जब नियमों ने छीन लिया शिक्षक का शोक मनाने का अधिकार

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पिता के निधन के बाद एक शिक्षक को अवकाश न मिलना क्या प्रशासनिक मजबूरी है या अमानवीयता? क्या शिक्षक केवल आदेशों के पालन के लिए हैं, उनके अपने दुख-दर्द का कोई मोल नहीं? अगर एक पिता की अंतिम विदाई देने के लिए भी शिक्षक को झूठ का सहारा लेना पड़े, तो क्या यह व्यवस्था की निष्ठुरता नहीं?

जब नियमों ने छीन लिया शिक्षक का शोक मनाने का अधिकार


"जब संवेदनाओं पर नियमों की तलवार चलती है, तब मानवीयता घायल हो जाती है। पिता के कंधे पर हाथ रखकर चलते-चलते अचानक कंधों पर पिता को उठाने का समय आ जाए, तो संवेदनाएँ मौन हो जाती हैं।"


बेसिक शिक्षकों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। न केवल शैक्षिक और प्रशासनिक दबाव बल्कि निजी जीवन की अनगिनत चुनौतियाँ भी उनके सामने खड़ी रहती हैं। सरकारी सेवा में अवकाश लेना एक कठिन पहेली बन चुका है, विशेष रूप से तब जब जीवन में कोई आपदा आ खड़ी हो। महराजगंज जिले में घटित यह घटना—जहाँ एक शिक्षक अपने पिता की मृत्यु के बाद तीर और लोटा लेकर प्रशिक्षण में पहुँचा—महज़ एक खबर नहीं, बल्कि एक सख्त प्रशासनिक व्यवस्था के अमानवीय चेहरे को दर्शाने वाला एक उदाहरण है।  


शिक्षक रामजी विश्वकर्मा के पिता का देहांत हुआ। भारतीय समाज में पुत्र के लिए यह समय धार्मिक और सामाजिक रीति-रिवाजों का पालन करने का होता है। परंतु सरकारी सेवा के नियमों ने उनके लिए यह अवसर भी कठिन बना दिया। पिता के निधन के बाद जब समाज और परंपराएँ उनसे एक बेटे का धर्म निभाने की अपेक्षा कर रही थीं, तब सरकारी नियमों ने उन्हें ‘ड्यूटी फर्स्ट’ का आदेश सुना दिया। परिणामस्वरूप, वह लोटा और तीर लेकर ट्रेनिंग में उपस्थित हुए, क्योंकि नियमों ने उन्हें यही विवशता दी थी।  उनके पास सभी प्रकार की छुट्टियाँ समाप्त हो चुकी थीं, क्रिटिकल लीव की सीमा पार हो चुकी थी और मेडिकल लीव मिलना असंभव था क्योंकि वे स्वस्थ थे। क्या एक शिक्षक को अपने पिता की मृत्यु के बाद भी केवल इसलिए प्रशिक्षण में शामिल होने के लिए विवश किया जाना उचित है क्योंकि नियम पुस्तिका में संवेदना के लिए कोई स्थान नहीं? 

यह कोई नई बात नहीं कि शिक्षकों को ऐसी परिस्थितियों में मजबूरन बीमार होने का अक्सर झूठ बोलकर अवकाश लेना पड़ता है। यदि कोई शिक्षक सत्य कहता है, तो नियमों की तलवार उस पर गिरती है, और यदि वह झूठ का सहारा लेता है, तो नैतिक द्वंद्व का सामना करता है। इससे पहले भी सैकड़ों शिक्षक माता-पिता के निधन पर छुट्टी के लिए संघर्ष करते देखे गए हैं। अधिकतर शिक्षक विवश होकर झूठे मेडिकल प्रमाण पत्र प्रस्तुत करते हैं, क्योंकि उनके दुख को नियमों की किताब में ‘मान्य कारण’ नहीं माना जाता। क्या यह व्यवस्था शिक्षकों को झूठ बोलने के लिए मजबूर नहीं कर रही? इस स्थिति को देखते हुए क्या यह आवश्यक नहीं कि बेसिक शिक्षकों के लिए एक संवेदनशील अवकाश नीति बनाई जाए, जहाँ पारिवारिक आपदाओं के समय बिना जटिल प्रक्रियाओं के अवकाश स्वीकृत किया जा सके?  

सरकार शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के लिए तमाम योजनाएँ चलाती है, उन्हें तकनीकी रूप से दक्ष बनाने के प्रयास किए जाते हैं, लेकिन प्रशासनिक व्यवस्थाओं में भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं दिखता। क्या किसी शिक्षक को अपने पिता के अंतिम संस्कार के दौरान भी ट्रेनिंग या उपस्थिति के लिए मजबूर करना सही कहा जा सकता है? एक सरल-सी व्यवस्था बनाई जा सकती है, जिसमें शिक्षक को पारिवारिक संकट के दौरान बिना किसी तकनीकी अड़चन के जरूरी अवकाश मिल सके।  


यह कैसी व्यवस्था है, जहाँ कर्मचारी को यह तय करने का अधिकार भी नहीं कि वह अपने पिता की मृत्यु पर शोक मनाए या नहीं?

जरूरत है कि बेसिक शिक्षकों के लिए एक आपातकालीन अवकाश श्रेणी होनी चाहिए, जिसमें पारिवारिक आपदा की स्थिति में बिना औपचारिक बाधाओं के अवकाश मिल सके।  

शिक्षा विभाग को यह समझना चाहिए कि शिक्षक भी एक आम इंसान हैं, उनकी भी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ होती हैं। अतः कठोर नियमों में मानवीयता जोड़ने की आवश्यकता है।  

वर्तमान में क्रिटिकल लीव केवल 14 दिन तक सीमित है। इसे आवश्यकता अनुसार लचीला बनाया जाए ताकि शिक्षक अपनी जिम्मेदारियों को निभा सकें।  

जब शिक्षकों को झूठे मेडिकल सर्टिफिकेट के सहारे छुट्टी लेनी पड़ती है, तो यह एक प्रशासनिक विफलता को दर्शाता है। ऐसी व्यवस्था बनाई जानी चाहिए कि शिक्षक सच बोलकर भी सम्मानपूर्वक अवकाश प्राप्त कर सकें।  


शिक्षक रामजी विश्वकर्मा का मामला केवल एक उदाहरण नहीं, बल्कि एक गहरी समस्या का संकेत है। सरकारी सेवा में शिक्षक आज भी एक मशीन की तरह काम करने के लिए विवश है, जहाँ मानवीय संवेदनाओं की जगह ठोस नियमों ने ले ली है। अगर इस देश में एक शिक्षक को अपने पिता के अंतिम संस्कार के लिए भी संघर्ष करना पड़े, तो यह न केवल शिक्षा व्यवस्था की हार है, बल्कि उस समाज की भी हार है, जो गुरु को भगवान के समकक्ष रखता है।  यदि शिक्षा व्यवस्था को मजबूत करना है, तो सबसे पहले शिक्षकों की मूलभूत आवश्यकताओं और उनके सम्मान का ध्यान रखना होगा। 

✍️   प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर


परिचय

बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।

शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।
 

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