कबीर सन्त कवि और समाज सुधारक थे। कबीर सधुक्कड़ी भाषा में
किसी भी सम्प्रदाय और रूढ़ियों की परवाह किये बिना खरी बात कहते थे।
हिंदू-मुसलमान सभी समाज में व्याप्त रूढ़िवाद तथा कट्टरपंथ का खुलकर विरोध
किया। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे- 'मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।'
वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे।
आजकल 'कबीर' पर कुछ अध्ययन मनन चल रहा है और उसका परिणाम है यह पोस्ट और आगे "कबीरवाणी" और "गुरु" लेबल के अंतर्गत आगे आने वाली क्रमिक पोस्ट्स। समय के प्रवाह में शायद इसी बहाने इनपर कुछ नया विमर्श मिल सके इस आशा के साथ "गुरु" केंद्रित कबीरवाणी आगे प्रस्तुत की जायेगी।
मूलतः गुरु वह है जो ज्ञान दे। संस्कृत भाषा के इस शब्द का अर्थ आज के समय में शिक्षक से भी लगाया जा सकता है। भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत गुरु अपने शिष्य को शिक्षा देता है या कोई विद्या सिखाता है। गुरु-शिष्य की यह परम्परा ज्ञान के किसी भी क्षेत्र में हो सकती है। भरतीय संस्कृति में गुरु का बहुत महत्व है। कहीं गुरु को 'ब्रह्मा-विष्णु-महेश' कहा गया है तो कहीं 'गोविन्द'।
कबीर के अनुसार प्रत्येक मानव को गुरु भक्ति और साधन का अभ्यास करना चाहिए। इस सत्य की प्राप्ति से सब अवरोध समाप्त हो जाते हैं। गुरु भक्ति रखकर साधन पथ पर चलने वाले सभी लोगों को आंतरिक अनुभूति मिलती है। कबीर की गुरु भक्ति उस चरम बिदु पर थी जहाँ उन्होंने कहा है-
"गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागू पाय, बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय।"
गुरु को कीजै दण्डवत, कोटि कोटि परनाम ।
कीट ना जाने भृंग को, गुरु करले आप समान ।।
गुरु को दण्डवत करोड़ो बार प्रणाम करो। कीड़ा भृंगी (एक प्रकार की मक्खी) के महत्त्व को नहीं जानता , पर जैसे भृंगी कीड़े को अपने जैसा ही बना लेती है; वैसे ही शिष्य को गुरु अपने सदृश बना लेते हैं।
हम सब जानते हैं कि भृंगी (एक प्रकार की मक्खी) छोटे कीड़ों को पकड़ और उसे अपना शब्द (ध्वनि) सुनकर उसे अपना सा बना लेती है। शायद यह केवल दृष्टांत ही कहा जा सकता है पर व्यवहार में देखा ही गया है कि अक्सर गुरु अपने प्रभाव और शब्दों से शिष्य को अपने जैसा बना ही लेते हैं।
गुरु सों ज्ञान जु लीजिए, सीस दीजिए दान ।
बहुतक भोंदूँ बहि गए, राखि जीव अभिमान ।।
अपने सर की भेंट चढ़ाकर गुरु से ज्ञान प्राप्त करो। परन्तु यह सीख ना मानकर और तन, धन आदि का अभिमान करने वाले कितने ही मूर्ख संसार में बह गए, पर गुरु का साथ ना पा सके।
गुरु अब गरू बन गया है समाज के लिए.....कबीर की सीख यह बताती है कि गुरु वही है जो सही दिशा दे दे,मन के अंदर की जकदन को खोल दे,अज्ञान नष्ट कर दे.
ReplyDeleteजिससे भी हमारा सुधार हो जाये,वही गुरु है.गुरु अनुकरणीय होगा तभी शिष्य को लाभ मिल सकता है !
जकदन=जकडन
ReplyDeleteकबीर दास जी ने सीधे-सीधे लिखा। तुलसी दास जी ने थोड़ा घुमा कर गुरू की महिमा का बखान किया है....
ReplyDeleteजय जय जय हनुमान गोसाईं
कृपा करहुँ गुरू देव की नाईं।
...भगवान से प्रार्थना करना कि हे हनुमान तुम मेरे ऊपर ऐसे कृपा करो जैसे गुरू देव करते हैं। अर्थात गुरू से कृपालु दूसरा कोई नहीं है संसार में।
आप तो स्वयम् गुरू हैं। आप भी सभी ब्लॉगरों पर कृपा करके कबीर दास जी को पढ़वाइये। इस श्रृंखला का स्वागत है।
सही मायने में कबीर आज प्रासंगिक हैं....
ReplyDeleteतूने रात गँवायी सोय के, दिवस गँवाया खाय के।
ReplyDeleteहीरा जनम अमोल था, कौड़ी बदले जाय॥
सुमिरन लगन लगाय के मुख से कछु ना बोल रे।
बाहर का पट बंद कर ले अंतर का पट खोल रे।
माला फेरत जुग हुआ, गया ना मन का फेर रे।
गया ना मन का फेर रे।
हाथ का मनका छाँड़ि दे, मन का मनका फेर॥
दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय रे।
जो सुख में सुमिरन करे तो दुख काहे को होय रे।
सुख में सुमिरन ना किया दुख में करता याद रे।
दुख में करता याद रे।
कहे कबीर उस दास की कौन सुने फ़रियाद॥
वाह वाह ! बहुत बढ़िया.
ReplyDeleteजितना पढ़ते हैं, उतना सोचते हैं।
ReplyDeleteजय गुरुदेव॥ अमृतवाणी बरसाते रहें॥
ReplyDeleteजय जय जय हनुमान गोसाईं
ReplyDeleteकृपा करहुँ गुरू देव की नाईं।
...भगवान से प्रार्थना करना कि हे हनुमान तुम मेरे ऊपर ऐसे कृपा करो जैसे गुरू देव करते हैं। अर्थात गुरू से कृपालु दूसरा कोई नहीं है संसार में।
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प्राइमरी का मास्टर
जय जय जय हनुमान गोसाईं
ReplyDeleteकृपा करहुँ गुरू देव की नाईं।
...भगवान से प्रार्थना करना कि हे हनुमान तुम मेरे ऊपर ऐसे कृपा करो जैसे गुरू देव करते हैं। अर्थात गुरू से कृपालु दूसरा कोई नहीं है संसार में।
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प्राइमरी का मास्टर