पांचवी पास विनय की कहानी के मध्यम से आकडों के आईने में पड़ताल करती दैनिक जागरण के कानपुर डेस्क से संजीव मिश्रा की प्राथमिक शिक्षा की बदहाल सूरत की तीसरी रिपोर्ट !!
रसूलाबाद में रहने वाले गिरिजा शंकर की उम्मीदें कुछ देर पहले तक आसमान छू रही थीं। बेटा विनय बेरोक-टोक पांचवीं में जो पहुँच गया। पर यह क्या, परिचित अमृत दास घर पहुँचे और आदतन विनय से पढ़ाई-लिखाई की बातें करने लगे तो कृपाशंकर का चेहरा उतर गया। विनय पहाड़ा व गुणा-भाग तो दूर, सौ तक गिनती भी नहीं सुना पाया। दोष किसका है? दो दिन पूर्व के ही मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल के इस बयान से अच्छी तरह समझा जा सकता है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली संकीर्ण विचारधारा वाली है।
पांचवीं तक पहुँचने के बावजूद गिनती न सुना पाने वाला विनय अकेला नहीं है। सूबे के ग्रामीण क्षेत्रों में पांचवीं तक पहुँचने वाले दो तिहाई बच्चों को जोड़-घटाना तक नहीं आता। यहाँ सरकारी और निजी स्कूलों का अंतर भी चौंकाने वाला है। निजी स्कूलों में कक्षा एक में पढ़ने वाले 65 फीसदी बच्चे कम से कम संख्याओं को पहचान लेते हैं, वहीं सरकारी स्कूलों में इन बच्चों की संख्या महज 36.5 फीसदी है। कक्षा एक में पढ़ने वाले बच्चों में से 90 फीसदी से अधिक सौ तक गिनती भी नहीं पहचान पाते हैं। हालात ये हैं कि कक्षा तीन तक पहुँचने के बावजूद सरकारी स्कूल के 86 फीसदी बच्चे संख्याओं को घटाना नहीं जानते। निजी स्कूलों के बच्चों में यह आंकड़ा 61 फीसदी है। यह स्थिति तब है, जब बेसिक शिक्षा विभाग के अधिकारी कहते हैं कि सूबे में प्राइमरी स्कूलों की कमी नहीं रह गयी है। दावा है कि औसतन एक किलोमीटर की परिधि में एक प्राइमरी व दो किलोमीटर की परिधि में जूनियर स्कूल खूल गये हैं। आगे पढ़ें .........
शोचनीय!
ReplyDeleteचिन्ता का विषय है।
इसमें शिक्षक तो दोषी है ही .. अभिभावकों की कम जागरूकता भी जवाबदेह है !!
ReplyDeleteयह लेख जागरुक शिक्षक बना सकता है
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तख़लीक़-ए-नज़र
कहां रहे मास्साब?!
ReplyDeleteऔर विनय की दशा से बेहतर कई पढ़े लिखे एमए बीए पास भी नहीं दिखते। चने का ठॊगा बनाने लायक हैं उनकी डिगरियां! :(
बहुत चिंताजनक है.
ReplyDeleteरामराम.
मास्साब,
ReplyDeleteये तो लग रहा है आप मेरे साथ घटित घटना सुना रहे हैं !!
जिला फ़ैजाबाद शहर के निकट का एक गांव , मैं ,छात्र- वृत्ति बान्ट रहा था ,कक्षा तीन की एक छात्रा ,अपना हस्ताक्षर नही कर पा रही ” यानी कि वह ’अपना नाम ’ नही लिख सकती थी , यहाँ तक कि वह अपने सामने लिखे नाम की नकल तक नही कर सकी !!! और वो टीचरें जो वर्षों से उसी स्कूल मे जमी थीं जिनका उत्तरदायित्व ही उसे साक्षर कराना था बगल बैठी बेशर्मी से मेरी कोशिशों को देख हंसती रहीं , उनके चेहरे पर ग्लानि की एक ” झाईं ” तक नही ही
such yahi hai.
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