कल अपने विद्यालय में मिड डे मील आईवीआरएस (IVRS) से आये हुए फ़ोन काल को निबटा रहा था ....तो दो बच्चों की आपसी बातें सुन कर बड़ा अच्छा लगा| बहरहाल उनकी बातें मेरे मोबाइल से जुडी सामान्य जिज्ञासाओं से सम्बंधित थी| उन्हें बुलाकर अपना मोबाइल पकड़ा कर कुछ समझाया | यह लेख उस "बातचीत" को और उसके पीछे जुडी जिज्ञासाओं को "सबसे प्रभावोत्पादक साधन" के रूप में प्रतिष्ठित करता है |
(इस लेख का कुछ आधार सतीश पंचम और अरविन्द जी के हालिया बौद्धिक विमर्श पर भी आधारित है |)
सामान्य रूप से हमारे विद्यालयों में बात-चीत करने को हेय दृष्टि से देखा जाता है | माना जाता है कि यह बातचीत क्लास रूम से बाहर की चीज है | जाहिर है अपनी अभिव्यक्ति को जाहिर करने वाले इस सबसे महत्त्व-पूर्ण साधन की हम सब अब तक इस विद्यालयी व्यवस्था में उपेक्षा ही करते आयें हैं| माना जाता है कि विद्यालयों में बातचीत करना पढ़ाई ना करने का दूसरा रूप है | बच्चे बातचीत को सबसे अधिक स्वतंत्र मध्यावकाश या अध्यापक के कक्षा में ना रहने की स्थिति में ही होते हैं|
सामान्य रूप से हम सब अपने घर में बच्चे के पालन -पोषण में "बातचीत" करने को जितना महत्वपूर्ण समझते हैं .........विद्यालय आते आते यह विचारधारा पूरी तरह से पलटी खा जाती है | बात-चीत को लेकर हमारी अवहेलना के कारण हम इस सबसे बड़े सामर्थ्यवान साधन की संभावनाओं को अब तक नहीं दोहन कर सके हैं |बातचीत को विशेष रूप से प्राथमिक स्तर के बच्चों के स्तर में सीखने और सीखी हुई चीजों को और अधिक परिपक्व बनाने के लिए हर संभव रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए |
जाहिर है बातचीत एक ऐसा साधन है जिसके लिए आपको कोई खर्च नहीं करना ...खासकर उस दशा में जहाँ हम अब तक प्राथमिक स्तर पर सुविधाएं नहीं उपलब्ध नहीं करवा सके हैं| मेरी अपनी मान्यता के अनुसार ऐसा विद्यालय बड़ा ही बोरिंग और मनहूस लगता होगा ? बातचीत को लेकर यह आरोप लगाया जा सकता है कि हमेशा बातचीत के उद्देश्य प्रभावी और बाल-उपयोगी नहीं हो सकते है ....पर फिर भी अध्यापक के मार्ग-निर्देशन और अगुवाई में बच्चे सीखने की उन संभावनाओं को टटोल सकेंगे ...जिनकी हम सब अपेक्षा रखते हैं |
इस रूप में एक अच्छे श्रोता के रूप में अध्यापक का महती दायित्त्व उस बातचीत के परम उद्देश्यों और बातचीत के कारण उपजी सीखने की संभावनाओं को दिशा देने का है | बातचीत की इन संभावनाओं के लिए सबसे पहले जरूरी है हम सब बच्चों की बात को सुनने की आदत डालें| ...हालांकि यह कहना आसान है ...पर इसे करना उतना ही मुश्किल क्योंकि हम अध्यापक यह मानकर चलते हैं कि हमारा काम बच्चों को निर्देश देना है ...और बच्चों का काम केवल सुनना | यह पूर्वाग्रह हमें बातचीत के केवल एकाकी मार्ग पर ही चलने को बाध्य करता है.........जिसमे केवल बच्चों को सुनाना है ......सुनना नहीं |
बच्चों की बातचीत को शिक्षण सामग्री के रूप में इच्छुक अध्यापक का सबसे पहले दायित्त्व यही होना चाहिए कि वह सबसे पहले इस बातचीत के लिए प्रोत्साहनयुक्त माहौल निर्मित करे|
(क्रमशः जारी ....)
बदलती शिक्षण पद्धति में इस विषय पर भी अवश्य विचार किया जाना चाहिए |
ReplyDeleteब्रह्माण्ड
आपकी सोच की दिशा तो एकदम पटरी पर है. आगे बढे फुल स्पीड.
ReplyDeleteबच्चे बातचीत से ही न जाने कितनी चीजें सीखते हैं।
ReplyDelete‘केवल बच्चों को सुनाना है .’
ReplyDeleteहम सुन रहे हैं :)
रोचक। अलग सी बात। आप से ऐसी ही अपेक्षा रहती है। अगली कड़ी की प्रतीक्षा है।
ReplyDelete"सामान्य रूप से हमारे विद्यालयों में बात-चीत करने को हेय दृष्टि से देखा जाता है | "
ReplyDeleteयह पढ़कर थोड़ा आश्चर्य हुआ. यदि पढ़ने लिखने वाली वौद्धिक जगहों पर ही बात नहीं होगी तो फिर कहां होगी. आकेला चना ही भाड़ फोड़ सकता है पर सीने में जलन होनी चाहिये...जो घर फूंके आपना वो चले हमारे साथ. कुछ चीज़ो को बदल देना बहुत ज़रूरी होता है
बस इत्ता सा
ReplyDeleteसामान्य रूप से हमारे विद्यालयों में बात-चीत करने को हेय दृष्टि से देखा जाता है...
ReplyDeleteसहमत.. डरा के रखते थे स्कुल में.. बात की तो क्लास से बाहर..
बात तो एकदम ठीक कह रहे हो मास्टर साहब !मैं अपनी कक्षा में बच्चों से पाठ्यक्रम से इतर बातें भी खूब करता हूँ और उनके साथ थोडा दोस्ताना रवैया भी अपनाता हूँ,मगर इस कोशिश में कक्षा-अनुशासन नहीं निभा पाता,जबकि मेरे कई साथियों की कक्षाएं शांत रहती हैं.मैंने बच्चों से ही इसका कारण पूछा तो वे बेबाकी से बताते हैं कि 'वो सर जी बहुत मारते हैं'....
ReplyDeleteसार्थक लेख ...आभार !
ReplyDeleteThank u best of luck
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने...शब्दशः सहमत हूँ...
ReplyDeleteजरुरी है बातचीत। पर अध्यापक की उपस्थिती में। क्योंकी अनुशासन भंग किए बिना भी बातचीत की जा सकती है।
ReplyDeleteआपकी सोच बहोत ही अच्छी है..मै आपके ब्लॉग पर पहली बार आया हूँ. वैसे मै भी भविष्य में प्राइमरी का अध्यापक बनना चाहता हूँ.
ReplyDeleteआपका ब्लॉग बहोत ही अच्छा लगा. धन्यवाद
मैं आपकी बातों से पूर्णतः सहमत हूँ. आमतौर पर हम ये सोचते हैं कि जो हमेशा से होता चला आया है, वही सही है. नयी सोच और तरीकों को अपनाना बड़ी बात है और आप ऐसा कर रहे हैं. शुभकामनाएँ !
ReplyDeleteआज दिनांक 27 सितम्बर 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में आपकी यह पोस्ट सुनना और कहना शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्कैनबिम्ब देखने के लिए जनसत्ता पर क्लिक कर सकते हैं। कोई कठिनाई आने पर मुझसे संपर्क कर लें।
ReplyDeleteखेल है खिलवाड़ है पैसे का पहाड़ है
खेल है खिलवाड़ है पैसे का पहाड़ है
ReplyDeleteजनसत्ता में आज प्रकाशित इस पोस्ट की सूचना क्या स्वीकृति के इंतजार में है।
यह सही है संवादहीनता बहुत सी परेशानियों को जन्म देती है ।
ReplyDeleteविचारणीय लेख के लिए बधाई
ReplyDeleteBatcheet Ka Topic Dekar Avasar Dena accha hai. Batchit Hona Lokatantrik Tarika Hai.
ReplyDeleteBatchit ko kisi Nischit Topic Par Focus karane me TEACHER Ko Shahyog Karana Chayihe ...Yani Discussion Karana Thik hai..
ReplyDeleteबच्चा ये सब महसूश कर रहा है
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