चूं
कि दर्शन किसी विषय के सभी पहलुओं पर विचार करता है ...सो गणित पर दर्शन के सम्बन्ध पर बात किये बिना इस विषय की समाप्ति सम्पूर्णता पर प्रश्न चिन्ह लगाती | सो गणित शिक्षण और उसके सौंदर्य से जुडी अंतिम किस्त .....जिसमे गणित पर दर्शन की छाप और गणित की दर्शन से बनायी गयी दूरी पर चर्चा समाहित है|
हम सब जानते हैं कि दर्शन और विज्ञान में काफी हद तक एक तरह का साम्य देखा जा सकता है | वस्तुतः प्रारंभ में दर्शन का ही एक हिस्सा हुआ करता था - विज्ञान | प्रारंभ में ज्ञान को किसी शाखा या विषयों में विभाजित नहीं किया गया था |बल्कि इसके विपरीत ज्ञान की सभी शाखाओं की राह दर्शन की राह ताकती और उसमे समाहित होती दिखाई देती थी | पर इस परम्परा में सबसे पहले किसी विषय ने विद्रोह किया ...तो वह गणित रूपी शाखा ही थी |यह गणित ही थी जिसने सबसे पहले दर्शन से अपने को पूरी तरह से मुक्त कर लिया |
मुक्ति के पीछे जो आधार थे वह यह थे ......
- कि गणित में निश्चितता रहती है |
- जाहिर है कि गणित के प्रश्न भी निश्चित रहते हैं और उत्तर भी|
गणित के पीछे पीछे सभी शाखाओं - यथा नक्षत्र -विद्या , विज्ञान आदि ने भी दर्शन से अपनी दूरी बना ली| इसी कड़ी में यह चर्चा भी सामयिक रहेगी कि सभी विज्ञान अंततः गणित का ही आश्रय लेते हैं| गणित की विधि विज्ञान से भिन्न है| विज्ञान में प्रयोगशालाओं में निरीक्षण और परीक्षण किये जाते हैं , जबकि गणित में प्रयोगशालाओं की कोई आवश्यकता नहीं होती |
गणित की कक्षा में श्यामपट और चाक से भी काम चल जाता है | ऐसा क्यों है ? ऐसा इसलिए है कि - क्योंकि गणित में पदार्थों का नहीं बल्कि संबंधों का अध्ययन किया जाता है | सभी विज्ञान निश्चितता के लिए ही गणित का सहारा लेते हैं और पदार्थों के संबंधों को भी अंततः देखने का प्रयत्न करते हैं| जो भी विद्या की शाखा विज्ञान बनने को उन्मुख होती है वह गणित का सर्वप्रथम आश्रय अवश्य लेती है और गणित किसका आश्रय लेता है ?
गणित दर्शन की मनन प्रक्रिया या कहें पद्दति पर आधारित है | दर्शन और गणित की पद्दति लगभग एक सी होती हैं | अंतर इतना ही समझा जा सकता है कि गणित कुछ स्वयं सिद्धियाँ मानकर चलता है , जिनको प्रमाणित करने की उसे कोई आवश्यकता नहीं होती है ; जबकि दर्शन ऐसी किसी स्वयं -सिद्धि को स्वीकार नहीं करता है |गणित में हम यह मान लेते हैं कि कुछ धारणाएं स्वयं सिद्ध हैं| इसीलिए गणित ने दर्शन से अपने आपको को पृथक कर लिया|
(समाप्त)
पता नहीं किस दृष्टि से , पर खुले रूप से मुझे भी इलाहाबाद की राष्ट्रीय संगोष्ठी में आमंत्रित किया गया था| उस पर कुछ ठेलने से पहले यह अंतिम कड़ी मुझे अधिक आवश्यक लगी | आगे की चर्चा आगे |
पता नहीं किस दृष्टि से , पर खुले रूप से मुझे भी इलाहाबाद की राष्ट्रीय संगोष्ठी में आमंत्रित किया गया था| उस पर कुछ ठेलने से पहले यह अंतिम कड़ी मुझे अधिक आवश्यक लगी | आगे की चर्चा आगे |
ReplyDelete--याने अगली पोस्ट ईलाहाबाद संगोष्ठी पर?? इन्तजार रहेगा आपकी कलम का.
आगे का इंतज़ार है !
ReplyDeleteइस पोस्ट को जरा और विस्तार देने की जरूरत है। ऐसा इसलिए कि मुझे कुछ बात समझ में आई और बहुत सारी समझ में नहीं भी आई। ऐसे में एक पाठक की हैसियत से यह आग्रह तो कर ही सकता हूं कि कृपया इसे थोड़ा और विस्तार देकर समझाने की कोशिश करें। गणित में स्वयं सिद्धियां हैं और विज्ञान में नहीं है और दर्शन में नहीं है लेकिन शायद वेदों में है। स्वयं सिद्ध होने का यह अर्थ तो नहीं कि इसकी सिद्धि समझने की बुद्धि अभी हमारे में नहीं है। :)
ReplyDeleteबेकरारी से इंतजार है.
ReplyDeleteरामराम.
waise ek baat hai,
ReplyDeleteArastu, Newton, Einstine (aur bhi kai)
inko aap vagyanik kaheinge ya darshanshatri....
Quantum theory main poora darshan hi to hai...
Anishchitta ka darshan...
Physical chemistry main?
Adwetta ka darshan...
haan beshak aapne gadit ke baare main likha hai par gadit ko main vigyan ke saath jod ke dekh raha hoon...
Galat hone ki poorn sambhavna
(kaunsa comments main aapne 6 sigma moderation laga rakha hai?)
haha
Allahabad ki goshthi ke uppar aapke vichar ka intzaar....
ऐसे लेख भी आप लिखते हैं? कमाल की पराश है!
ReplyDeleteगणित में पदार्थों का नहीं बल्कि संबंधों का अध्ययन किया जाता है
गणित में हम यह मान लेते हैं कि कुछ धारणाएं स्वयं सिद्ध हैं|
सरलता से कॉनसेप्ट स्पष्ट करते वाक्य ! प्रायिकता के बारे में बताइए भाई।
_________________
तुमसे मिल कर न जाने क्यों और भी कुछ याद आता है ...
गोष्ठी में बहुत खामोश (या परेशान?) से लगे आप। रिजर्व। कुछ उदास से ? ... जो भी हो बहुत अच्छा लगा आप से मिल कर। जिसके फैन हों उससे मिलना सुखद रहा ...
पता नहीं, गणित मुझे वैसा ही डेफिनिटिव लगता है जैसे कृष्ण का गीता प्रवचन! दोनो पवित्र लगते हैं। थॉमस जूनियर की कैल्क्युलस के मैं धर्मग्रंथ सी इज्जत देता हूं।
ReplyDeleteगणित में पदार्थों का नहीं बल्कि संबंधों का अध्ययन किया जाता है
ReplyDeleteअच्छा लगा जानकर !
सिद्धार्थ जोशी जी इस पोस्ट की कसर को सही रेखांकित कर रहे हैं।
ReplyDeleteयह समझ ही नहीं आता कि यह कहने के क्या मतलब हैं, और क्या आधार हैं कि गणितीय उपागमों को आप दर्शन से इस तरह मुक्त घोषित करना चाह रहे हैं। आखिर इसके मूल में क्या मंतव्य हैं?
आखिर आप ही ने इस श्रृंखला में यह सब भी लिखा है:
...गणित दर्शन की मनन प्रक्रिया या कहें पद्दति पर आधारित है | दर्शन और गणित की पद्दति लगभग एक सी होती हैं |..
...बच्चे के साधनों को विकसित करना, ताकि वह गणितीय ढंग से सोच सके व तर्क कर सके, मान्यताओं के तार्किक परिणाम निकाल सके और अमूर्त को समझ सके। इसके अंतर्गत चीजों को करने और समस्याओं को सूत्रबद्ध करने व उनका हल ढूंढने की क्षमता का विकास करना भी आना चाहिए |...
...उनकी समस्या हल करने व विश्लेषण करने का उनका कौशल पुष्ट होगा और जीवन में वे विभिन्न तरह की समस्याओं का बेहतर रूप से सामना कर सकेंगे।...
दर्शन के मुख्य उद्देश्य भी यही हैं। इस विश्व का, समाज का तार्किक विश्लेषण ताकि इसकी समस्याओं को समझकर मानवजाति इसे और बेहतर बनाने की कोशिश कर सके।
क्रमिक विकास के दौरान, जीवन की व्यवहारिक समस्याओं के निबटारे के रूप में गणित का प्रादुर्भाव हुआ, जिसका प्राथमिक रूप गणना था। सभी विषय एक दूसरे के साथ अन्योन्याश्रित होते हैं, और इनको समग्रता में देखने का कार्य दर्शन संभालता है।
आपका असली मंतव्य जाहिर हो पाने में असमर्थ सा लग रहा है। कृपया विस्तार और सटीकता में जाएं कि इस बात से आप क्या दृष्टिकोण प्रस्तुत करना चाह रहे हैं।
अन्यथा ना लें। सहज जिज्ञासावश इस पोस्ट ने ध्यानाकर्षित किया और लिखने की प्रेरणा दी।
शुक्रिया।
समय से सहमत हूँ
ReplyDelete@ सिद्धार्थ जोशी,
ReplyDelete@ समय,
हो सकता है कि एक बड़े परिदृश्य में आपकी बात सच हो कि अभी हम सबकी बुद्धि में यह क्षमता ना हो ...? पर
इस पोस्ट में लिखे गए शब्दों पर मैं कायम हूँ अब तक | मुझे लगता है कि केवल शब्दों की मीमांसा का फर्क दिखता है |
क्या किसी पर आधारित होना और आश्रित होना एक ही बात है ? प्रभावित होना और वैसा होना क्या एक ही है ?
गणित में स्वयं सिद्धियां हैं और विज्ञान में नहीं है और दर्शन में नहीं है इसमें अपनी आज की बौद्धिक क्षमता के अनुसार मैं कायम हूँ |
शुरुवाती स्थिति में बताया कि सभी ज्ञान की शाखाएं दर्शन पर ही आधारित थी! और बाद में गणित ही ऐसी पहली ज्ञान की शाखा थी जिसने अपने आपको दर्शन से मुक्त कर लिया का अर्थ उसकी निश्चितता को लेकर जोकि दर्शन में उस हद तक नहीं है | रही बात किसी प्रक्रिया पर आधारित होने की तो इसमें कुछ भी नहीं अनुचित समझता ? कारण यह कि प्रक्रिया और पद्दति पर एकरूपता से किसी की अधीनता नहीं मानी जा सकती है |
जाहिर है गणित की जैसी निश्चितता की उम्मीद दर्शन से करना ठीक नहीं है और ना ही संभव है !! जोकि इस पोस्ट का उद्देश्य था बाकि दर्शन की व्यापकता से कोई संदेह नहीं! वैसे bertand russell का यह कथन स्वयं दर्शन की अनिश्चितता के बारे में कुछ कह रहा है .......
"Philosophy is to be studied, not for the sake of any definite answers to its questions since no definite answers can, as a rule, be known to be true, but rather for the sake of the questions themselves; because these questions enlarge our conception of what is possible, enrich our intellectual imagination and diminish the dogmatic assurance which closes the mind against speculation; but above all because, through the greatness of the universe which philosophy contemplates, the mind also is rendered great, and becomes capable of that union with the universe which constitutes its highest good. "
बाकी आप कुछ और बता सकें तो खुले दिल से स्वागत !!
अन्यथा लेने का कोई प्रश्न नहीं?
बल्कि पहली बार अति प्रसन्नता हुई!!
@ दर्पण साह "दर्शन",
यह पोस्ट गणित पर आधारित थी , और जहाँ तक मैं कह सकता हूँ कहूँगा कि गणित पर विज्ञान पूरी तरह ना सही पर काफी हद तक आश्रित है | और मैंने कभी नहीं कहा कि विज्ञान में दर्शन की पद्दतियों या प्रक्रियायों का प्रयोग नहीं होता है | वास्तव में जब ज्ञान की शाखाओं का पूर्ण विकास नहीं हुआ था तब तक सभी शाखाएं दर्शन की गोद में पले और बढे | जाहिर है कि जब अपने पैरों पर यह विषय खड़े हुए तब भी यह उन्ही प्रक्रियायों या पद्दितियों पर आधारित हैं , पर इनकी दर्शन से स्वभावगत अलगाव है| विज्ञान के विपरीत गणित में यह अलगाव सबसे अधिक है |
@ गिरिजेश राव,
अरे ना जी ! हम तो बड़े प्रसन्न थे , पर जिस उम्मीद में हम आये .....उसमे थोड़ी निराशा हुई !!
पर स्वभावगत रूप से मैं slow starter और reserve nature का हूँ!!! सो ऐसा आपको आभास हुआ होगा !!
@ज्ञानदत्त पाण्डेय | Gyandutt Pandey,
.......और हम अभी ऐसी कोशिश ही कर पाने की कोशिश कर रहे हैं!
भाई प्रवीण जी,
ReplyDeleteआप थोड़ा सा अन्यथा ले ही गये।
भई इस नाचीज़ का मतलब इस उक्ति का ही मंतव्य जानने का था, जिस पर आप कायम हैं।
चूंकि इसका मतलब कुछ ऐसा निकल रहा था, जैसा कि एक मित्र ने अलग से कहा था (यहां नहीं) कि, ‘"गणित ही थी जिसने सबसे पहले दर्शन से अपने को पूरी तरह से मुक्त कर लिया" पढ़ कर ऐसा लगा दर्शन न हुआ कोई दानव हो गया ..जिससे मुक्त होकर गणित ने चैन की साँस ली...’
अब यह तो आपका मतलब नहीं ही रहा होगा, इसी वज़ह से इस नाचीज़ ने उक्त जिज्ञासा आपकी शान में पेश करने की गुस्ताख़ी कर दी थी, ताकि वस्तुस्थिति साफ़ हो सके और आपका मूल मंतव्य अधिक स्पष्ट हो सके।
शायद अब समय का असल मंतव्य अधिक स्पष्ट हो पाया हो।
वैसे प्रसंगवश,
हमारे एक मित्र बता रहे थे एक बार कि, मूल निकालते वक्त उन्हें निश्चित करना मुश्किल नहीं हो पाता, ऐसे ही ०/० का मान सर्वदा अनिश्चित है, खुद शून्य भी अमूर्त संख्या है आदि-आदि, प्रायिकता का जिक्र तो अपने विशेष अंदाज़ में गिरिजेश कर चुके ही हैं। वह भी दिमाग़ में उलझी।
समय को गणित के बारे में अधिक ज्ञान नहीं है, इसलिए वह आपके सामने धृष्टता नहीं कर सकता, पर अपनी जिज्ञासा तो रख ही सकता है।
आपके पास गणित का समुचित ज्ञान है, और आप अधिक गहराई से इसका अध्ययन-अध्यापन कर रहे हैं, यह तो आपकी इन प्रविष्टियों से जाहिर हो ही रहा है।
आपको शुभकामनाएं।
शुक्रिया।
@समय ,
ReplyDeleteआपकी क्रमिक टिप्पणियों के लिए धन्यवाद!
'जाकि रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी'सी
इसके अलावा ज्यादा कहना उचित ना होगा !
शायद विवेचना और विमर्श का ही फर्क है ?
आपने किसी और तथाकथित मंतव्य से प्रेरित हो क्या सोचा और क्या राय बना ली उस पर मैं कुछ कहना बेमानी ही होगा| आपने भी मुक्ति का ठीक वही अर्थ लगा लिया जिसने इस ब्लॉग की किसी पोस्ट पर बाहर चर्चा की ?
शायद मुक्ति का अर्थ केवल पराधीनता से मुक्ति ही समझ पा रहे है आप ? तो ज्यादा कहना ठीक नहीं | गणित का विद्यार्थी रहा हूँ और यह मुझे आकर्षित करता रहा है सो इस पर ठेल देता हूँ , बाकि ?????
(हमारे एक मित्र बता रहे थे एक बार कि, मूल निकालते वक्त उन्हें निश्चित करना मुश्किल नहीं हो पाता, ऐसे ही ०/० का मान सर्वदा अनिश्चित है, खुद शून्य भी अमूर्त संख्या है आदि-आदि, प्रायिकता का जिक्र तो अपने विशेष अंदाज़ में गिरिजेश कर चुके ही हैं। वह भी दिमाग़ में उलझी।)
इसी पोस्ट में यह कहा जा चुका है कि " गणित स्वयं कुछ स्वयं सिद्धियाँ मान कर चलता है , जिन्हें उसे प्रमाणित करने की उसे आवश्यकता नहीं होती है "बाकि गिरिजेश जी का क्या मंतव्य था वह गिरिजेश जी ही बताएं तो और अच्छा रहेगा!
तो उन्ही स्वयं सिद्धियों के बारे में आप के प्रश्न??
शायद या कहूँ निश्चित रूप से आपने और आपके मित्र ने इस पूरी पोस्ट को दर्शन और गणित की श्रेष्ठता से जोड़ कर देखा है .........सो उस पर कुछ कहने की हमारी विषय - विशेषज्ञता नहीं है |
आपको शुभकामनाएं।
शुक्रिया।
दर्शन : संकल्पनाएं और प्रवर्ग
ReplyDelete1-दर्शन की अध्ययन विधियां - द्वंदवाद और अधिभूतवाद
2-दर्शन का बुनियादी सवाल और इसकी प्रवृत्तियां
3-आख़िर दर्शन क्या है? क्यों है?
4- दर्शन और दुनिया को देखने का नज़रिया
दर्शन पर इन बेहतरीन पोस्ट्स के बाद आपसे यही उम्मीद करता था | केवल यही निवेदन है कि विषय की श्रेष्ठता की होड़ से अलग हट कर इसे देखें | ज्ञान की शाखाओं के विकास की यह कड़ियाँ थी , जिन्हें शायद आप का दार्शनिक मन मानने को तैयार नहीं?
ऊपर के सभी गुणीजनों के विचार पढ़ लिए। अब कुछ समझ में आया लेकिन मुझे लगता है कि वह भी ठीक नहीं है। मैं बता देता हूं प्रवीण जी आप बताइएगा कि मैंने सही समझा है कि गलत...
ReplyDeleteगणित ने खुद को मुक्त कर लिया इसका मतलब हुआ कि गणित ने दर्शन की विशालता में अपने लिए एक कोना ढूंढा और कुछ स्वयंसिद्धियों को मानकर अपनी सीमाएं तय कर ली। अब जितनी गणनाएं होंगी वे उन सीमाओं के भीतर ही होंगी। शून्य से कम और अनन्त से अधिक क्यों नहीं हो सकता इस पर कोई बहस नहीं।
क्योंकि क्यों ही तो है तो दर्शन को आगे से आगे बढ़ाए रखता है। :)
???? हूं सोचता हूं शायद .....
@ सिद्धार्थ जोशी ,
ReplyDeleteकमोबेश आपकी बात से सहमत हूँ मैं ! शायद दर्शन के प्रति अनुरक्ति ने ही गणित के आगे इतने प्रश्न-चिन्ह खड़े कर रखे थे !!!!
गणित और दर्शन के बीच द्वंद से ऊपर उठकर इस पोस्ट और इसके निष्कर्षों को देखा जाना चाहिए था|