आ मतौर पर शिक्षक कक्षा में जाकर पिछले दिन जहाँ थे, किताब के उस अंश / प्रश्नावली के आगे का काम शुरू कर देते हैं - यानि बिना तैयारी के, बिना फीडबैक / मूल्यांकन के आगे पढ़ाना शुरू हो जाता है, बिना इस बात का ख्याल किये कि बच्चे क्या चाहते हैं उस समय हम अपनी मर्जी के अनुसार जब चाहते हैं तो किसी भी कक्षा में कोई भी पाठ अनियोजित तरीके से प्रारंभ कर देते हैं । इसके लिये आवश्यक तैयारी तथा उस कार्य के पश्चात मूल्यांकन से हमारा कोई सरोकार नहीं रहता। आइए, विचार करते हैं कि इसमे किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। यह मान लें कि हमारे पास पढ़ाने के लिये एक वर्ष में 200 कार्य दिवस हैं। उसी के अनुसार सुनियोजित / सुव्यवस्थित ढंग से पढ़ायें तो सार्थक परिणाम निकलेंगे।
- क्या हम कक्षा एवं विषयवार पीरियड तय कर सकते हैं ?
- क्या बहुकक्षा (बहुश्रेणी / बहुस्तरीय) शिक्षण की स्थिति में बच्चों की भी कुछ मदद ली जा सकती है?(हालाँकियह वास्तविक धरातल में बड़ा मुश्किल कार्य है । )
- क्या बच्चों की अनियमित उपस्थिति को ध्यान में रखकर दोबारा अभ्यास के अवसर दे सकते हैं ?
- क्या विद्यालय की नियमित दिनचर्या के बोझ को बच्चों की भागीदारी से कम कर सकते हैं?
मेरे घर मे भी एक शिक्षक है महाविद्यालय की , मुझे तो लगता अपने समय मे इतना नहीं पढ़ी जितना अब पढ़ रही है पढाने के लिए
ReplyDeleteअच्छी जानकरी के लिए धन्यवाद.कहां कोई इतनी दूर तलक सोचता है और जब सरकारी स्कूल हो तो फिर बात ही क्या?????
ReplyDeleteआपकी बात व्यावहारिक है और इस पर गम्भीरता से विचार किया जाना चाहिए । किन्तु हमारे यहां तो शिक्षा पर निर्णय लेने वाले लोग वे होते हैं जो 'शिक्षक' को राजस्व विभाग का कर्मचारी बनाने पर आमादा हैं ।
ReplyDeleteभारत में स्कूल-पाठ्यक्रम आदि का ढाँचा अलग है इसलिये शायद मेरी टिप्पणी का ख़ास मतलब न हो। पर जिन बातों की ओर आपने ध्यान दिलाया है, उन सब को तो हमें ध्यान में रखना ही चाहिये। बच्चों को परखने से ज़्यादा ज़रूरी है कि ख़ुद को परखें- हम इसे यहाँ self-evaluation/self-assessment कह्ते हैं और हर बच्चे का anecdotal record ( हिन्दी मॆं क्या कहेंगे पता नहीं) रखते हैं जिस से कि बच्चे की सीखने/progress का अनुमान होता रहे हमें। मेरे ब्लाग पर education and children label पर search करने से आपको कुछ लेख मिल जायेंगे, जो शायद कुछ काम आ सकें।
ReplyDeleteमेरी अपनी सोच है कि हमारे स्कूलों के अध्यापक इतने लाचार नहीं हैं, जितना प्रोजेक्शन है। जो भी हालत है सरकारी स्कूलों की, अगर अध्यापक अपनी कोशिश करे तो कुछ बेहतर तो हो ही सकता है।
ReplyDeleteऔर आपके प्रश्न वाजिब हैं। अध्यापक को इनसे दो-चार होना ही चाहिये।
परेशानी यही है कि छात्र-शिक्षक अनुपात गड़बड़ है . मैं भी देख चुका हूँ - मेरे घर के ठीक बगल वाला प्राइमरी स्कूल केवल एक शिक्षामित्र और एक प्रधानाध्यापक के बूते चल रहा है जबकि यह मेरे विकास-खंड के बड़े स्कूलों में एक है. ७०० छात्रों को एक शिक्षामित्र पढाती है, प्रधानाध्यापक कागजी कामों और मीटिंगों में ही दिन गँवा देते हैं. फ़िर
ReplyDelete* कैसे तय होंगे विषयवार-कक्षावार पीरियड ?
*एक बार ही के अभ्यास नहीं करवाया जा सकेगा, दुबारा कैसे देंगे अभ्यास के अवसर ?
*दिनचर्या दुर्दिनचर्या में बदल जाती है, बच्चे क्या कम कर पायेंगे उसे ?
एक अच्छे विचार से लिखी एक अच्छी पोस्ट. धन्यवाद.
Himanshu