........पिछली कड़ी में हम बच्चों की बातों पर ध्यान केन्द्रित करने के सम्बन्ध में चर्चा कर चुके हैं| .....उससे आगे बढ़ते हुए कह सकते हैं कि प्राथमिक स्तर में आते आते बच्चे दिए गए संदेशों को कार्य-रूप में परिणित करने की क्षमता हासिल कर चुके होते हैं .......जोकि उन्ही के प्रयासों से ही संभव हुआ होता है|
.......जाहिर है! इस क्षमता को हासिल करने में अब तक की गयी घरेलू बातचीत की ही अहम भूमिका होती है| बच्चा अपने जीवन में , अपने परिवेश से यह सब सीखता है ......और इस रूप में अपने अनुमानों को सक्रिय करना सीखने लगता है| इस अधिगम (LEARNING) को हासिल करने के बाद बच्चा अचानक विद्यालय में इसी साधन (बातचीत) की सबसे अधिक उपेक्षा देखता है ..... परिणाम-स्वरुप वह अधिकाँश रूप में सहमा और और अपनी स्वाभाविक चेष्टाओं को दमित करने को मजबूर होता है| सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में अधिकाँश रूप में आप बच्चों को इसी दशा में पायेंगे .......हालांकि बाल मनोविज्ञान में असमर्थता के अलावा अध्यापकों की पर्याप्त संख्या में ना होना भी इस दशा को अंतहीन रूप से उत्प्रेरित करने का जिम्मेदार कारक हैं|
इस रूप में मेरी मान्यता है कि वर्तमान शैक्षिणिक माहौल में बातचीत को प्रमुख शिक्षण सामग्री के रूप में प्रोत्साहित करने की सबसे अधिक आवश्यकता और संभावनाएं हैं| इस बातचीत की प्रक्रिया में अध्यापक की भूमिका केवल नियमन और उत्प्रेरण तक ही सीमित होना चाहिए|
साधारण रूप में अगर बच्चों की आपसी बातचीत को समझाने की कोशिश करें तो पाया जा सकता है कि निम्न रूप में बच्चे अपनी क्रियाओं और चेष्टाओं को सक्रिय रखते हैं:-
- बातचीत का सबसे बड़ा आधार अचानक किसी नयी चीज पर ध्यान देने से प्रारम्भ होता है|
- वह अनूठी चीज जो उसने पहली बार देखी|
- इस प्रक्रिया में बच्चे की सभी ज्ञानेन्द्रियाँ सक्रिय होती हैं|
- उस चीज पर अपने मस्तिष्क को सबसे अधिक सक्रिय करना|
- सभी बच्चों द्वारा अपने अपने पर्यवेक्षण (OBSERVATION) पर ही परस्पर चर्चा|
- पुराने अनुभवों से नए अनुभवों की तुलना और उन्हें क्रम-बद्ध रूप में सजोने की कोशिश|-
- अपने पर्यवेक्षण पर डटे रहने की प्रवत्ति|
- और उस पर सहमत करने के लिए तर्क(...कभी कभी कुतर्क भी)|
- पूर्वज्ञान की अनोखी कसरत|
- अपने तर्क पर ही पिछले अनुभव से तुलनात्मक चितन और मनन करना |
- तर्कों को व्यवस्थित करने की प्रक्रिया में कल्पनाओं का सहारा लेना|
उपरोक्त बिन्दुओं पर ध्यान दें तो बातचीत के क्रम में आपने महसूस किया होगा कि बच्चों की किस रूप में बौद्धिक कसरत होती है| जाहिर है इतनी कसरत के लिए कुछ आप (अध्यापक) को भी करना पडेगा| दो बातें सबसे महत्वपूर्ण हैं ....
- विद्यालय का प्रत्येक बच्चा यह महसूस करे कि उसकी हर बात सुनी जायेगी|
- ...और ....
- बच्चों को भरोसा हो कि उनका बोलना और बतियाना अध्यापक को अच्छा लगता है|
(क्रमशः जारी .....)
सार्थक एवं विचारणीय आलेख..जारी रहें.
ReplyDelete100% टंच आलेख। ऐसे लेख ब्लॉगरी को गरिमा प्रदान करते हैं। आप उन पुराने अध्यापकों की परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं जो बच्चे को अच्छे नागरिक का आकार देते थे।
ReplyDeleteआभार। अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी।
दोनों बातों से पूर्णतया सहमत। स्तरीय जिज्ञासा का स्तर बनाये रखने के लिये यह अति आवश्यक है।
ReplyDelete* विद्यालय का प्रत्येक बच्चा यह महसूस करे कि उसकी हर बात सुनी जायेगी|
ReplyDelete* ...और ....
* बच्चों को भरोसा हो कि उनका बोलना और बतियाना अध्यापक को अच्छा लगता है|
Points to be noticed.
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यह तो 'फतेहपुर प्रबोध 'के नाम से जाना जाय ऐसी अनुशंसा है !
ReplyDeleteबिलकुल सही बात कही आप ने, धन्यवाद
ReplyDeleteब्लॉग-संसार में इधर-उधर घूमता-फिरता हुआ मैं अचानक आपके ब्लॉग पर आ पहुँचा। स्वयं एक शिक्षक होने के नाते आपके गंभीर शैक्षिक सरोकारों को सलाम करता हूँ! आप महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं...भाई!जब भी मौक़ा मिला, फतेहपुर आऊँगा। आपसे अवश्य मिलूँगा! अपने घर (कानपुर) जाते समय रास्ते में ही मिलता है...फतेहपुर। कभी उतर लूँगा वहीं।
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ReplyDeleteआज का सर्व शिक्षा अभियान का मुख्य उद्देश्य यही है.
ReplyDeleteशिक्षा प्रणाली में जो फेरबदल हो रहे हैं, उसके मूल में यही विचार हैं.
भानु प्रताप आगरा) (आगरा) की ई-मेल से प्राप्त टीप :-
ReplyDeleteअति उपयोगी विचार हैं।.. स्कूलों में ये लागू करवाइए। कायाकल्प हो जाएगा।..
फेसबुक पर संतोष त्रिवेदी की टीप:-
ReplyDeleteशिक्षा का महत्वपूर्ण अंग है, बच्चों से लगातार बात-चीत करते रहना ! अनुशासन की समस्या आने के बावजूद यह ज़रूरी हिस्सा है...
बहुत सही चिंतन है।
ReplyDeleteविचारणीय आलेख....
ReplyDeletePraveen ji,
ReplyDeleteapne vartaman shiksha pranali ke liye ek sarthak aur vicharniya lekh likha hai.main bhi apki bat se sahmat hoon.
Poonam