गणित को लेकर कुछ अजीबोगरीब धारणाएं भी प्रचलित हैं, जैसे – गणित एक ठोस विषय है , गणित बाकी विषयों से ज्यादा कठिन है, गणित गंभीर विषय है, यह रूचिकर हो ही नहीं सकता, गणित वाले मास्टर साहब खास तरह के आदमी होते हैं – वे हँसते , मुस्कराते नहीं हैं लड़कियाँ गणित में कमजोर होती हैं आदि आदि।
गणित और लड़कियों को लेकर तो अन्धविश्वास इतना ज्यादा रहा है कि कुछ समय पहले तक उन्हें गणित के बदले गृहविज्ञान लेना पड़ता था। दरअसल ये मान्यताएं गणित सीखने–सिखाने के नीरस तरीकों से पैदा हुई हैं। लड़कियों को यूँ ही गणित में कमजोर समझने की धारणा समाज में उनकी कमजोर स्थिति के कारण उपजी है। पर इन धारणाओं का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, और ये गलत हैं। स्कूल/कक्षा में इन धारणाओं को मानने व चलाने से नुकसान ही होगा। गणित को ‘ठोस’ या ‘श्रेष्ठ’ घोषित करने पर बच्चे बाकी विषयों की उपेक्षा करने लगेंगे। इसी प्रकार लड़कियों को गणित में कमजोर बताने से उनमें हीन भावना घर कर जायेगी।
स्कूलों में गणित को एक डरावना विषय भी माना जाता है। इसके कई कारण हो सकते हैं। संभव है शिक्षक को गणित की अवधारणाएं स्पष्ट ही न हों। ज्यादातर अध्यापक स्कूलों में शिक्षक गणित पढाने से बचतें हैं , खासकर प्राथमिक विद्यालयों में , जंहा एक अध्यापक सभी विषयों में पढाने को समर्थ बताया जाता है । संभव है कक्षा में ठोस वस्तुओं का प्रयोग न होने से बच्चे गणित की अमूर्तता से डर जाते हों। शिक्षक का व्यवहार तथा रूचिकर ढंग से बच्चों के दैनिक जीवन से जोड़कर न पढ़ाना भी इसका कारण हो सकता है। शिक्षक बच्चों की गलतियों को नकारात्मक नजरिये से देखें तो भी अपराध बोध पैदा हो सकता है और वे गणित से डर सकते हैं। गणित के प्रति भय या रूचि जगाना काफी हद तक अध्यापक की सिखाने की तकनीक पर निर्भर है।
स्कूल आने तक बच्चों के पास गणित के कई अनुभव इकट्ठे हो जाते हैं। वे रसोई की रोटियाँ गिन सकते हैं। ‘अक्कड़–बक्कड़’ खेलते हुए अपने गोइयाँ (साथियों) को गिन सकते हैं। उनके पास ठेलों से गुड़ व मूँगफली खरीदने या दुकान से टॉफी, या गुड़कट्टी खरीदने के अनुभव होते हैं। उन्हें कम–ज्यादा, हल्का–भारी, दूर–पास का भी कुछ ज्ञान होता है। स्कूल में कक्षा से अलग भी उनकी अपने ढंग से गणित सीखने की क्रिया जारी रहती है। घडि़याँ देखना वे भले ही न जानते हों लेकिन समय के संकेत वे पहचानते हैं। पहाड़ की चोटी पर बसे गाँव तक आ गई द्दूप की रेखा देख कर या चार बजे के आसपास शुरू होने वाली चक्की की ‘पुक–पुक’ आवाज सुनकर वे छुट्टी के समय का अनुमान लगा लेते हैं और स्कूल से भाग छूटते हैं। कुछ बच्चे बसों या ट्रकों के नम्बर याद रखते हैं और दूर से ही उन्हें पहचान लेते हैं। क्या हम उनकी इन घडि़यों की आवाजें सुन पाते हैं? या किसी भी प्रकार के उनके पूर्वज्ञान
का सीखने–सिखाने में इस्तेमाल करते हैं?
(जारी )
गणित और लड़कियों को लेकर तो अन्धविश्वास इतना ज्यादा रहा है कि कुछ समय पहले तक उन्हें गणित के बदले गृहविज्ञान लेना पड़ता था। दरअसल ये मान्यताएं गणित सीखने–सिखाने के नीरस तरीकों से पैदा हुई हैं। लड़कियों को यूँ ही गणित में कमजोर समझने की धारणा समाज में उनकी कमजोर स्थिति के कारण उपजी है। पर इन धारणाओं का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, और ये गलत हैं। स्कूल/कक्षा में इन धारणाओं को मानने व चलाने से नुकसान ही होगा। गणित को ‘ठोस’ या ‘श्रेष्ठ’ घोषित करने पर बच्चे बाकी विषयों की उपेक्षा करने लगेंगे। इसी प्रकार लड़कियों को गणित में कमजोर बताने से उनमें हीन भावना घर कर जायेगी।
स्कूलों में गणित को एक डरावना विषय भी माना जाता है। इसके कई कारण हो सकते हैं। संभव है शिक्षक को गणित की अवधारणाएं स्पष्ट ही न हों। ज्यादातर अध्यापक स्कूलों में शिक्षक गणित पढाने से बचतें हैं , खासकर प्राथमिक विद्यालयों में , जंहा एक अध्यापक सभी विषयों में पढाने को समर्थ बताया जाता है । संभव है कक्षा में ठोस वस्तुओं का प्रयोग न होने से बच्चे गणित की अमूर्तता से डर जाते हों। शिक्षक का व्यवहार तथा रूचिकर ढंग से बच्चों के दैनिक जीवन से जोड़कर न पढ़ाना भी इसका कारण हो सकता है। शिक्षक बच्चों की गलतियों को नकारात्मक नजरिये से देखें तो भी अपराध बोध पैदा हो सकता है और वे गणित से डर सकते हैं। गणित के प्रति भय या रूचि जगाना काफी हद तक अध्यापक की सिखाने की तकनीक पर निर्भर है।
स्कूल आने तक बच्चों के पास गणित के कई अनुभव इकट्ठे हो जाते हैं। वे रसोई की रोटियाँ गिन सकते हैं। ‘अक्कड़–बक्कड़’ खेलते हुए अपने गोइयाँ (साथियों) को गिन सकते हैं। उनके पास ठेलों से गुड़ व मूँगफली खरीदने या दुकान से टॉफी, या गुड़कट्टी खरीदने के अनुभव होते हैं। उन्हें कम–ज्यादा, हल्का–भारी, दूर–पास का भी कुछ ज्ञान होता है। स्कूल में कक्षा से अलग भी उनकी अपने ढंग से गणित सीखने की क्रिया जारी रहती है। घडि़याँ देखना वे भले ही न जानते हों लेकिन समय के संकेत वे पहचानते हैं। पहाड़ की चोटी पर बसे गाँव तक आ गई द्दूप की रेखा देख कर या चार बजे के आसपास शुरू होने वाली चक्की की ‘पुक–पुक’ आवाज सुनकर वे छुट्टी के समय का अनुमान लगा लेते हैं और स्कूल से भाग छूटते हैं। कुछ बच्चे बसों या ट्रकों के नम्बर याद रखते हैं और दूर से ही उन्हें पहचान लेते हैं। क्या हम उनकी इन घडि़यों की आवाजें सुन पाते हैं? या किसी भी प्रकार के उनके पूर्वज्ञान
का सीखने–सिखाने में इस्तेमाल करते हैं?
(जारी )
गणित जितना रुचिकर विषय कोई नहीं. और इस से पीछा कही नही छूटता।
ReplyDeleteganit ke sambandh me bahut badhiya vichaar hai mai apke vicharo se sahamat hun.
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