(पिछली पोस्ट से आगे……)
अब तक आपने पढ़ा कि अशोक और बहनजी के दृष्टिकोणों का विरोध लगातार तीखा होता जा रहा था। ................??
अब उससे आगे …….
``आखिरकार चौथी कक्षा शुरू हुई। अशोक के गाँव के कई बच्चे स्कूल आना छोड़ चुके थे। उस पर भी दबाव पड़ा, पर वह अडा रहा। वह चाहता था कि जल्दी-जल्दी स्कूल खत्म करके पैसे कमाए। बहनजी कई बार कक्षा में बता चुकी थीं कि जो बच्चे स्कूल में आगे बढ़ते रहेंगे वे खूब बड़े आदमी बनेंगे और पैसे कमाएँगे।
……….पर चौथी कक्षा की शुरूआत से ही विघ्न पड़ने लगे। `भूगोल´ नाम का एक नया विषय शुरू हुआ। अशोक को भूगोल की किताब में कुछ पल्ले नहीं पड़ा। पहले पेज पर लिखा था, हमारा जिला उबड़-खाबड़ और पथरीला है। यह कर्क रेखा से कुछ ऊपर स्थित है। .... इसकी भू-रचना पठारी प्रकार की है। कक्षा के कई बच्चे यह फर्राटे से पढ़ना सीख चुके थे। वे खड़े होकर पढ़ते, फिर कॉपी में उतारते। अशोक धीरे-धीरे पढ़ने की कोशिश करता तो बहनजी अधीर हो उठतीं। यही हालत एक और नए विषय `विज्ञान´ की घंटी में हुई।
महीने भर में बहनजी अशोक से इतना परेशान हो गई कि उन्होंने उससे कुछ भी कहना छोड़ दिया। उनकी अधीरता और नाराजगी का धागा, जिससे अशोक अभी तक बंधा था, उदासीनता में बदल गया। अशोक को लगा कि बहनजी को अब उससे कोई मतलब नहीं है। दिवाली की छुट्टी के बाद वह वापस स्कूल नहीं गया।
कुछ वर्ष बाद जिले में एक सर्वेक्षण हुआ। प्रांतीय शैक्षिक अनुसंधान परिषद् की ओर से दो सर्वेक्षक लंबे-लंबे फॉर्म लेकर आए। सर्वेक्षण का उद्देश्य यह पता लगाना था कि प्राथमिक शिक्षा में `ड्राप-आउट´ की दर इतनी ऊँची क्यों है? सर्वेक्षकों ने कईं गाँव चुने और वहाँ जाकर माता-पिताओं के इंटरव्यु लिए। इस तरह स्कूल छोड़ने वाले सैकड़ों बच्चों के आंकड़ें उनके शैक्षिक अनुसंधान की पकड़ में आ गए।
शिक्षा का कोई सर्वेक्षण हो रहा है, यह मुझे मालूम था। जब मुझे सर्वेक्षण का ठीक-ठीक उद्देश्य मालूम हुआ तो मैं आलस त्यागकर, अपना कौतूहल लिए सर्वेक्षकों से मिलने जा पहुँचा। उनका काम पूरा हो चुका था और वे जाने की जल्दी में थे। मैंने आग्रह किया कि वे मुझे अशोक की `डेटा-शीट´ दिखा दें। मैं यह जानने को बेहद उत्सुक था कि देश के आंकड़ो में अशोक का `केस´ किस तरह प्रस्तुत होगा।
सैकड़ों बच्चों के पिताओं की `डेटा-शीटों´ में से एक को ढूंढ निकालने में सर्वेक्षक-बंधु आनाकानी कर रहे थे। मैंने बातचीत के दौरान अपनी हैसियत और डिग्री का जिक्र किया तो वे तैयार हो गए। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते जब अशोक के पिता की `डेटा-शीट´ मिली तो उसे पढ़कर यह साफ निष्कर्ष निकलता था कि अशोक ने अपने परिवार की आर्थिक स्थिति के संदर्भ में, अपने पिता का हाथ बँटाने के लिए पढ़ना छोड़ा। सर्वेक्षण के समूचे विश्लेषण में अशोक की गणना `परिवार की आर्थिक स्थिति´ से प्रभावित `ड्राप-आउट´ बच्चों में की गई। अशोक एक ग्रामीण बाल श्रमिक घोषित हुआ।
मेरे आँखों में आँसू देखकर सर्वेक्षक-बंधु कुछ घबरा गए। वे बोले, क्या यह बच्चा आपके रिश्ते में आता है ? मैंने कहा, नहीं! पर मैं उसे अच्छी तरह जानता हूँ। मुझे लगता है आप उसका केस ठीक से समझ नहीं पाए हैं। सर्वेक्षक ने कहा, अब एक-एक केस को कहाँ तक समझा जाए? फिर कुछ बात बदलकर वह बोला, आप तो दिल्ली में रहते हैं, नई शिक्षा नीति कब से लागू होने वाली है?
पिछली पोस्ट (कहानी के प्रथम भाग )में आयी टिप्पणिओं और प्रति-पोस्ट ने इस कहानी में उभरे निम्न बिंदुओं पर भी चिन्तन को और अधिक आवश्यक कर दिया है ………सच कहूँ तो कई अंतर्विरोध भी साफ़ दिखाई पड़ते हैं | प्रमुख बिंदु इस प्रकार चिन्हित किये जा सकते हैं |
- शिक्षिका और अशोक के दृष्टिकोण में तीखा विरोध होता जा रहा था। आपके विचार से इसके क्या कारण थे ?
- शिक्षिका का व्यवहार क्यों बेरूखी भरा होने लगा? इसके लिये कौन से कारक जिम्मेदार थे। आपको क्या लगता है यह कितना न्यायसंगत था?
- क्या वास्तव में शिक्षण की इस प्रणाली में वास्तव में इतनी ही खामियां थीं ?
- क्या अशोक की मानसिक अवस्थिति ही इतनी अलग थी कि वह इस तौर तरीके में पूर्णतयः अपने को नहीं ढाल पा रहा था ?
(विश्लेषण जारी . . . . . )
आप सब की मानसिक तरंगों का इन्तजार रहेगा |
प्रवीण जी आपकी कक्षा मे आकर अच्छा लगा
ReplyDelete... bahut badhiyaa ... gyaanvardhak !!!
ReplyDeleteअशोक जैसे न जाने कितने बच्चे गलत शिक्षा-नीति का शिकार हो रहे हैं. सर्वे कराकर सरकार भी खुश,विश्व बैंक भी खुश आंकड़े भी 'तरो-ताज़ा' !भई, जय हो !
ReplyDeleteपता नहीं, अब वह स्थिति नहीं रह गयी है जहाँ पर जीविका के लिये पढ़ना आवश्यक हो, जीवन के लिये भी। यदि किसी को नौकरी नहीं करनी है तो चलताऊ ज्ञान अनुभव से भी पाया जा सकता है। बहुत गहरी चर्चा की आवश्यकता है कि जो शिक्षा पद्धति है, उसमें बच्चों का सर्वेक्षण क्यों हो, अध्यापकों का निदेशकों का क्यों नहीं।
ReplyDeleteअच्छा लेख प्रेणादायक
ReplyDeleteआज के समय में शिक्षा बहुत जारूरी
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ReplyDeleteअशोक जैसे बहुत से मासूम स्कूल से निकल रहे हैं। अत्यंत दुखद है की एक ओर तो सरकार सर्व शिक्षा अभियान चला रही है, दूसरी और मजबूर विद्यार्थियों की मुश्किलों को नहीं समझ रही , उससे भी ज्यादा दुखद ये है की टीचर्स भी जरूरी नहीं समझ रहे ये जानना की बच्चा पढाई में क्यूँ पिछड़ रहा है। गुस्सा होने के बजाये बच्चे पर थोडा ज्यादा ध्यान और समय दे दें तो एक विद्यार्थी का जीवन संवर सकता है।
इसी विषय पर एक लेख लिखा है आज। शिक्षक होने के नाते आपके उपयोगी विचारों एवं सुझावों का इन्तेजार रहेगा।
" क्या हमारी शिक्षा पद्धति में सुधार की दरकार है ? - Indian Education System "
http://zealzen.blogspot.com/2010/12/indian-education-system.html
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@संतोष त्रिवेदी ♣ SANTOSH TRIVEDI
ReplyDeleteपता नहीं ! आपके विचार में उल्लिखित यह पक्ष नीति नियामकों और निर्माताओं को कितना अपील करता होगा ?....पर अधिकाँश शिक्षकों के नजरिये से अधिकाँश शैक्षिक नीतियों में परिवर्तन उसी तथाकथित को लक्ष्य बनाकर किया जाता है |
@प्रवीण पाण्डेय
अपनी ग्यारह वर्ष की अध्यापन-सेवा में मैंने किसी सर्वेक्षक को अपने आस-पास फटकते नहीं देखा !....कह नहीं सकता कि अध्यापकों के सर्वेक्षणों में शैक्षिक नीति निर्माताओं और नियामकों की कितनी रूचि होगी ?
@ZEAL
ReplyDeleteएक शिक्षक होने के नाते सच कहूँ तो हम सब अपनी नौकरी कर रहे हैं ......क्योंकि हम मात्र अपने ऊपर वालों के आदेशों का पालन कर रहे हैं| .....सही या गलत ? शिक्षा परिस्थिति पर निर्भर है ...और ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करना समाज , सरकार , निदेशकों का काम है .....जबकि कक्षा में यही दायित्व शिक्षक के ऊपर आ जाता है |
हम वह साम्यता नहीं बना पा रहे हैं ......बस यही पर कहीं कुछ कमी है !
प्रवीण जी, अशोक जैसी ही एक कहानी मेरे पास भी है बशर्ते अभी तक उसने स्कूल जाना नही छोड़ा था पर जाती भी थी ना के बराबर। नन्दिता मेरे टयुशन सेंटर मे जब ३ दिन उसके आये हुए तो मेरे टीचर ने कह मैम इस लड़की का कुछ नही हो सकता है। She is unable to understand anything, even no one can tolerate her. उनकी यह बात सुनकर नन्दिता को मैने अपने पास बुलाया और उससे बात की फिर किसी टीचर के हवाले करने के बजाये खुद ही पढाना शुरू किया। आज उसके इमेजिनेशन किसी भी छात्र से कई गुणा अच्छी है और अब वही लोग उसकी तारीफ करते नही थकते।
ReplyDeleteअब तो भले मैने अपने ट्युशन सेन्टर मे एक ऐसा ही बैच बनाया है जिसको पढाने की जिम्मेदारी मै स्वयं लेती हूँ मुझे उम्मीद है कि ये सब सबसे अच्छे और अलग होंगे।
अशोक जैसे विधार्थियों के लिए अध्यापकों को भी बहुत गहरे तक जाकर उन्हें समझने की आवश्यकता होती है..... जहाँ तक कारण की बात है इस विषय पर बिना किसी पूर्वाग्रह के वैचारिक चिंतन ज़रूरी है..... बहुत अफसोसजनक है ऐसे बच्चों का यों पढाई छोड़ देना......
ReplyDelete.
ReplyDeleteमित्र प्रवीण,
NCERT के इन सर्वेक्षण दौरों में मेरी पत्नी का अक्सर जाना होता है. वे बताती हैं कि प्रायः सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में गरीब माता-पिताअपने बालक-बालिकाओं को केवल 'मिड-डे मील' और 'वर्दी' पाने जैसी सुविधाओं के लिये भेजते हैं. वर्दी भी वे गंदी हो जाने तक पहने रहते हैं... दूसरी मिलने के लोभ के कारण.
आज-कल के गरीब माँ -बाप भी बड़े होशियार हैं ... भ्रष्ट शासन से सुविधा पाना जानते हैं.
शेष बातों पर बाद में बात होगी. कार्यालय का समय हो गया है.
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जारी...
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ReplyDeleteकोलिज समय की मेरी एक शिक्षिका हैं जो अब बुजुर्ग हो गई हैं.
वे बाल मज़दूरी / बंधुआ मजद्रूरी / गरीबी / बेरोज़गारी पर दिल दहला देने वाले
संवेदना पैदा कर देने वाले वक्तव्य दिया करती थीं.
मैं प्रेम वश उनके घर आने-जाने लगा.
उनकी दो लडकियां थीं. एक लड़का था .. जो उन्हें मौसी कहता था.
मुझे पता चला कि वे उसे पढ़ा रही हैं. लेकिन मैंने उसे गहर के समस्त काम करते देखा.
उसे शायद उतना पढ़ना जरूरी था कि वह उनके रोजमर्रा के काम आसानी से कर पाए.
वह घर में रहकर बढ़ती लड़कियों को सुरक्षा भी दे पायेगा. शायद इसलिए उसे घर में बेटे (नौकर) के रूप में रखा था.
वह तो आज एक समझदार नौकर के रूप में विकसित हो चुका है. भई बचपन से काम करने वाले एक्सपर्ट हो ही जाया करते हैं.
............... लेकिन
मेरे मन में तमाम तरह के सवालों ने घर कर लिया.
— क्या उस लड़के की इस तरह मदद करने में एक साथ कई समस्याओं का निदान था.
जैसे — उसकी पढाई हो रही थी. — उसको खाना मिल रहा था. — उसको परिवार का आश्रय, अपनत्व मिल गया था. — उसे सामाजिक दायरा मिल गया था.
वह गरीबी से निजात था. बेरोज़गारी से मुक्त था. अशिक्षा से दूर था.
कमाल है इस तरह के कमुनिस्ट लोग जो एक साथ कई समस्याओं पर चिंतन करते हुए निदान करते हैं. .
ज़ारी. ..
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ReplyDeleteशिक्षिका और अशोक के दृष्टिकोण में तीखा विरोध होता जा रहा था। आपके विचार से इसके क्या कारण थे ?
@ ४०-५० मिनट के पीरियड में ४०-५० बच्चों को प्रतिदिन १-१ मिनट ही दिया जा सकता है. ..... यही न्याय होगा.
— अशोक जैसा कोई बालक एक दिन-दो दिन ही अपने लिए अध्यापक से समय निकलवा पाता है. अन्यथा सारा ध्यान मेधावी छात्र ही अपनी ओर किये रहते हैं.
— अध्यापक / अध्यापिका से आप कितनी मात्रा में सहिष्णुता और कितने बड़े धैर्य की अपेक्षा रखते हैं? ... उसे भी आखिरकार अपने घर पर लौटकर अपने बच्चों के लिए ऊर्जा बचानी है.
— सभी टीचर या मेडम तारे ज़मीन के फिल्मी आडियल 'आमिर' नहीं होते. आमिर भी झल्ला जायेंगे यदि उन्हें ५० बच्चों की क्लास दे दी जाए.
ज़मीनी हकीकत और आदर्शवाद के बोल बोलना दो अलग-अलग चीज़े हैं.
— जरूरी नहीं सभी 'अशोक' पढने में रूचि रखते हैं.
मेरे बड़े भाई प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक हैं. उन्होंने बताया कि 'उनकी कक्षा के अशोक और सिकंदर जो कुछ कद में बड़े हैं, सभी को एडमिशन मिले, इस कारण पहली कक्षा में भर्ती तो हो गए लेकिन रोज़ अपनी कक्षा के ही दो-तीन बच्चों को पीट देते हैं. उनका एक धक्का भी कोमल शरीरी सहपाठियों के लिए भारी चोट होता है. ठेके से बोतल के ढक्कनों से शराब भरकर वे इकट्ठा करते हैं और पीते हैं. वे अपने अधिकारों के प्रति इतने सतर्क हैं कि कोई अध्यापक हाथ लगाकर तो देखे. अब्बाजान उसकी खाट खडी करने स्कूल में ही आते रहते हैं.
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ReplyDeleteशिक्षिका का व्यवहार क्यों बेरूखी भरा होने लगा? इसके लिये कौन से कारक जिम्मेदार थे। आपको क्या लगता है यह कितना न्यायसंगत था?
@ शिक्षिका के व्यवहार की बेरुखी इस बात से लगा लें कि आप स्वयं अपनी कक्षा में किसी एक बच्चे को पढ़ाने जाते हो या सभी बच्चों को. आप पढाई के उसी फार्मूले को अपनाते हो जो सभी के लिए सहज हो. जिम्मेदार कारक : १) अशोक को एकाधिक बार समझाने से हुई झल्लाहट, २) अन्यों की पढाई का हर्जा होने से अशोक के प्रति उदासीनता, ३) भागमभाग भरी जिन्दगी में अधिक ऊर्जा व्यर्थ गँवाने की चिंता.
......... मुझे लगता है कुछ NGO और शिक्षाविद केवल अपनी कल्पना से व्यर्थ के अनुमान लगा-लगाकर शिक्षानीति में बेवजह तब्दीलियाँ कर देना चाहते हैं. इससे वे अमरता को प्राप्त होने की आशा करते हैं.
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ReplyDeleteक्या वास्तव में शिक्षण की इस प्रणाली में वास्तव में इतनी ही खामियां थीं ?
@ मैंने दूसरी कक्षा में विराम चिह्न, प्रश्नवाचक चिह्न और विस्मयादिबोधक चिह्न लगाने सीख लिए थे. घर पर मुझे माँ और बड़े भाइयों के इसे सिखाने में मदद की थी. लेकिन जब मैंने इन तीनों चिह्नों के बारे में अपनी कक्षा के मोनिटर 'सुरेश' को बताया था तो वह कई बार समझाने के बावजूद भी उन तीनों चिह्नों को हर वाक्य के बाद बनाने लगा. मैं उससे कहा भी कि प्रश्न के आगे प्रश्नवाचक चिह्न [?], साधारण वाक्य के आगे विराम [ l ] और दुःख और बुलाने वाले वाक्यों के आगे विस्मय चिह्न [ ! ] लगाना चाहिए. लेकिन उसे समझ में नहीं आया, मैंने भी उसे समझाना छोड़ दिया. लगाता रहे हर वाक्य के बाद तीनों चिह्न...... मुझे क्या? मैंने तो उसे खूब समझाया लेकिन जब उसे समझ ही नहीं आता तो मैं क्या करूँ? मुझे अब लगता है कि उसे तो स्वयं कृष्ण कुमार भी नहीं समझा पाते. .............. खैर वह अपने पिता और माँ के साथ आलू बेचने में उस्ताद था. वह जिस अंदाज में 'आलू बेचने की आवाज लगाता था उसके आगे सभी विराम चिह्न फ़ैल थे. .......... लेकिन आज की मेडम की समस्या है कि उन्हें ऐसे ही आलू बेचने में मन लगाने वाले अशोकों को पढ़ाना हैं. वह भी नई तकनीक से.
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ReplyDeleteक्या अशोक की मानसिक अवस्थिति ही इतनी अलग थी कि वह इस तौर तरीके में पूर्णतयः अपने को नहीं ढाल पा रहा था ?
@ नये शिक्षाविद कुछ नया करने के नाम पर और चालित शिक्षा नीति में जबरन दोष ढूँढकर उस बालक को अपनी केस स्टडी बनाते हैं जिसमें अभिरुचि मृतप्रायः हो. मुझपर किसी ने आजतक केस स्टडी नहीं की कि मैं क्या पढ़ना चाहता था? और क्यों मेरे स्वर विरोधी तेवर लिए रहते हैं? मुझे यह बताया जाए कि अशोक को नये तरीके से शिक्षा का ग्लूकोज़ चढ़ाया जाए तो क्या वह प्रामाणिक तौर पर स्वस्थ हो पायेगा? उसे भविष्य में कोई उलझन नहीं होगी. उसका मस्तिष्क उन्नत होगा. उसके चिंतन के द्वार बाहर की ओर अधिक खुले होंगे. ...
मुझे तो यही लगता है कि अशोक की मानसिक दशा स्कूली माहौल के अनुकूल नहीं थी. इस कारण वह खुद को अपने सहपाठियों के साथ नहीं ढाल पा रहा था.
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हम्म... कुछ बुझा नहीं रहा फिलहाल कि क्या कहें.
ReplyDeleteसोचने को मजबूर करती है अशोक की गाथा।
ReplyDeleteजारी रखें।
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छुई-मुई सी नाज़ुक...
कुँवर बच्चों के बचपन को बचालो।
आपके प्रश्नों पर मेरे कुछ विचार (सही हों यह ज़रूरी नहीं है, मैं कोई शिक्षक या शिक्षा विशेषज्ञ तो हूँ नहीं)
ReplyDelete1. भारत की वर्तमान शिक्षा पद्धति (और बाद में सेवा चयन आदि में) में रटन कर्म पर बहुत ज़्यादा ज़ोर है।
2. शिक्षा प्रणाली में पठन-पाठन से इतर क्षमताओं रचनात्मकता आदि को नकार दिया जाता है
।
3. शिक्षा बहुसंख्य छात्रों के परिवेश से पूर्णतया कटी हुई है।
4. क्लास का हर धान बाइस पसेरी कैसे होगा? अमेरिका में (नगर-पालिका के स्कूलों) में एक ही कक्षा के छात्र अलग-अलग प्रकार के गणित, विज्ञान आदि पढते हैं। तीव्र-बुद्धि छात्र कक्षा 8 में होते हुए भी 11-12 की कक्षाओं में बैठते हैं।
5. एक और कारण है जो कि श्रीयुत ज्ञान दत्त जी की पोस्ट "कुछ उभर रही शंकायें" और विष्णु बैरागी जी की पोस्ट " मास्टरों! दुर्दशा तो अभी बाकी है" में अलग-अलग समय पर चित्रित हुआ है।
आचार्य देवो भवः
praveen jee aapka primary school achchhha laga, ab barabar aaunga...:)
ReplyDeleteबहुत बढ़िया आलेख।
ReplyDeleteप्रवीण जी आज बहुत दिनों बाद आपके ब्लाग पर आना हुआ। कृष्णकुमार की यह चर्चित कहानी यहां देखकर और उस पर जारी चर्चा पढ़कर अच्छा लगा। मेरे ख्याल से उनकी यह कहानी कम से कम 30 साल पुरानी है। अगर आपके पास इसके लेखन काल की सही जानकारी हो तो वह भी पाठकों को बताएं।
ReplyDelete*
इस कहानी में अशोक केवल एक प्रतीक भर है और उसे उसी रूप में समझा जाना चाहिए। पाठक उसे एक छात्र के रूप में देख रहे हैं,जिससे वे कहानी की मूल आत्मा को नहीं पकड़ पा रहे हैं। कृष्णकुमार जिन समस्याओं की ओर इस कहानी में इशारा कर रहे हैं,उन समस्याओं को हल करने के लिए काफी काम किया जा चुका और किया जा रहा है। अब स्कूलों में बच्चों को अक्षर से नहीं बल्कि शब्द या वाक्य के माध्यम से वर्णमाला को पहचानने का अभ्यास कराए जाने पर जोर दिया जा रहा है। और यह वैज्ञानिक रूप से स्थापित हो चुका है।
*
खैर जैसा कि पहले किसी पाठक ने कहा यह गंभीर विमर्श का विषय है,इसे केवल इस आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता कि हमने या हमारी पीढ़ी ने तो रटकर सीखा था तो अब गलत कैसे हो गया।
*
इस अभिनव प्रयोग के लिए बधाई एवं शुभकामनाएं।
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ReplyDeleteउत्साह में कही गयी साधारण बात भी कभी-कभी रहस्य [राज] की लगने लगती है.
रटना गुनाह नहीं. शब्दों के भीतर छिपे अक्षर पहचानना और
उसे शब्दों के उच्चारण से जोड़ कर अर्थ तक पहुँचना अभ्यासजन्य प्रक्रिया है.
अभ्यास मतलब दोहरावट मतलब एक ही कार्य बारबार करना, स्मृति में ज़माना. अर्थात शुद्ध रीति से रटना, वैदिक रीति से कंठस्थ करना.
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अच्छा लेख प्रेणादायक
ReplyDeleteआज के समय में शिक्षा बहुत जारूरी
प्रिय मास्टर साहब,
ReplyDeleteभारतीय ब्लॉग अग्रीगेटरों की दुर्दशा को देखते हुए, हमने एक ब्लॉग अग्रीगेटर बनाया है| आप अपना ब्लॉग सम्मिलित कर के इसके विकास में योगदान दें - धन्यवाद
अपना ब्लॉग, हिन्दी ब्लॉग अग्रीगेटर
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प्रवीण भाई, क्या हुआ। इस शमा को जलाए रखिए।
ReplyDelete---------
डा0 अरविंद मिश्र: एक व्यक्ति, एक आंदोलन।
एक फोन और सारी समस्याओं से मुक्ति।
poore desh ke bachcho ka yahi haal hai jo goan me rahte hai or sarkari school me padh rahe hai
ReplyDeleteजानदार और शानदार प्रस्तुति हेतु आभार।
ReplyDelete=====================
कृपया पर्यावरण संबंधी इस दोहे का रसास्वादन कीजिए।
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गाँव-गाँव घर-घ्रर मिलें, दो ही प्रमुख हकीम।
आँगन मिस तुलसी मिलें, बाहर मिस्टर नीम॥
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शहरीपन ज्यों-ज्यों बढ़ा, हुआ वनों का अंत।
गमलों में बैठा मिला, सिकुड़ा हुआ बसंत॥
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सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी
कहाँ गायब हैं मास्साहब? जनगणना में व्यस्त हैं क्या?
ReplyDelete