किशोरावस्था और पाठ्यक्रम को लेकर अज्ञानता के खिलाफ संघर्ष! शिक्षक की विवशता या समाज की विडंबना?

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जब शिक्षक अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए विज्ञान के सत्य को पढ़ाए और समाज उसे अश्लीलता करार देकर हमला कर दे, तो यह सिर्फ एक शिक्षक का नहीं, पूरे शिक्षा तंत्र का अपमान है। क्या अज्ञान और संकीर्ण सोच की दीवारें इतनी ऊँची हो गई हैं कि सत्य और विज्ञान के प्रकाश को रोका जा सके? यदि आज शिक्षकों को भयभीत कर दिया गया, तो कल की पीढ़ी अंधकार में भटकने को मजबूर होगी!


किशोरावस्था और पाठ्यक्रम को लेकर अज्ञानता के खिलाफ संघर्ष!  शिक्षक की विवशता या समाज की विडंबना?


किशोरावस्था शिक्षा को लेकर समाज में व्याप्त भ्रांतियों, शिक्षकों की विवशताओं और अधिकारियों के टालमटोल भरे रवैए ने शिक्षा व्यवस्था को कठिन मोड़ पर ला खड़ा किया है। हाल ही में बाराबंकी के एक जूनियर हाईस्कूल में घटित घटना इसका ज्वलंत उदाहरण है, जहाँ शिक्षक द्वारा पाठ्यक्रम के तहत किशोरावस्था से संबंधित विषय पढ़ाने पर ग्रामीणों ने आपत्ति जताई, स्कूल में हंगामा किया और शिक्षक पर हमला करने की कोशिश की। इस तरह की घटनाएं न केवल शिक्षकों के लिए भय का वातावरण बनाती हैं, बल्कि छात्रों के शैक्षिक विकास में भी बाधा डालती हैं।


शिक्षा का मूल उद्देश्य ज्ञान देना और समझ विकसित करना होता है, लेकिन जब वैज्ञानिक तथ्यों को अश्लीलता की संकीर्ण सोच में बांध दिया जाता है, तो यह उद्देश्य ही बाधित हो जाता है। विज्ञान विषय के शिक्षकों का मानना है कि कक्षा सात और आठ के पाठ्यक्रम में किशोरावस्था, प्रजनन और जैविक विकास से संबंधित विस्तृत जानकारी दी गई है, ताकि बच्चों को शारीरिक और मानसिक रूप से शिक्षित किया जा सके। इस प्रकार की शिक्षा उन्हें जीवन के अहम पहलुओं को समझने और स्वस्थ मानसिकता विकसित करने में सहायक होती है। लेकिन जब समाज खुद इन विषयों को कलंक की तरह देखता है, तो बच्चे भी सही जानकारी से वंचित रह जाते हैं और गलत धारणाओं के शिकार हो जाते हैं।


उक्त घटना में शिक्षक ने अपना पक्ष स्पष्ट किया कि उन्होंने केवल पाठ्यक्रम के अनुसार पढ़ाया, लेकिन ग्रामीणों के विरोध और छात्राओं की आपत्तियों के चलते उन्हें निलंबित कर दिया गया। यह दर्शाता है कि शिक्षा विभाग खुद इन मुद्दों पर स्पष्ट और दृढ़ नहीं है। ऐसे मामलों में शिक्षकों को अकेला छोड़ दिया जाता है, जबकि प्रशासन का रवैया प्रायः मामले को दबाने या तात्कालिक समाधान निकालने तक सीमित रहता है। यदि किसी शिक्षक को अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए निलंबन जैसी कार्रवाई का सामना करना पड़े, तो यह बाकी शिक्षकों के मन में भय पैदा करता है और वे ऐसे संवेदनशील लेकिन आवश्यक विषयों को पढ़ाने से कतराने लगते हैं।

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समाज में व्याप्त अज्ञानता, शिक्षा विभाग की लचर नीति और शिक्षकों की सुरक्षा के प्रति उदासीनता, ये सभी मिलकर शिक्षा की गुणवत्ता को नुकसान पहुंचाते हैं। किशोरावस्था शिक्षा का उद्देश्य बच्चों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जागरूक करना है, न कि उन्हें किसी तरह की शर्मिंदगी या असमंजस में डालना। लेकिन जब इस तरह की शिक्षाओं को सार्वजनिक रूप से कलंकित किया जाता है, तो बच्चे या तो अधूरी जानकारी के आधार पर गलतफहमियों का शिकार होते हैं या फिर पूरी तरह अनभिज्ञ रह जाते हैं। 


यह आवश्यक है कि न केवल शिक्षकों को इस विषय पर स्वतंत्रता और सुरक्षा दी जाए, बल्कि समाज को भी जागरूक किया जाए कि किशोरावस्था से संबंधित शिक्षा बच्चों के स्वस्थ भविष्य के लिए कितनी महत्वपूर्ण है। अधिकारियों को भी ऐसे मामलों में शिक्षकों का समर्थन करना चाहिए, न कि उन्हें बलि का बकरा बनाना चाहिए। यदि यही स्थिति बनी रही, तो शिक्षा अपने मूल उद्देश्य से भटक जाएगी और समाज अंधविश्वास व दकियानूसी विचारों में उलझा रहेगा।


✍️   प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर


परिचय

बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।

शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।
 

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