कल समोसा खाने के लिए एक मित्र ने जोर डाला तो समोसा की प्लेट बनाकर जिस कागज पर दूकान वाले ने समोसे दिए थे , उस पर एक गहरी निगाह पड़ी , तो एक बढिया आलेख मिला डॉ. सुशील जोशी का लिखा हुआ । आप भी इस लेख को पढ़कर अपना तर्क लगाएं , क्योंकि मुझे तो कुछ निश्चित नही समझ में आया की खाएं की न खाएं!!!
क्योंकि यह सलाह आजकल विवाद के घेरे में है। वैसे इस सलाह की जड़ें एक जीव वैज्ञानिक धारणा में देखी जा सकती हैं। हम भोजन में विभिन्न पोषक पदार्थ लेते हैं। बाकी शरीर तो अपनी ऊर्जा का काम अलग-अलग पोषक पदार्थों से चला लेता है मगर दिमाग को सिर्फ ग्लूकोज चाहिए जो ग्लूकोज से प्राप्त होता है। इसलिए माना गया कि कार्बोहाइड्रेट दिमाग के कामकाज के लिए अनिवार्य हैं। कार्बोहाइड्रेट में मूलतः स्टार्च और शर्कराओं को शामिल किया जाता है क्योंकि सेल्लुलोज नामक कार्बोहाइड्रेट को हम पचा नहीं सकते।
दूसरा ‘मगर’ थोड़ा घुमावदार है। पहले किए गए प्रयोगों में देखा गया था कि कार्बोहाइड्रेट का सेवन करते ही खून में ग्लूकोज की मात्रा बढ़ती है। मगर बाद में पता चला कि वे प्रयोग ग्लूकोज पिलाकर ही किए गए थे। आम तौर पर कोई भी व्यक्ति इस तरह ग्लूकोज तो नहीं पीता। हम आम तौर पर कार्बोहाइड्रेट का सेवन स्टार्च यानी मंड के रूप में करते हैं। इसका पाचन होकर ग्लूकोज बनने और उस ग्लूकोज के खून में पहुंचने में समय लगता है। इसलिए भोजन के तुरंत बाद खून में ग्लूकोज की बाढ़ नहीं आती। इसी से जुड़ी दूसरी बात यह है कि जैसे ही खून में ग्लूकोज की मात्रा बढ़ती है, वैसे ही हमारे शरीर की एक अन्य ग्रंथि - अग्न्याशय यानी पन्क्रियास - इन्सुलिन का निर्माण शुरू कर देती है। इन्सुलिन का एक उपयोग तो यह है कि इसकी उपस्थिति में कोशिकाएं ग्लूकोज को सोख पाती हैं। मगर इन्सुलिन की एक भूमिका यह भी है कि वह जिगर यानी लीवर को उकसाता है कि अतिरिक्त ग्लूकोज को एक अन्य पदार्थ ग्लायकोजन में बदलकर संग्रहित कर ले। जब खून में ग्लूकोज की मात्रा कम होती है t title="Click to correct" class="transl_class" id="515">तो लीवर इस ग्याकोजन को ग्लूकोज में बदलकर खून में छोड़ देता है। खून में ग्लूकोज की मात्रा पर नियंत्रण रखा जाता है और ऐसा नहीं है कि कार्बोहाइड्रेट खाते ही ग्लूकोज की बाढ़ आ जाए या थोड़ी देर न खाने पर अकाल पड़ जाए।
शरीर में ग्लूकोज नियंत्रण का एक तरीका और भी है जो खासकर दिमाग में काम करता है। दिमाग में कुछ कोशिकाएं होती हैं जिन्हें एस्ट्रोसाइट कहते हैं। जब दिमाग में पहुंचने वाले खून में पर्याप्त ग्लूकोज होता है तो एस्ट्रोसाइट उसे ग्लायकोजन में बदलकर सहेज लेती हैं और समय आने पर तंत्रिका कोशिकाएं इसे प्राप्त कर सकती हैं। ऐसा बहुत कम होता है कि दिमाग में इतनी गतिविधि हो कि एस्ट्रोसाइट भी खाली हो जाएं और ग्लूकोज खाकर उसकी पूर्ति करनी पड़े।
यह एक मिथक ही है कि चूंकि दिमाग ग्लूकोज पर जिंदा है, इसलिए ग्लूकोज खाने से वह बहुत बढ़िया काम करेगा। चूहों पर किए गए कुछ प्रयोगों से पता चला था कि जब उन्हें शक्कर की खुराक देकर कुछ अक्ल के काम करने को दिए जाते हैं तो उनका प्रदर्शन बेहतर होता है। फिर इसी प्रयोग को थोड़ा बदले हुए रूप में किया गया। ग्लूकोज का एक परिवर्तित रूप होता है मिथाइल ग्लूकोज , वैसे तो कोशिकाएं इसका अवशोषण ठीक ग्लूकोज की तरह करती हैं मगर इससे उन्हें कोई ऊर्जा नहीं मिलती। लिहाजा वे इसे वापिस उगल देती हैं। यानी मिथाइल ग्लूकोज एक बेकार अणु है। मगर प्रयोगों में देखा गया कि यह उतना बेकार भी नहीं है। मिथाइल ग्लूकोज की खुराक के बाद भी चूहों का प्रदर्शन बेहतर रहा। तो लगता है कि इस अणु के कोशिका में प्रवेश करने की क्रिया मात्र से दिमाग के कामकाज में तेजी आती है।
कहने का मतलब यह है कि दिमाग को बहलाया भी जा सकता है। कुल मिलाकर लगता है कि हमारे शरीर में ग्लूकोज पर बढ़िया नियंत्रण रखा जाता है। तो इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि आप नाश्ता करें या न करें? शायद फर्क पड़ता है। पिछले कई वर्षों में किए गए अनुसंधान की समीक्षा के बाद ले गिब्सन इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि हल्का-फुल्का नाश्ता खाने से दिमाग में याददाश्त की गतिविधि तेज होती है। उनका मत है कि करीब 100 कैलोरी यानी एक केला ठीक है। मगर साथ ही वे यह चेतावनी भी देते हैं कि कुल कार्बोहाइड्रेट की बनिस्बत ज्यादा महत्व इस बात का है कि उसका ग्लायसेमिक सूचकांक कितना है।
ग्लायसेमिक सूचकांक से पता चलता है कि उस कार्बोहाइड्रेट को पचने में कितना समय लगता है। कम सूचकांक वाले भोजन देर से पचते हैं जबकि उच्च सूचकांक वाले भोजन एक झटके में अपनी ऊर्जा दे डालते हैं। गिब्सन का मत है कि दिमागी काम से पहले कम ग्लायसेमिक सूचकांक वाला भोजन ठीक रहेगा। प्रयोगों में देखा गया है कि यकायक ग्लूकोज प्रदान करने वाले भोजन देने पर चूहों का प्रदर्शन उतना अच्छा नहीं रहा। आखिर क्यों? यहां शरीर के एक और नियंत्रण तंत्र पर गौर करना होगा। यह तंत्र एक हारमोन कॉर्टिसॉल पर निर्भर है। यह हारमोन तनाव की प्रतिक्रिया स्वरूप पैदा होता है। यह शरीर को लड़ने या भागने के लिए तैयार करता है - दोनों में ही ऊर्जा की जरूरत होती है। ऐसा लगता है कि थोड़ा-सा कॉर्टिसॉल तो दिमाग के प्रदर्शन को बेहतर बनाता है मगर ज्यादा हो, तो तनाव पैदा करता है जो दिमागी काम के लिए ठीक नहीं है।
प्रयोगों से पता चला है कि उच्च ग्लायसेमिक सूचकांक वाले कार्बोहाइड्रेट के सेवन से शरीर में कॉर्टिसॉल की मात्रा बढ़ती यहां एक संतुलन जरूरी हो जाता है - दिमाग के काम के लिए ग्लूकोज और इस ग्लूकोज के कारण कॉर्टिसॉल की बढ़ती मात्रा के बीच। तो यदि आप तनाव में नहीं हैं तो ग्लूकोज आपको दिमागी काम में मदद करेगा मगर यदि आप पहले से तनाव में हैं तो यही ग्लूकोज तनाव को बढ़ा भी सकता है। और ये सारे प्रयोग व निष्कर्ष शाब्दिक याददाश्त के परीक्षणों पर आधारित हैं। इस तरह के कामों में दिमाग के जिस हिस्से - हिप्पोकैम्पस - का उपयोग होता है उसके कामकाज पर कॉर्टिसॉल का प्रतिकूल असर होता है। मगर यदि आप शाब्दिक कामकाज की बजाय ऐसा कोई काम करने जा रहे हैं जिसमें तेज प्रतिक्रिया की जरूरत है तो बात अलग हो जाती है। जैसे यदि आप टेनिस जैसा कोई खेल खेलने जा रहे हैं। इस तरह के कामकाज से सम्बंधित प्रयोगों में देखा गया कि सबसे अच्छा प्रदर्शन तो उन लोगों का रहा जो भूखे पेट आए थे। इसके बाद नंबर था उच्च ग्लायसेमिक सूचकांक कार्बोहाइड्रेट वालों का और सबसे फिसड्डी थे कम ग्लायसेमिक सूचकांक वाले। तो यदि तेज प्रतिक्रिया का खेल हो, तो थोड़ा भूखे रहना ही बेहतर होगा। ऐसा क्यों?
फिर एक बार संतुलन की बात आ जाती है। और यह संतुलन तभी हो सकता है जब आप न बहुत ज्यादा खाएं, न बहुत कम। ग्लायसेमिक सूचकांक का भी ध्यान रखें आम तौर पर कम सूचकांक वाले भोजन बेहतर माने जाते हैं। मगर चौकन्नापनजरूरी हो, तो शायद ज्यादा सूचकांक वाले भोजन अच्छे साबित हो सकते हैं।
कुल मिलाकर निष्कर्ष यही है कि जो कुछ करना है अपने हिसाब से करें। ऊपर यह गई बातें यह समझने में मददगार हो सकती हैं कि आप जैसा करते हैं वैसा ही क्यों करते हैं या शायद आपके शरीर की प्रकृति कैसी है। यहां प्रस्तुत अधिकांश जानकारी साइंटिस्ट पत्रिका में प्रकाशित लेख से प्रेरित है , अच्छी लगी तो आपको भी बता दीं। बाकी आप अपनी जानें।
यह काफी रोचक पर गंभीर सवाल है कि यदि आप परीक्षा देने जा रहे हैं तो भरपेट खाकर जाना ठीक होगा या खाली पेट। खासकर यह सवाल माता-पिता के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। मगर यहां जो जानकारी दी जा रही है, उसके आधार पर कोई निर्णय न करें क्योंकि इसमें ढेर सारे अगर-मगर लगे हैं। इसलिए लेख को पढ़ते हुए अपने तर्क बुद्धि को ही सबसे ऊपर रखें।इस चेतावनी के बाद सवाल पर लौटते हैं। कई लोग मानते हैं कि नाश्ता दिन का सबसे महत्वपूर्ण भोजन होता है और बेहतर यही होगा कि सुबह अच्छे से नाश्ता कर लिया जाए। मगर इस बारे में निर्णय करने से पहले कुछ बातों पर गौर करें
क्योंकि यह सलाह आजकल विवाद के घेरे में है। वैसे इस सलाह की जड़ें एक जीव वैज्ञानिक धारणा में देखी जा सकती हैं। हम भोजन में विभिन्न पोषक पदार्थ लेते हैं। बाकी शरीर तो अपनी ऊर्जा का काम अलग-अलग पोषक पदार्थों से चला लेता है मगर दिमाग को सिर्फ ग्लूकोज चाहिए जो ग्लूकोज से प्राप्त होता है। इसलिए माना गया कि कार्बोहाइड्रेट दिमाग के कामकाज के लिए अनिवार्य हैं। कार्बोहाइड्रेट में मूलतः स्टार्च और शर्कराओं को शामिल किया जाता है क्योंकि सेल्लुलोज नामक कार्बोहाइड्रेट को हम पचा नहीं सकते।
पहले तो यह कहा गया कि ग्लूकोज दिमाग के कामकाज के लिए जरूरी है मगर आगे चलकर बात थोड़ी बदलकर यह हो गई कि जितना अधिक ग्लूकोज मिलेगा, दिमाग उतना बढ़िया काम करेगा। याद है ‘शक्तिमान’ ग्लूकोज बिस्कुट का दीवाना है। इसी के आधार पर यह सलाह दी जाने लगी कि यदि आपको दिमागी काम करना है तो शक्कर खाएं या कम से कम कार्बोहाइड्रेट की अच्छी खुराक ले लें। इसी के साथ हम आ जाते हैं पहले अगर-मगर पर। यह सही है कि शर्करा मिलने से दिमाग में सक्रियता आती है । मगर यह भी देखा गया है कि कार्बोहाइड्रेट या शक्कर की खुराक के बाद दिमाग में जो सक्रियता पैदा होती है उसके बाद उतनी ही तेजी मंदी भी आती है।
दूसरा ‘मगर’ थोड़ा घुमावदार है। पहले किए गए प्रयोगों में देखा गया था कि कार्बोहाइड्रेट का सेवन करते ही खून में ग्लूकोज की मात्रा बढ़ती है। मगर बाद में पता चला कि वे प्रयोग ग्लूकोज पिलाकर ही किए गए थे। आम तौर पर कोई भी व्यक्ति इस तरह ग्लूकोज तो नहीं पीता। हम आम तौर पर कार्बोहाइड्रेट का सेवन स्टार्च यानी मंड के रूप में करते हैं। इसका पाचन होकर ग्लूकोज बनने और उस ग्लूकोज के खून में पहुंचने में समय लगता है। इसलिए भोजन के तुरंत बाद खून में ग्लूकोज की बाढ़ नहीं आती। इसी से जुड़ी दूसरी बात यह है कि जैसे ही खून में ग्लूकोज की मात्रा बढ़ती है, वैसे ही हमारे शरीर की एक अन्य ग्रंथि - अग्न्याशय यानी पन्क्रियास - इन्सुलिन का निर्माण शुरू कर देती है। इन्सुलिन का एक उपयोग तो यह है कि इसकी उपस्थिति में कोशिकाएं ग्लूकोज को सोख पाती हैं। मगर इन्सुलिन की एक भूमिका यह भी है कि वह जिगर यानी लीवर को उकसाता है कि अतिरिक्त ग्लूकोज को एक अन्य पदार्थ ग्लायकोजन में बदलकर संग्रहित कर ले। जब खून में ग्लूकोज की मात्रा कम होती है
शरीर में ग्लूकोज नियंत्रण का एक तरीका और भी है जो खासकर दिमाग में काम करता है। दिमाग में कुछ कोशिकाएं होती हैं जिन्हें एस्ट्रोसाइट कहते हैं। जब दिमाग में पहुंचने वाले खून में पर्याप्त ग्लूकोज होता है तो एस्ट्रोसाइट उसे ग्लायकोजन में बदलकर सहेज लेती हैं और समय आने पर तंत्रिका कोशिकाएं इसे प्राप्त कर सकती हैं। ऐसा बहुत कम होता है कि दिमाग में इतनी गतिविधि हो कि एस्ट्रोसाइट भी खाली हो जाएं और ग्लूकोज खाकर उसकी पूर्ति करनी पड़े।
यह एक मिथक ही है कि चूंकि दिमाग ग्लूकोज पर जिंदा है, इसलिए ग्लूकोज खाने से वह बहुत बढ़िया काम करेगा। चूहों पर किए गए कुछ प्रयोगों से पता चला था कि जब उन्हें शक्कर की खुराक देकर कुछ अक्ल के काम करने को दिए जाते हैं तो उनका प्रदर्शन बेहतर होता है। फिर इसी प्रयोग को थोड़ा बदले हुए रूप में किया गया। ग्लूकोज का एक परिवर्तित रूप होता है मिथाइल ग्लूकोज , वैसे तो कोशिकाएं इसका अवशोषण ठीक ग्लूकोज की तरह करती हैं मगर इससे उन्हें कोई ऊर्जा नहीं मिलती। लिहाजा वे इसे वापिस उगल देती हैं। यानी मिथाइल ग्लूकोज एक बेकार अणु है। मगर प्रयोगों में देखा गया कि यह उतना बेकार भी नहीं है। मिथाइल ग्लूकोज की खुराक के बाद भी चूहों का प्रदर्शन बेहतर रहा। तो लगता है कि इस अणु के कोशिका में प्रवेश करने की क्रिया मात्र से दिमाग के कामकाज में तेजी आती है।
कहने का मतलब यह है कि दिमाग को बहलाया भी जा सकता है। कुल मिलाकर लगता है कि हमारे शरीर में ग्लूकोज पर बढ़िया नियंत्रण रखा जाता है। तो इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि आप नाश्ता करें या न करें? शायद फर्क पड़ता है। पिछले कई वर्षों में किए गए अनुसंधान की समीक्षा के बाद ले गिब्सन इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि हल्का-फुल्का नाश्ता खाने से दिमाग में याददाश्त की गतिविधि तेज होती है। उनका मत है कि करीब 100 कैलोरी यानी एक केला ठीक है। मगर साथ ही वे यह चेतावनी भी देते हैं कि कुल कार्बोहाइड्रेट की बनिस्बत ज्यादा महत्व इस बात का है कि उसका ग्लायसेमिक सूचकांक कितना है।
ग्लायसेमिक सूचकांक से पता चलता है कि उस कार्बोहाइड्रेट को पचने में कितना समय लगता है। कम सूचकांक वाले भोजन देर से पचते हैं जबकि उच्च सूचकांक वाले भोजन एक झटके में अपनी ऊर्जा दे डालते हैं। गिब्सन का मत है कि दिमागी काम से पहले कम ग्लायसेमिक सूचकांक वाला भोजन ठीक रहेगा। प्रयोगों में देखा गया है कि यकायक ग्लूकोज प्रदान करने वाले भोजन देने पर चूहों का प्रदर्शन उतना अच्छा नहीं रहा। आखिर क्यों? यहां शरीर के एक और नियंत्रण तंत्र पर गौर करना होगा। यह तंत्र एक हारमोन कॉर्टिसॉल पर निर्भर है। यह हारमोन तनाव की प्रतिक्रिया स्वरूप पैदा होता है। यह शरीर को लड़ने या भागने के लिए तैयार करता है - दोनों में ही ऊर्जा की जरूरत होती है। ऐसा लगता है कि थोड़ा-सा कॉर्टिसॉल तो दिमाग के प्रदर्शन को बेहतर बनाता है मगर ज्यादा हो, तो तनाव पैदा करता है जो दिमागी काम के लिए ठीक नहीं है।
प्रयोगों से पता चला है कि उच्च ग्लायसेमिक सूचकांक वाले कार्बोहाइड्रेट के सेवन से शरीर में कॉर्टिसॉल की मात्रा बढ़ती यहां एक संतुलन जरूरी हो जाता है - दिमाग के काम के लिए ग्लूकोज और इस ग्लूकोज के कारण कॉर्टिसॉल की बढ़ती मात्रा के बीच। तो यदि आप तनाव में नहीं हैं तो ग्लूकोज आपको दिमागी काम में मदद करेगा मगर यदि आप पहले से तनाव में हैं तो यही ग्लूकोज तनाव को बढ़ा भी सकता है। और ये सारे प्रयोग व निष्कर्ष शाब्दिक याददाश्त के परीक्षणों पर आधारित हैं। इस तरह के कामों में दिमाग के जिस हिस्से - हिप्पोकैम्पस - का उपयोग होता है उसके कामकाज पर कॉर्टिसॉल का प्रतिकूल असर होता है। मगर यदि आप शाब्दिक कामकाज की बजाय ऐसा कोई काम करने जा रहे हैं जिसमें तेज प्रतिक्रिया की जरूरत है तो बात अलग हो जाती है। जैसे यदि आप टेनिस जैसा कोई खेल खेलने जा रहे हैं। इस तरह के कामकाज से सम्बंधित प्रयोगों में देखा गया कि सबसे अच्छा प्रदर्शन तो उन लोगों का रहा जो भूखे पेट आए थे। इसके बाद नंबर था उच्च ग्लायसेमिक सूचकांक कार्बोहाइड्रेट वालों का और सबसे फिसड्डी थे कम ग्लायसेमिक सूचकांक वाले। तो यदि तेज प्रतिक्रिया का खेल हो, तो थोड़ा भूखे रहना ही बेहतर होगा। ऐसा क्यों?
फिर एक बार संतुलन की बात आ जाती है। और यह संतुलन तभी हो सकता है जब आप न बहुत ज्यादा खाएं, न बहुत कम। ग्लायसेमिक सूचकांक का भी ध्यान रखें आम तौर पर कम सूचकांक वाले भोजन बेहतर माने जाते हैं। मगर चौकन्नापनजरूरी हो, तो शायद ज्यादा सूचकांक वाले भोजन अच्छे साबित हो सकते हैं।
कुल मिलाकर निष्कर्ष यही है कि जो कुछ करना है अपने हिसाब से करें। ऊपर यह गई बातें यह समझने में मददगार हो सकती हैं कि आप जैसा करते हैं वैसा ही क्यों करते हैं या शायद आपके शरीर की प्रकृति कैसी है। यहां प्रस्तुत अधिकांश जानकारी साइंटिस्ट पत्रिका में प्रकाशित लेख से प्रेरित है , अच्छी लगी तो आपको भी बता दीं। बाकी आप अपनी जानें।
चाहे वह आलोचना हो या तारीफ़ या फ़िर एक समालोचना, तो फ़िर हिचक किस बात की, बस लिख डालिए यहां अपने विचार टिप्पणी के रुप मे।
ReplyDeleteप्राइमरी का मास्टर का पीछा करें
बढ़िया लगी यह जानकारी ..शुक्रिया
ReplyDeleteमुझे तो इतना पता है भूखे पेट न दिमाग काम करता है न हाँथ पैर ..बाकि लोग अपनी बात ख़ुद जाने .
ReplyDeletebahut achchhi janakari .............
ReplyDeleteaisa lagata hai ab ham bhi padhai kar rahe hain
lekh aur chitron ka sath ek sulajhaa hua prayaas
lage rahiye hamen aapase bahut kuchh seekhanaa hai
meri shubh-kamanayen aapke liye
kabhi hamare blog par bhi drishti fer liya karen
achcha lekh hai...
ReplyDeleteLekin haal hi mein yah bhi samne aaya hai ki--Normal School ho ya exam --khali pet to bilkul nahin jana chaheeye....
breakfast mein bachchon ko carbohydrate ki bajaaye ,proteins khane ko diye jayen --then ..
----they will be more active ..physically and mentally.
just to replace Prantha/bread breakfast with handful of Nuts.
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