कौन इन्कार कर सकता है...... कि बच्चों के समूह के साथ काम करते समय एक तरह के विशेष अनुशासन की आवश्यकता सदैव ही पड़ती है। आमतौर परअनुशासन बनाये रखने के नाम पर दण्ड, का बहुतायत से प्रयोग किया जाता है।जिसके कभी -कभी बड़े घातक परिणाम वाली घटनाओं की चर्चा समाज और मीडिया में सुनाई पड़ती रहती है । विद्यालय में इसकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अत: इन चीजों के बारे में आम शिक्षकों में स्पष्ट व साझी समझ बनाने की आवश्यकता है।
भय की स्थिति में सीखने में आनन्द एवं स्वतंत्र चिन्तन के विकास की सम्भावनाएं कम हो जाती हैं। भय का माहौल बच्चों की जिज्ञासाओं, स्वाभाविक रूझानों, सृजनशीलता व कल्पनाशीलता के विकास की सम्भावनाओं पर कुठाराघात कर उन्हें सत्ता की प्रति आज्ञाकारी बनाने के लिए प्रेरित करता है। भय के माहौल में बच्चों के स्वतंत्र व्यक्तित्व के विकास की सम्भावनायें सीमित हो जाती हैं और भय बच्चों को कुंठित करने में अधिक योगदान करता है। इसके अलावा भी भय के कई और दुष्प्रभाव खोजे जा सकते हैं। इन दुष्प्रभावो को देखते हुए बच्चों के विकास में भय एक बाधक तत्व प्रतीत होता है। आमतौर पर दण्ड को भय पैदा करने के लिए एक बहुत सशक्त तरीके के रूप में काम में लिया जाता है। अत: इसे समझना जरूरी हो जाता है।
वैसे इस बात पर भी सामूहिक चर्चा की जा सकती है कि शारीरिक व मानसिक दण्ड में से कौन सा अधिक प्रभावी होता है और क्यों? चूंकि दण्ड मूलत: भय पैदा करने का औजार है और भय के प्रभावों/दुष्प्रभावों का जिक्र पहले किया जा चुका है, अत: यहां उन्हें दोहराने की जरूरत नहीं हैं। लेकिन दण्ड की व्यवस्था में अन्तर्निहित कुछ चीजों पर यहां ध्यान देना शायद उचित होगा। समूह/कक्षा व विद्यालय में दण्ड का अधिकार मूलत: शिक्षक के पास सुरक्षित होता है।
भय-दण्ड में गहरा अन्तर्सबंध है। भय आमतौर पर किसी अनिष्ट की संभावना को सहजतापूर्वक कह सुन नहीं सकता। इसकी वजह से बच्चे की सीखने की गति भी प्रभावित होती है। जिस तरह भय के उपस्थित होने पर बड़े भी असहाय हो जाते हैं उसी तरह बच्चे भय के सम्मुख असहाय हो जाते हैं और इस समय सीखने में एक तरह से असमर्थ होजाते हैं। बिना समझे बात स्वीकार कर लेने में आमतौर पर बच्चे दबाव हटते ही शिक्षक की बातों की अवहेलना शुरू कर देते हैं।
भय की स्थिति में सीखने में आनन्द एवं स्वतंत्र चिन्तन के विकास की सम्भावनाएं कम हो जाती हैं। भय का माहौल बच्चों की जिज्ञासाओं, स्वाभाविक रूझानों, सृजनशीलता व कल्पनाशीलता के विकास की सम्भावनाओं पर कुठाराघात कर उन्हें सत्ता की प्रति आज्ञाकारी बनाने के लिए प्रेरित करता है। भय के माहौल में बच्चों के स्वतंत्र व्यक्तित्व के विकास की सम्भावनायें सीमित हो जाती हैं और भय बच्चों को कुंठित करने में अधिक योगदान करता है। इसके अलावा भी भय के कई और दुष्प्रभाव खोजे जा सकते हैं। इन दुष्प्रभावो को देखते हुए बच्चों के विकास में भय एक बाधक तत्व प्रतीत होता है। आमतौर पर दण्ड को भय पैदा करने के लिए एक बहुत सशक्त तरीके के रूप में काम में लिया जाता है। अत: इसे समझना जरूरी हो जाता है।
अपने विस्तृत अर्थों में दण्ड ऐसी शारीरिक या मानसिक यातना है जो किसी के अधिकारों का हनन या किन्हीं नियमों के उल्लघंन पर दी जाती है। दण्ड के इस अर्थ का मोटा सम्बन्ध पुलिस और न्याय व्यवस्था से जुड़ा हुआ है। परन्तु विद्यालयों के संदर्भ में भी कई बार दण्ड का प्रयोग इन्हीं अर्थों में कर लिया जाता है। विद्यालय के संदर्भ में दण्ड की आवश्यकता , नियमों का पालन करवाने, शिक्षक की बात मनवाने, समूह/कक्षा में व्यवस्था व चुप्पी बनाये रखने इत्यादि के लिए होती है। इनके लिये शारीरिक व मानसिक दण्डों का खुल कर प्रयोग किया जाता है। अत: उनके उदाहरणों की शायद यहां जरूरत नहीं है।
वैसे इस बात पर भी सामूहिक चर्चा की जा सकती है कि शारीरिक व मानसिक दण्ड में से कौन सा अधिक प्रभावी होता है और क्यों? चूंकि दण्ड मूलत: भय पैदा करने का औजार है और भय के प्रभावों/दुष्प्रभावों का जिक्र पहले किया जा चुका है, अत: यहां उन्हें दोहराने की जरूरत नहीं हैं। लेकिन दण्ड की व्यवस्था में अन्तर्निहित कुछ चीजों पर यहां ध्यान देना शायद उचित होगा। समूह/कक्षा व विद्यालय में दण्ड का अधिकार मूलत: शिक्षक के पास सुरक्षित होता है।
शारीरिक रूप से बच्चों से कहीं अधिक सक्षम शिक्षक को दण्ड का अधिकार एक शक्तिशाली व्यक्ति बना देता है, जिसमें शिक्षक आमतौर पर सही और बच्चे आमतौर पर गलत होते हैं। साधारणत: बच्चों को उसके व्यवहार/कार्यों पर प्रद्दन उठाने का अधिकार हासिल नहीं होता है । इसी तरह दण्ड, भय के माहौल में बालक की स्वतंत्रता काफी सीमित हो जाती है। वह अपनी इच्छा से बोल नहीं सकता, मदद नहीं कर सकता, अपनी जगह से हिल नहीं सकता इत्यादि। इसी बंधाई व सीमित दिनचर्चा का ही शायद यह प्रभाव पड़ता है कि साधारणत: बच्चे छुटटी की घंटी के बाद विद्यालय से ऐसे निकल भागते हैं जैसे जेल से छूटे कैदी।बच्चों के विकास के लिए उन्हें स्वतंत्रता शुरू से ही हो इसकी आवश्यकता पड़ती है तभी वे स्वनिर्णय लेने वाले व्यक्ति के रूप में विकसित हो पायेंगे। जो कि शिक्षा का हमारा एक स्वीकृत उद्देद्दय है। यहां स्वतंत्रता अपने आप में असीमित नहीं है। समूह में काम करते समय प्रत्येक की स्वतंत्रता अन्य बच्चों की स्वतंत्रता से सीमित हो जाती है। अत: यह कहा जा सकता है कि समूह/कक्षा में ऐसा माहौल हो कि बच्चे दूसरों की स्वतंत्रता का ख्याल रखते हुए स्वयं का कार्य स्वतंत्रतापूर्वक करते रहें। अर्थात यदि एक बच्चे की स्वतंत्रता की वजह से पूरे समूह या अन्य बच्चों को परेशानी हो रही हो तो उसका कोई समाधान ढूंढने की जरूरत हो सकती है जो कि बातचीत के माध्यम से किया जा सकता है।
आवश्यकता तो वाकई मनोविज्ञान को समझने की है |
ReplyDeleteकिंतु कुछ हद तक " भय बिनु होवहीं न प्रीती " का भी पालन करना पड़ता है |
धन्यवाद |
अच्छी रचना है.....बधाई।
ReplyDeleteअच्छा आलेख है।
ReplyDeleteदण्ड,भय के माहौल में बालक की स्वतंत्रता
ReplyDeleteकाफी सीमित हो जाती है.
shapratishat sahamat hun . abhaar
वाकई बालक के मनोविज्ञान को समझने की आवश्यकता है.अच्छी रचना है.....बधाई।
ReplyDeleteजिस बच्चे ने पढना है वो अपने आप ही पढेगा, ओर जिस ने नही पढना उसे कितना ही भय दिखा दो वो नही पढेगा, लेकिन दण्ड भी देना चाहिये सिर्फ़ अनुशासन सिखाने के लिये, ओर बहुत अधिक भी नही कि बच्चा डरपोक ही बन जाये,
ReplyDeleteधन्यवाद
बहुत सही लिखा आपने। आपसे सहमत हूं।
ReplyDeleteआपने एक महत्वपूर्ण विषय पर अच्छा लेख लिखा है। दंड का एक और दुश्परिणाम यह होता है कि बच्चा जल्दी ही यह सीख जाता है कि शक्तिशाली कमजोर पर हावी हो सकता है और यही शक्तिप्रयोग वह जीवन भर अपने से कमजोर पर करता रहता है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
बाल मनोविज्ञान को समझने और उसके अनुसार शिक्षा देने की बहुत जरुरत है। लेख अच्छा लगा!!
ReplyDeleteबहुत महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है आपने. बच्चों के और देश के सर्वांगीण विकास के लिए उन्हें निर्भयता का वातावरण प्रदान करना अत्यावश्यक है.
ReplyDeleteबच्चो के मनोविज्ञान को समझना बहुत जरुरी है .अच्छा विषय लिया आपने फ़िर से एक बार ..बहुत बढ़िया लेख
ReplyDeleteवाकई बालक के मनोविज्ञान को समझने की आवश्यकता है
ReplyDeleteaapka ye lekh padha , ye sach hai par kitne teachers baccho ke manovigyaan ko samjhate hai ...
ReplyDeleteaapne bahut accha likha hai .
appko bahut badhai...
vijay
pls visit my blog for new poems: http://poemsofvijay.blogspot.com/
बच्चों में भय होना चाहिये अनुशासन के लिये। पर वह दण्ड के अलावा भी बनाया जा सकता है। जहां तक सम्भव हो, स्नेह से काम लिया जाये।
ReplyDeleteआपका टेक्नोलोजी के साथ अच्छा सद्भाव है | ऐसा आम तौर पर प्राइमरी के मास्टरों के साथ नहीं होता | और यू.पी. बोर्ड के साथ तो लगभग असंभव है | वैसे बच्चों को स्कूल में मारना कार्य कानूनी रूप से भी प्रतिबंधित है | stop corporal punishment डाल कर गूगल सर्च कर लीजिये, मेरी बात और साफ़ हो जाएगी | इस विषय पर यु. एन. ओ. kI एक ट्रीटी भी है और भारत उसका सिग्नेटरी भी है | |
ReplyDeleteआपका टेक्नोलोजी के साथ अच्छा सद्भाव है | ऐसा आम तौर पर प्राइमरी के मास्टरों के साथ नहीं होता | और यू.पी. बोर्ड के साथ तो लगभग असंभव है | वैसे बच्चों को स्कूल में मारना कार्य कानूनी रूप से भी प्रतिबंधित है | stop corporal punishment डाल कर गूगल सर्च कर लीजिये, मेरी बात और साफ़ हो जाएगी | इस विषय पर यु. एन. ओ. kI एक ट्रीटी भी है और भारत उसका सिग्नेटरी भी है | |
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