बच्चों के शिक्षण में "बातचीत" को एक बेहतरीन साधन के रूप में किस तरह और क्यों आजमाया जाए ?......इस पर पिछली दो पोस्ट्स में चर्चा यहाँ(1) और यहाँ(2) हो चुकी है | उसी कड़ी को आगे बढाते हुए ...... आज अब हम यह जानेंगे कि किस रूप और दशा में हम बच्चों की बातचीत और उसकी जिज्ञासा को अवसर दे सकते हैं ......साथ ही उसका नियमन और उत्प्रेरण कर सकते हैं?
एक अध्यापक या बच्चे के संरक्षक के रूप में हमें कोशिश करनी चाहिए कि बच्चा अपने अनुभवों को हमारे सामने प्रकट कर सके ...यह तभी हो सकता जब हम उसे उसके अपने बारे में उसे बात करने का अवसर दें| अध्यापक के रूप में हमें यह पूर्वाग्रह हटाना पड़ेगा कि बच्चे की घरेलू और निजी जिन्दगी के अनुभवों का विद्यालयी ज्ञान से कोई अंतर्संबंध नहीं है| जाहिर है .... ऐसे प्रोत्साही माहौल में ही बच्चे निःसंकोच अपनी बात कह पाने में समर्थ हो सकेंगे| ऐसे माहौल को बनाने के लिए बच्चों एवं शिक्षकों के बीच अपनत्व एवं सहयोगी मित्र का रिश्ता कायम होना अति आवश्यक है। बच्चों की क्रियाओं में डर एवं मजबूरी न हो कर प्रेमभाव तथा लगन होना चाहिए। जिससे वे हँसी-खुशी, सम्मान पूर्वक रूचिपूर्ण शिक्षा प्राप्त कर सकें। जाहिर है स्व-प्रेरणा की इसमे अधिक भूमिका होनी चाहिए।
दूसरी कोशिश या अवसर बच्चों को अपने विद्यालयी अनुभवों पर बात करने को कहकर दी जा सकती है | विद्यालय में घरेलू जीवन से अलग हटकर और अधिक लोकतांत्रिक अनुभव होते हैं ......दूसरे रूप में कहें तो आगे आने वाले भविष्य के समाज का छोटा रूप विद्यालय में ही दृष्टिगोचर होता है| ऐसे में इस लघु सामाजिक अनुभवों का फीडबैक आपको मिल सके ....यह बहुत आवश्यक है| विद्यालय से दूर ना सही ...पर आस-पास के भ्रमण का भी इसी सिलसिले में उपयोग किया जा सकता है|
कहानियाँ सुनना/सुनाना और उस पर चर्चा के दौरान हम सभी (क्या अध्यापक और क्या अभिभावक) अधिकांशतः उस कहानी से मिलने वाली सीख के इर्द-गिर्द ही स्वयं को केन्द्रित करने की कोशिश करते हैं ......जिससे कहानी सुनने/सुनाने में एक तरह का बनावटीपन का एहसास बच्चों को होने लगता है| इस तरह की सीख से बच्चों का असल में कोई विशेष लेना देना नहीं होता हैं .....उन्हें तो कहानी से मतलब! केवल कहानी से| इस विधा में सबसे आवश्यक है कि बच्चों से कहानी के सहारे उनकी कल्पनाओं के घोड़े को अधिकतम उड़ान का मौक़ा देने के साथ साथ बच्चों को अपने वर्तमान से पूरी तरह से स्वतंत्र करना है इस प्रक्रिया में बच्चों को उस कहानी में हेर-फेर और बदलाव का भी मौक़ा यदि दिया जा सकता है तो बहुत बेहतर| कहानी के साथ साथ हम नाटक और एकांकी का भी इसी तरह सहारा ले सकते हैं|
कोशिश की जानी चाहिए कि बच्चों से मजाक में या हँसी में ही चाहे हो बात-चीत करके उनके अन्दर के संकोच या शर्मीलेपन को दूर किया जाना चाहिए। इस तरह के सवालों द्वारा अध्यापक बच्चों से उनके बारे में रोज कुछ समय के लिए बातचीत करें, जैसे -
- आपके हाल-चाल क्या हैं ?
- आज सुबह घर पर क्या किया ? क्या खाया ?
- रास्ते में क्या विशिष्ट बात देखी ?
- खाने में क्या अच्छा लगता है ?
- कौन सा खेल पसन्द है ?
- किसी बाजार या मेले में गये तो उसका अनुभव पूरी कक्षा को बताइये ।
- पेड़-पौधे तथा पशु-पक्षी में से क्या अच्छे लगते हैं ? तथा उनका क्या महत्व है ?
- किस बात पर रोना आता है ? किस बात पर हँसना आता है ?
- घर में कौन-कौन है ?
इन सभी बातों का ध्यान रखने से बच्चों को लगता है कि अध्यापक उनमें तथा उनकी दुनिया में रूचि ले रहे हैं और इस एहसास से वे अपने आप को बहुत गौरान्वित महसूस करते हैं। अपने अनुभव बाटने से उनका मूल्य बढ़ने लगता है और अपनी नजरों में भी उनका अपना मूल्य बढ़ने लगता है। विशेष रूप से बालिकाओं के लिए यह बातचीत का माहौल बहुत महत्व रखता है। लड़कियों के घर में भी और बाहर भी चुप रहने की सीख दी जाती है। इससे उनकी अपनी आवाज और इससे जुड़ा हुआ अस्तित्व दबा रहता है। जब कक्षा में अध्यापक अपने बारे में अपनी बात अपने तरीके से कहने के आमंत्रित करते हुए कई अवसर प्रदान करते हैं तो इससे बालिकाओं की आवाज को बल मिलता है और उनके मनोबल को बढ़ावा।
इसलिए यह अति आवश्यक है कि हमारी कक्षाओं में हमारे बच्चों की चुप्पी टूटे और इसकी जगह पर उनके बोलने, हँसने और सीखने की आवाजें गूजें|
आगे की अंतिम कड़ी में "बातचीत" के इस माहौल को किस तरह की कक्षीय बैठक व्यस्था से और उत्प्रेरित किया जा सकता है ; पर चर्चा की जायेगी|
आपके विचार, बच्चों के सुप्त मन में ऑक्सीज़न डालने के सुन्दर प्रयास हैं।
ReplyDeleteमास्साब...शिक्षा के दो सबसे महत्वपूर्ण घटक शिक्षार्थी व शिक्षक ही हैं,किताबें या पाठ्यक्रम तो बाद में आता है.बच्चे को यह न लगे कि उसे उपदेश दिया जा रहा है,यह तो उसे घर पर ख़ूब मिलता है.जब शिक्षक बच्चे से आत्मीय सम्बन्ध स्थापित कर लेता है तो वहीँ से शिक्षा का प्रवाह शुरू हो जाता है...
ReplyDeleteबच्चों के शिक्षण में बातचीत को एक बेहतरीन साधन के रूप में प्रयोग करना छात्रों और शिक्षकों के बीच दूरी/झिझक /डर कम करने में हमेशा ही प्रभावी रहता है.
ReplyDeleteअच्छा लेख है.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति। धन्यवाद
ReplyDeleteबच्चों में आत्मविश्वास पैदा करने के लिये यह ज़रूरी है ।
ReplyDeleteमैं तो एक दम सहमत हूं.
ReplyDeleteसमाज में परिवर्तन लाने वालों की कतार में शिक्षक सबसे आगे हैं!
ReplyDeleteअंकल जी, आपका ब्लॉग तो बड़ी अच्छी-अच्छी बातें बताता है...अच्छा लगा यहाँ आकर.
ReplyDelete________________
'पाखी की दुनिया' में अंडमान के टेस्टी-टेस्टी केले .
आपका लेख पड़ना अच्छा लगता हो दोस्त हमारा भविष्य तो हमारे बच्चे ही हैं उन्हें हमे हर बात का ज्ञान देना जरुरी है लेख अच्छा लगा बढ़ी स्वीकारे !
ReplyDeleteबधाई स्वीकारे !
ReplyDeleteसही कहा मास्साब ने:)
ReplyDeleteविचारणीय बात कही आपने.... पूरी तरह सहमत....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति। धन्यवाद
ReplyDeleteपूरी तरह सहमत हूं. ....
शिक्षण वास्तव में एक निस्स्वार्थ सेवा है. सम्प्रेषण में आने वाले अड़चनों को दूर करना ही होगा अन्यथा शिक्षण सार्थक नहीं रहेगा. (बैंक के अधिकारीयों एवं कर्मचारियों को प्रशिक्षण देने का मुझे ६ वर्ष का अनुभव है).
ReplyDelete@P.N. Subramanian ने कहा…
ReplyDeleteबैंक के अधिकारीयों एवं कर्मचारियों को प्रशिक्षण देने का मुझे ६ वर्ष का अनुभव है
आशा है .... आपके यह अनुभव भी जल्दी ही पढने को मिलेंगे !