यह कहानी प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार द्वारा लिखी गयी है| प्राथमिक शिक्षा के दृष्टिकोण को समझने के लिए यह कहानी एक माध्यम है| एनसीईआरटी के निदेशक रहे प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार के बारे में यहाँ अधिक जाना जा सकता है| विश्वास है कि हमारे शिक्षक व पाठक इस कहानी के माध्यम से कुछ लाभान्वित हो सकेंगे|
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अशोक पढ़ना चाहता था। उसके परिवार में कभी कोई स्कूल नहीं गया था। पिता जमीन के छोटे-से टुकड़े पर खेती करते थे, अनपढ़ थे। अशोक ने कई बार ज़िद की, माँ को समझाया और अंत में पिता मान गए कि उसे प्राइमरी स्कूल में भर्ती करा देंगे।
पहले दर्जे में हिन्दी के अन्तर्गत अध्यापिका ने वर्णमाला सिखाई। एक-एक अक्षर की आवाज़ हफ़्तों रटाई, अक्षरों की आकृति बनाना सिखाया। जिन बच्चों को दिक्कत आती थी उनका हाथ पकड़ कर सिखाया।
स्कूल में एक छोटा-सा ब्लैकबोर्ड था- खूब घिसा हुआ, चॉक के बारीक कणों से इस कदर ढका हुआ कि लिखाई देखने के लिए सिर की नसों का सारा जोर पुतली पर केंद्रित करना होता था। यह ब्लैकबोर्ड अगस्त से अक्टूबर तक वर्णमाला की आकृतियों से ढका रहा। बच्चे एक-एक अक्षर की आकृति बीसियों बार अपनी कॉपी में उतारते। इस तरह नवम्बर के अंत में अशोक ने सारी हिन्दी वर्णमाला सीख ली।
अब अध्यापिका ने पाठ्यपुस्तक की तरफ ध्यान दिया जिसमें हर अक्षर के पास एक शब्द लिखा था और एक चित्र बना था। क के पास लिखा था `कबूतर´। अशोक शुरू से जानता था कि क का मतलब होता था `कबूतर´। इसलिए जब बहनजी ने अक्षर जोड़कर कबूतर पढ़ना सिखाना चाहा तो अशोक बहुत खुश हुआ। पर उसे यह नहीं समझ में आया कि दरअसल बहनजी के लिए `क´, `बू´, `त´ और `र´ का कुल योग कबूतर है।
अशोक के दृष्टिकोण से क `कबूतर´ था। बहनजी के पास इतना समय नहीं था कि अशोक का दृष्टिकोण समझे। `अशोक का भी कोई दृष्टिकोण है´- यह बात वे जानती थी या नहीं, मैं कह नहीं सकता। बहर-हाल उन्होंने सोचा कि अशोक क के लिखे शब्द को देखकर `कबूतर´ कह रहा है यानी वह पढ़ना सीखने लगा है।
इसी तरह अशोक ने बाकी सब अक्षरों के साथ लिखे शब्द पढ़ना सीख लिया।
अक्षरों की आकृतियाँ स्लेट और कॉपी पर उतारना तो वह पहले ही सीख चुका था। पहले दर्जे का अंत होते-होते वह अपनी प्रगति से काफी खुश था। जब वह दूसरी कक्षा में आया और कक्षा में उससे किताब पढ़ने को कहा गया तो वह इस तरह बोला-
`कबूतर का क, मटर का म, लंगूर का ल, क-म-ल। हर बार उसे इस तरह पढ़ते देखकर अध्यापिका कुछ नाराज हुई।
अशोक के हर प्रयास के बाद अध्यापिका उससे कहती-`दूसरे बच्चों को ध्यान से सुनो, उनकी तरह पढ़ो।´ अशोक दूसरे बच्चों को बहुत ध्यान से सुनता, पर यह समझने में असमर्थ रहता कि वह कहाँ गलती कर रहा है। उसे लगता कि दूसरे ठीक उसकी तरह पढ़ रहे हैं। यही शब्द वे पढ़कर सुना रहे हैं। फिर बहनजी उससे क्यों नाराज हैं?
सौभाग्यवश बहनजी और भी कुछ बच्चों पर खीझती थी, इसलिए अशोक अपने को एकदम अकेला नहीं पाता था। किसी तरह उसने दूसरी कक्षा के सारे दिन काट लिए। धीरे-धीरे उसकी क से कबूतर कहने की आदत भी कम हो गई। अब वह इस तरह पढ़ता था -
ग पे उ की मात्रा गु
ल पे आ की मात्रा ला
ब
क पे आ की मात्रा का
फ पे बड़े ऊ की मात्रा फू
ल
गु-ला-ब का फू-ल
बहनजी उसे कभी-कभार ही पढ़ने को कहतीं, अक्सर उसके पास की टाटपट्टी पर बैठे बच्चे ही पूरा पाठ पढ़ देते। पर अशोक इस बात से उदास नहीं था। अब तक वह कक्षा तीन में आ चुका था। कक्षा तीन में आकर उसने एक पूरी कविता भी याद कर ली थी। एक दिन जब किताब दोहराते वक्त इस कविता को पढ़ने का नंबर आया तो अशोक ने बगैर सही पेज खोले पूरी कविता पढ़कर सुना दी। बहनजी उससे गुस्सा थीं कि उसने सही पेज क्यों नहीं खोला। अशोक खुश था कि वह बिना किताब देखे पढ़ने लगा है। इस तरह दिन-प्रतिदिन उसके और बहनजी के दृष्टिकोणों का विरोध तीखा होता जा रहा था। ................??
(शेष अगली किस्त में ….)
वाकई नगीना ढूँढ़ कर लाए हैं मास्साब! प्रारम्भ ही बता देता है कि कहानी में बहुत कुछ है।
ReplyDeleteसार्थक विरोधाभाष को दर्शाती प्रस्तुती.....
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ReplyDeleteअध्यापिका की अवहेलना के बावजूद बच्चे की सीखने की ललक प्रभावित करती है। अगले भाग की प्रतीक्षा रहेगी।
ReplyDeleteसोमेश सक्सेना
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ReplyDeleteप्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार जी के बारे में जानने के लिए दिया गया लिंक खुल नहीं रहा है। अशोक जैसे प्रतिभाशाली , बुद्धिमान और संयम बरतने वाले विद्यार्थी विरले ही होते हैं। संभवतः कहानी के अंत तक शिक्षिका अपने विद्यार्थी द्वारा जिंदगी का सही पाठ पढ़ लेंगी ।
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सार्थक सोच को प्रतिबिंबित करती प्रस्तुती है.... आगे की कड़ी का इंतजार रहेगा....
ReplyDeleteji bahut badhiya...
ReplyDeletekunwar ji,
यह कहानी शिक्षा पद्धति पर प्रहार है ...बच्चों का भी अपना दृष्टिकोण होता है इसे समझने कि ज़रूरत है ..आगे इंतज़ार है
ReplyDelete..
ReplyDeleteमैंने भी प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार जी को पढ़ा है.
उन्हीं की शैली में शोध विद्यार्थी नैतिकता का अध्याय इस तरह पढेगा :
आश्रित लतिकाओं पर शोध कर्म करने वाला वृक्षराज ......... प्रोफ़ेसर
गोपियों के साथ रास रचाने वाला 'कृष्ण' मतलब ........... कृष्ण
कौमार्य से खेलने वाला कुमार मतलब ............... कुमार.
प्रवीण जी,
क्या यह संभव है कि कोई नियम या आचार-संहिता बनाते समय हम समस्त बच्चों के स्तर के साथ न्याय कर पाते हैं?
क्या एक बालक [अशोक] की व्यक्तिगत समस्या को सुधारने के लिये हम उसकी कक्षा के अन्य विद्यार्थियों की योग्यता को अनदेखा करें?
क्या हम और आप और कृष्ण कुमार जी भी उसी पुरानी शिक्षा पद्धति से नहीं पढ़ें हैं. क्या वे अभी भी वर्णमाला के 'क' को देखकर कबूतर की याद करते हैं पहले?
पुरानी शिक्षा पद्धति का मुख्य आधार था.
पहले कंठस्थ करवा दिया जाये ....... चाहे गीति के माध्यम से चाहे चित्रात्मक कल्पनाओं के द्वारा.
फिर बाद में उसमें मोडिफिकेशन करना सहज होता है. मैं भी कई चीज़ों को उम्र बढ़ने के साथ-साथ सुधारता गया हूँ.
इस विषय पर आपसे विचार-विमर्श करना चाहता हूँ. दिसंबर के अंत में अपने विचार विधिवत रखूँगा.
मैं तो पूरी वर्णमाला को एक कविता के माध्यम से समझता आया हूँ. कुछ अंश देता हूँ.
क कन्नौजी, ख खड़ी बोली, ग गढ़वाली
घ घुमक्कड़ी गं गं गं गं गं गं गुरिया.
च चम्बाली छत्तीसगढ़ी जयपुरिया.
झ से होती झाँसी कमिशनरी यं यांली
त टक्क टिकारी ड डोगरी ढ ण खाली.
[गं और यं वर्णों को कवर्ग और चवर्ग का पाँचवा वर्ण समझा जाये]
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ReplyDeleteअंत में आये 'त' को 'ट' पढ़ा जाये
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ReplyDeleteटिकारी को ठिकारी पढ़ा जाये
टक्क और ठिकारी बोलियाँ हमारी हिंदी भाषा की ही कम प्रचलित प्रादेशिक बोलियाँ हैं.
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ReplyDeleteअभी आपने केवल इस नवीनतम शिक्षा पद्धत्ति का केवल कृष्ण पक्ष ही देखा है मैं आपको शुक्ल पक्ष दिखाता हूँ.
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ReplyDeleteपहले के तथा किसी भी दूसरे के विचारों से अथवा पहले की सूचनाओं से लाभ लेने के लिये प्रायः दो माध्यमों का प्रयोग करते रहे हैं. एक श्रुति परम्परा वाला और दूसरा पाठ पद्धति वाला.
मनुष्य अपने बाल समय से ही जिज्ञासु रहा हि. उसे श्रुति परम्परावाला मेथड शुरू से अच्छा लगता रहा है. दादा-दादी, नाना-नानी या कभी-कबाह माँ-पिताजी से भी काफी पुराने समय से वह किस्से कहानियों के लोभ में चिपकता रहा है. घर के बड़े-बूढों का लाडला कहानियाँ सुन-सुनकर आत्मीयतावश उनका इतना बड़ा हिमायती और आज्ञाकारी हो जाता है कि वह दो पीढ़ियों के विवादों में बुजुर्गों के टोल में शामिल मिलता है.
प्रारम्भ में चित्रों वाली पुस्तकें आदि के प्रति वह खींचता है. चित्र उसे समझ में आते हैं क्योंकि उन्हें वह देखता है महसूस करता है. लेकिन पढ़ने के प्रति बच्चे का रुझान नहीं होता क्योंकि वह पढ़ना जानता ही नहीं उसे वह मेहनत से सीखता है. चित्रों की भाषा टीन-चार सालों में उसकी विकसित हो चुकी होती है क्योंकि माता के स्तनों का पान करते-करते वह भाव-भंगिमाओं का पंडित बन गया होता है. बच्चा बहुत अच्छे से माँ के और गोदी में उठानेवाले परिवार के अन्य सदस्यों के अच्छे-बुरे, डांटके, प्यार के, ममता के, हँसी के, रोने के, भावों को समझने लग जाता है. और इसी कारण भावों से जुड़े चित्रों को वह भली-भाँति समझता है. देखा गया है कि कई बच्चे तो चित्रों को देख-देखकर अपनी कहानी भी बनाने लगते हैं.
जहाँ तक 'रटंत विद्या' की बात है वह दोहरावट पद्धति पर आधारित है. इसका अलग माहात्म्य है. वहा किसी के चाहने से समाप्त होने वाली नहीं है. रुचि और अरुचि वाले विषयों को पाठ्यक्रम में अनिवार्य रूप से पढ़ने की विवशता को परीक्षा के दिनों में 'रटंत विद्या' या दोहरावट पद्धति कि ओर धकेलती रही है.
आज बाल शिक्षाविदों द्वारा 'पहचान शिक्षा पद्धति' की ओर प्रारम्भिक शिक्षा माध्यम से बालकों को ले चलने का प्रयास बेशक नया नहीं है. लेकिन वर्तमान में सराहनीय अवश्य है. पहचान वाली वस्तुओं और भावों से जोड़कर यदि अक्षरमाला और अन्य बातों को समझाया जाएगा तो बच्चा सहजता से ग्राह्य करेगा. बच्चे की जिज्ञासा पहचान के अलावा चीज़ों के प्रति भी हो सकती है जैसे परीकथाओं में. इसमें दो चीज़ों को जोड़कर कल्पना कर सकता है — बहन[ माँ या आंटी के साथ उड़ते पक्षी को.
दूसरे, 'क' से कबूतर या कमल सिखाना ग़लत नहीं कहा जा सकता. ना ही ए फॉर एप्पल बताना ग़लत है. बच्चा इस तरीके से 'क' अक्षर को कबूतर के 'क' के रूप में जानेगा — यह कहना पूरी तरह सही नहीं. इस तरह के बच्चों का अनुपात काफी कम है. यदि माँ भी लिया जाये बच्चा 'क' अक्षर को कमल या कबूतर के 'क' रूप में पहचान रहा है तो इससे बछा कौन-सी ग़लत दिशा पकड़ रहा है? यह बच्चे की प्रारम्भिक स्टेज है इसमें बेसिक चीज़ों को बच्चे में भरना पहली जरूरत है न कि सही-ग़लत में पड़ना. यदि ग़लत चीज़ों को नकारना ही है तो निरर्थक शब्दों को भी सिरे से नकारा जाये. जैसे बाल कविताओं में निरर्थक शब्दों की भरमार देखी जाती है फिर भी वे पसंद की जाती रही है. उदाहरण कुछ कविताओं में बेतुके किन्तु गीतिमय शब्द भरे पड़े हैं — सन पकैया, सन पकैया ....., ईलम डीलम ...,
आदि... अन्य उदाहरणों की खोज करनी है तो प्रसिद्ध कवि एवं बाल गीतकार दीनदयाल शर्मा जी के साहित्य में की जा सकती है.
मतलब यह है कि बच्चा अक्षरमाला जैसे भी सीखे लेकिन वह धीरे-धीरे इस काबिल स्वयं हो जाएगा कि अक्षमाला के अक्षरों को आदि, मध्य और अंत की स्थिति में आने पर पहचान लेगा और उनका उच्चारण विधान समझ पायेगा. इस सन्दर्भ में शिक्षाविदों की घबराहट बेवजह है.
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सुंदर प्रस्तुती
ReplyDeleteतख्ती पर लिखना पढ़ना बहुत अच्छा लगता है
साथ में पत्थर की काली स्लेट और स्लेटी
अब कहाँ सब वस्तुएं
बहुत ही सुन्दर आलेख. हमें तो इत्ता ही समझ में आया कि प्रत्येक बच्चे की मानसिक कंडिशनिंग अलग अलग होती है
ReplyDelete..
ReplyDeleteप्रवीण जी,
मेरे विचारों में कुछ व्याकरणिक त्रुटियाँ हैं. अतः पाठक उन्हीं विचारों को मेरे ब्लॉग पर पढ़ सकते हैं आपको इसका श्रेय है :
मेरा लिंक : http://pratul-kavyatherapy.blogspot.com/2010/11/blog-post_30.html है
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बहुत अच्छी बात कही है...
ReplyDelete...बहनजी के पास इतना समय नहीं था कि अशोक का दृष्टिकोण समझे। `अशोक का भी कोई दृष्टिकोण है´- यह बात वे जानती थी या नहीं, मैं कह नहीं सकता।.... सारा मामला तो यहीं पर है, भले ही प्रो.कृष्ण कुमार कहानी के शिल्प में यह अभी न कहना चाहते हों, पर असल मामला तो यही है कि अध्यापक बच्चे को अपने हिसाब से सिखाना और रटाना ही शिक्षा मानते हैं, उसकी अपनी कोई दुनिया है या बन रही अहि ये मानाने का समय गुरूजी या बहनजी के पास कहाँ होता है.. कृष्ण कुमार जी के समय में NCERT का NCF'2005 तो इस सन्दर्भ में अद्भुत दस्तावेज है... अगले अंश का इंतज़ार रहेगा, इस के लिए आभार.
ReplyDeleteकुछ सार्थक घटने वाला है। जारी रहे।
ReplyDeleteआपकी भी अपनी एक अलग समस्या है :)
ReplyDelete@गिरिजेश राव
ReplyDeleteनगीना तो नहीं कह सकता पर इस तरह की कहानियाँ विचारों को लगातार उद्द्वेलित करते रहने का माध्यम मुझे समझ में आया करती हैं |
@honesty project democracy
हाँ ऐसे विरोधाभाषों का लगातार स्वागत होना चाहिए |
@@सोमेश सक्सेना
सारी जद्दोजहद बच्चे के नजरिये से शिक्षण और अधिगम को समझने की है ......हालाकि इस पर भी सर्वसम्मति बिलकुल भी संभव नहीं है |
@संगीता स्वरुप (गीत)
हाँ यह पुरानी पद्दति पर प्रहार ही करती बावजूद इसके उस पद्दति को भी एकदम से खारिज नहीं किया जा सकता है | इस सीखने और सिखाने में नई कोशिशों का जारी रहना जितना आवश्यक है.........उतना ही आवश्यक है बच्चों के नजरिये को जानने की !
@गुड्डोदादी
ReplyDeleteहाँ ! सच है समय के साथ कुछ चीजे यादें रह जाती हैं ....अब तो गावों के बच्चों ने भी वही बाल पेन अपना लिया है |अभ्यास से ज्यादा सूचना भरने पर जोर जो है |
@P.N. Subramanian
हाँ हर बच्चे की मानसिक अवस्थिति के ही कारण तो यह सारी जद्दोजहद है |
@विवेक.
मैं तो आप की टीप में समय को ही सबसे बड़ा कारक मानता हूँ ....जिसके कारण सभी पद्दतियां की सफलताओं पर प्रश्न चिन्ह लग जाया करता है| राष्ट्रीय करीकुलम फ्रेमवर्क (NCF-2005) के सन्दर्भ में प्रो. कृष्ण कुमार जी का योगदान महत्वपूर्ण है |
आगे की कड़ी का इंतजार
ReplyDeleteहम्म... आगे ?
ReplyDelete@ZEAL
ReplyDeleteप्रो.कृष्ण कुमार जी एक शिक्षाविद हैं और एनसीईआरटी के निदेशक रह चुके हैं | दिया गया लिंक अब हटा दिया गया है |अतः आप यहाँ जाकर उनके बारे में और उनके विचारों के बारे में जान सकती हैं |
@Arvind Mishra
:-)
@प्रतुल वशिष्ठ
मैं तो इस कहानी को चिपका कर पलायन करने के मूड में था
....लेकिन आप जैसे स्नेहिल यह सब आसानी से कहाँ होने देंगे ?
:-)
!
कुछ देर से ही सही कोशिश करता हूँ |
यह विषय इतना जटिल है कि इस पर सतही 'टीप' नहीं की जा सकती,मनोवैज्ञानिक तरीके से इसे देखना होगा,साथ ही बहिन जी किन परिस्थितियों से गुजर रही हैं !'
ReplyDeleteकहानी पूरी हो जाए तभी कुछ कहा जा सकता है !
जोरदार शुरूवात है...
ReplyDeleteप्रवीण जी आपकी कक्षा मे आकर अच्छा लगा । कानपुर ब्लागर्स असोसिएसन आपका स्वागत करता है ।
ReplyDeleteफतेह्पुर से बहते हुये ही गंगा जी कानपुर आयी है । आप भी कानपुर से जुडें , उस हमारा सौभाग्य होगा
इस रटंतकर्म को शिक्षा समझने वालों की वजह से कितनी प्रतिभायें उगने से पहले ही डूब गयीं।
ReplyDeleteअच्छी कहानी चल रही है...
ReplyDeleteसीखने की कई पद्धतियाँ बताई गयी हैं मनोविज्ञान में जिसमे एक कोरिलेशन मैथड होता है जिसमे किसी विषयवस्तु को किसी अन्य सन्दर्भ से सम्बन्ध स्थापित कर के सीखा जाता है... आज भी गावों के बच्चों में दुनिया को देखने समझने के अवसर कम मिलते हैं अतः बुद्धि के अनुसार अनुभव उतने प्रखर नहीं होते जितने शहर के बच्चों के होते हैं... इस लिए उनके लिए शुरूआती शिक्षा में इन्हीं पद्धतियों का सहारा लेना श्रेयस्कर होता है... आज भी क माने कबूतर पढ़ कर सीखना बच्चों के लिए अधिक सुविधाजनक लगता है..
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ReplyDeleteभक्त और पुजारी भगवत भक्ति के संस्कृत श्लोक और स्तोत्र निरंतर अभ्यास से कंठस्थ कर लेता है.
लम्बी-लम्बी कवितायें और गीत कोई भी बालक सहजता से याद कर लेता है यदि उसमें गीति तत्व और ध्वन्यात्मकता प्रवाहयुक्त होती है.
रटना, जाप करना, पुनरावृत्ति, कंठस्थ करना, याद करना आदि क्रियायें ...... विस्मृत हो रही चीजों को अथवा मानस भूमि में जड़ें न जम पाने के कारण उखड़ रहीं कमज़ोर स्मृतियों को फिर से जमाने के लिये ही तो की जाती हैं. इनको समय-समय पर हम सभी प्रयोग में लाते हैं. ये सभी याद करने की क्षमतानुसार और विषयानुसार पद्धतियाँ हैं. रटंत-कर्म प्रतिभाओं को मारने की कोई विधा नहीं है. यह तो शिक्षा को अर्जित करने का सबसे सरल ढंग है.
मुझे याद है कि मैंने बचपन में रट्टा मार कर जिन पहाड़ों को याद किया था वे मुझे हिसाब-किताब में आज़ भी मदद करते हैं.
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यहाँ शैक्षिक परिचर्चा देखकर अच्छा लगा. धन्यवाद.
ReplyDeleteवाह रे बहनजी... जरा सा समय तो दीजिये अशोक को....
ReplyDeleteआदरणीय प्रवीण जी,
ReplyDeleteनमस्कार !
बहुत ही सुन्दर आलेख. हमें तो इत्ता ही समझ में आया कि प्रत्येक बच्चे की मानसिक कंडिशनिंग अलग अलग होती है
ब्लोब्गों पर जहाँ राजनेतिक बहस के सिवा कुछ नहीं है वही आपके ब्लॉग पर आकर मज़ा अगया । लिखते रहो भय्या ।मेरा ब्लॉग :: मिनिस्टर का लड़का फ़ैल हो गया क्या वह उसे गोली मार देगा ब्लॉग पढ़ें और टिपण्णी भी करें
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