ऐसा क्या है, इसे खेलने में जो हमें देखना चाहिए? वह हम क्यों नहीं देख पा रहे हैं ?

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चपना, खेलने और पढ़ने का होता है, लेकिन अब तो पढ़ाई का ही बोझा इतना अधिक हो गया है कि नौनिहालों का बचपना ही छिन गया है। पहले की तरह न वह उछल कूद कर पाते हैं और न ही बुआ, चाचा, ताई, बाबा, दादी आदि का सानिध्य पा रहे हैं तभी तो उनका मन बोझिल होता जा रहा है।


समूचे देश में आज बाल दिवस मनाया जा रहा है। आखिर बच्चों की इस पीड़ा को भी गौर करने की जरूरत है कि बस्ते के बोझ से न केवल वह दबे जा रहे हैं बल्कि प्रतिस्पर्धा में उनके ऊपर इतना पढ़ाई का काम दिया जा रहा है जो उनके मन को भी बोझिल कर रहा है। ऐसा नहीं है बच्चों के अंदर यह पीड़ा नहीं है। उनके खेलने और बाबा दादी के साथ घूमने का मौका ही अब उनके पास कहां है।

स्कूल के बाद जब घर पहुंचते हैं तो होम वर्क पूरा करने का भय ! इसके बाद ट्यूशन और फिर ट्यूशन का अलग से काम दिया जाता है। करें तो क्या यदि यह काम नहीं पूरा करते तो फिर स्कूल में डांट खाने का डर रहता है और घर में भी मम्मी पापा यही कहते रहते हैं कि बैठकर पढ़ो।

पहले का बचपना और अब के परिवेश में भारी अंतर आ गया है। संयुक्त परिवारों के खात्मे के बाद बच्चों को अब परिवार के सभी सदस्यों का सानिध्य भी नहीं मिल पाता। मम्मी, पापा तक ही सीमित रह गये हैं। खेलने का मौका ही कहां मिलता है लंच में ही थोड़ा साथियों के साथ खेल लेते हैं।

अपने बच्चों को खेलते हुए देखना हम लोगों द्वारा लगभग भुला दिया गया है। हम सब कुछ देखते हैं, बच्चों का खेल नहीं। आखिर ऐसा क्या है, इसे खेलने में जो हमें देखना चाहिए? वह हम क्यों नहीं देख पा रहे हैं ?

पुराने परम्परागत खेलों से भी बच्चे आज-कल दूर कर दिए गए हैं , आखिर अपने -अपने में सिमटे इस दौर में उन परम्परागत सामूहिक खेलों के लिए अब न  माँ - बाप और बच्चे तैयार होते हैं | परम्परागत खेलों में बच्चों को समूह बनाकर और उस समूह का हिस्सा बनकर खेलना पडता है, जाहिर है, इससे समूह में काम करने की आदत पडती है और नेतृत्व क्षमता के साथ साथ टीम भावना अर्थात सामूहिकता का विकास होता है | आज-कल के वीडियो और इलेक्ट्रोनिक खेलों में और चाहे जितने गुण हम खोज लें पर सामूहिकता और नेतृत्व क्षमता में ये मीलों पीछे हैं |

आइये इस बाल दिवस में हम सब यह सोचें कि बच्चे पढने के साथ साथ खेलने के लिए भी पर्याप्त समय पाते रहें! आखिर बच्चे हमारी परंपरा के वाहक हैं, और भविष्य की आशा भी ! बच्चे जिज्ञासू होते हैं, और सीखना चाहते हैं| उनके हाथ मे आए हुए खिलौने , सामानो की खोलखाल , तोड़फोड़, इसी का परिणाम है|  उनकी यही जिज्ञासा उनके सीखने का आधार होती है| ऐसी जिज्ञासा के चलते उनकी खोज-बीन शुरू होती है जिनका सीखने मे महत्त्वपूर्ण  स्थान है|

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  1. विचारणीय आलेख. आज के बच्चों पर बोझ देखकर यह चिन्तन स्वभाविक है.

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  2. खिलता बचपन, खुलता बचपन, खुल कर और निखरता बचपन चाहिए हमें । आपकी प्रविष्टि आज बच्चों पर यांत्रिक शिक्षा, बस्तों के बोझ, संवेदना पूर्ण शिक्षा की कमी आदि सहज चिन्ताओं से उपजी है ।

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  3. निःसंदेह यह एक श्रेष्ठ रचना है।

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  4. बहुत ही सरल तरीके से कही गई प्रभावी बात !
    सोचने को मजबूर करती हुई।
    क्या माँ बाप को अब बच्चों को टाइम मैनेजमेंट सिखाना होगा?
    लेकिन पहले खुद तो कर लें!
    बदलते समय की माँग है - जीवन का ढर्रा बदलना होगा। सतत सार्थक सक्रियता।

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  5. जीवन की आपाधापी में बचपन कहीं खो गया , कहीं यह इतिहास की वस्तु न हो जाये

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  6. आज से नौ साल पहले हाईस्कूल की परीक्षा के बाद मैं अपनी आँखें दिखाने डॉक्टर के पास गया था तो उसने एक बड़ा ही साधारण सा सवाल किया था 'पढ़ने के लिए दिन की रौशनी है... पूरे १२ घंटे हैं. फिर रात को क्यों पढ़ते हो?' आज वो बात याद आ गयी !

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  7. अब बच्चे अकेले कहां पढ़ते हैं, मां-बाप साथ में पढ़ते हैं। नर्सरी में दाख़िले के लिए भी मां-बाप को ज़बर्दस्त तैयारी करनी पड़ती है। बच्चे, बच्चे न होकर वो निवेश बन गए हैं जिनमें मां-बाप नाम के निवेशकों को भरपूर रिटर्न चाहिए।

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  8. भारत मै अब पढाई एक हॊव्वा बन चुकी है, मेने खुद देखा है तीन साल के बच्चे को भी डरा सा सहमा सा, सिर्फ़ पढाई ओर सिर्फ़ पढाई, स्कुल के बाद बच्चा होम बर्क पुरा कर ले, फ़िर थोडा आराम करे, फ़िर खुब खेले, शाम को एक आध घंटा फ़िर पढ ले, टूशन की जरुरत ही क्यो? जिस बच्चे ने पढना है वो तो खुद ही पढ लेगा, ओर अगर बडी कलास मै बच्चा खुद कहे कि उसे टुशन की जरुर्त है तो लगा दो.... लेकिन हमारे यहां (भारत मै) पढाई पढाई ओर बच्चा अपना बचपन ही खो देता है.
    आप ने बहुत सुंदर लिखा है, काश सभी आप का लेख पढे ओर अमल करे.
    धन्यवाद

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    प्रवीण त्रिवेदी जी,
    बात तो आपकी सही है पर हमारे भारतीय समाज के लिये खेल कभी भी प्राथमिकता पर नहीं रहे, कभी सुना था:-
    'पढ़ोगे लिखोगे, बनोगे नवाब
    खेलोगे कूदोगे, बनोगे खराब।'
    आज तक भी मानसिकता वही है, क्या किया जाये...

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  10. हम सब यह सोचें कि बच्चे पढने के साथ साथ खेलने के लिए भी पर्याप्त समय पाते रहें! आखिर बच्चे हमारी परंपरा के वाहक हैं, और भविष्य की आशा भी !
    सरल तरीके से कही गई प्रभावी बात !!!

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  11. इस टिप्पणी के माध्यम से, सहर्ष यह सूचना दी जा रही है कि आपके ब्लॉग को प्रिंट मीडिया में स्थान दिया गया है।

    अधिक जानकारी के लिए आप इस लिंक पर जा सकते हैं।

    बधाई।

    बी एस पाबला

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  12. बच्चों को आज सामूहिक और परंपरागत खेलों से दूर कर दिया गया है,जिससे उनमें कई तरह की प्रतिभाएं विकसित नहीं हो पातीं !

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  13. मेरे घर के ठीक सामने एक बहुत सुंदर नया पार्क बना है. जिसमें झूले, घिसलपट्टी व और भी बहुत कुछ है.जिस दिन वाह पार्क खुला बच्चे तो पगला गए थे.ऐसा लगता था जैसे वे किसी कैद से छूटे हों और क्यों नहीं वे छोटे छोटे दड़बों की कैद से छूटे थे. ब्बच्चों को बस यूँ ही दौड़ते भागते पकड़ते देखना सुखद है. खेल निरुद्देश्य भी होना चाहिए. सुबह सुबह भी कहीं कोई माँ प्राणायाम कर रही होती है तो बिटिया रस्सी कूद रही होती है. मन खुश हो जाता है. इस पार्क ने न् जाने कितने बच्चों को टी वी से दूर किया और उनका बचपन उन्हें लौटाया है.
    घुघूतीबासूती

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