "सपने तो मुफ्त थे, हकीकत महंगी पड़ गई।" उनकी पत्नी ने तंज कसा, "तुम हर बार वही सपना क्यों देख लेते हो?" शाम को दफ्तर में साथी कर्मचारियों से मुलाकात हुई। सभी के चेहरे पर निराशा थी। किसी ने चुटकी ली, "इस बजट का नाम होना चाहिए 'मिडिल क्लास को भूल जाओ योजना'।"
बजट हर साल आम आदमी के लिए उम्मीदों की थाली सजाता है, लेकिन परोसता वही पुरानी बातें है। बजट हर साल आम आदमी के लिए एक सपने जैसा होता है—आशाओं का जाल, जो टूटने के बाद निराशा छोड़ जाता है। रघुवीर बाबू जैसे कर्मचारी केवल यह सोचते रह जाते हैं कि शायद अगला बजट उनके जीवन में रंग भर देगा।