"महानता और निंदा के झूले पर लटका विवेक"
हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम किसी को सहज इंसान की तरह देख ही नहीं पाते। या तो उसे श्रद्धा की ऊँचाई पर बैठा देंगे, या फिर उसे उपेक्षा की गहराई में धकेल देंगे। संतुलन और सामान्यता हमारे स्वभाव के शब्दकोश में जैसे कभी जोड़े ही नहीं गए।
अगर कोई दो वाक्य सही उच्चारण में कह दे, तो तुरंत उसे बुद्धिमत्ता का प्रतिनिधि बना देंगे। और वही व्यक्ति यदि एक सामान्य भूल कर बैठे, तो अगले पल उसे बुद्धिहीन करार देने में भी तनिक देर नहीं करेंगे। हम या तो पलकों पर बैठाते हैं, या फिर पैरों तले रौंदते हैं — बीच का रास्ता हमारी समझ से बाहर है। बीच की कोई संभावना हमारे मानसिक रेडार पर आती ही नहीं।
अगर कोई दो शब्द ठीक से बोल ले, तो तुरंत उसे "ज्ञान का महासागर" घोषित कर देंगे। अगले दिन वही व्यक्ति गलती से कोई सामान्य सी बात कह दे, तो उसे "समाज का कलंक" करार देने में भी ज़रा नहीं हिचकेंगे। हम अपनी श्रद्धा और नफ़रत — दोनों में समान रूप से उदार हैं, बस समझदारी में कंजूस हैं।
असल में विद्वता को पहचानने के लिए धैर्य चाहिए, विनम्रता चाहिए, यह स्वीकार करने की क्षमता चाहिए कि हर प्रतिभा को आकाश बनाना भी ज़रूरी नहीं और धूल में मिलाना भी नहीं। पर हम तो या तो जयकारे लगाते हैं या फिर हाय-हाय करते हैं। विवेक, सम्यक दृष्टि और सूक्ष्म अवलोकन जैसी चीजें हमारे लिए वैसी ही दुर्लभ हैं जैसे बिना मिलावट का शहद।
हमें आदत है अतिरेक की। कुछ खास दिखा तो उसकी मूर्ति बना देंगे, और थोड़ा असहमति दिखी तो उसे घेरकर जलेबी बना देंगे। खुद ठहरकर, परखकर किसी के ज्ञान, अनुभव या सोच की वास्तविक गहराई समझने का धीरज हमारे पास नहीं है। दरअसल, हमारी आँखें देखने से ज़्यादा फैसला सुनाने के लिए बनी हैं और जब आँखें ही न्यायधीश बन बैठें, तो सत्य, सहजता और सच्ची विद्वता कहाँ टिकेगी?
इसलिए हमारी दुनिया में या तो लोग महानता की माला पहनते हैं या फिर उपहास का बोझ। साधारण ईमानदारी, सधी हुई विद्वता और नपे-तुले विवेक का स्थान यहाँ अभी भी खाली पड़ा है। हकीकत यह है कि हर व्यक्ति थोड़ा ज्ञानवान है, थोड़ा भूलों से भरा है। कोई पूर्ण प्रकाश नहीं, कोई संपूर्ण अंधकार नहीं। लेकिन हमारी दृष्टि इतनी अधीर है कि हम धूसर रंगों को देख ही नहीं पाते। या तो सफेद चाहिए या फिर काला।
जो सचमुच ज्ञानी हैं, वे सब जानकर भी मुस्कुरा देते हैं। उन्हें पता है — यहाँ अगर प्रशंसा मिली तो जल्दी ही निंदा भी आएगी। यहाँ लोग चरम के सौदागर हैं — या तो आदर्श गढ़ेंगे या फिर चरित्र हनन की होड़ लगाएंगे।
बीच की ज़मीन पर खड़े होने का साहस किसमें है?
हमारे सामाजिक नक्शे में वह रास्ता कभी खींचा ही नहीं गया। हम इंसान को इंसान की तरह देखने की कला खो चुके हैं।
1.
या तो सिंहासन बाँधिए, या फिर करिए घात।
बीच खड़े को कौन दे, यहाँ सम्मान की बात?
2.
जो बोले सीधी बात को, उसको माने कौन?
या तो उसका ताज बने, या बन जाएँ मौन।
3.
समझ नहीं आती हमें, साधारण की चाल।
या तो दीपक पूजिए, या फिर फोड़िए भाल।
4.
उत्सव माँगे भीड़ को, सोच माँगे धैर्य।
हम उत्सव में डूब रहे, छोड़ विवेक का फेर।
5.
साधक दिखता है अगर, तोड़ो उसकी मूर।
या फिर उसको देव कहो, दोनों में भरपूर।
✍️ प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर
परिचय
बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।
शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।