संगति का प्रभाव पड़ेगा फिर बिगड़े बिना कैसे रह सकते हैं?

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टालस्टाय-आश्रम में मि. केलनबैक ने मेरे सामने एक प्रश्न प्रस्तुत किया। उनके उस प्रश्न के उठाने के पूर्व मैंने उस पर विचार नहीं किया था। आश्रम में कुछ लड़के बहुत उपद्रवी और दुष्ट थे। कई आवारा भी थे। लेकिन मि. केलनबैक का ध्यान तो इस समस्या की ओर था कि उक्त आवारा लड़कों के साथ मेरे लड़के कैसे रह सकते हैं? एक दिन उन्होंने कहा, आपकी यह नीति मुझे तनिक भी पसंद नहीं है। इन लड़कों के साथ आपके लड़कों के मिलने-जुलने का परिणाम तो एक ही हो सकता है इन आवारा लड़कों की संगति का प्रभाव उन पर (आपके लड़कों पर) पड़ेगा फिर वे बिगड़े बिना कैसे रह सकते हैं? मैं क्षण-भर सोच-विचार में पड़ा या नहीं, यह तो आज मुझे स्मरण नहीं है, लेकिन मैंने जो उत्तर दिया वह मुझे याद है। मैंने कहा था, अपने लड़कों और इन आवारा लड़कों के बीच मैं भेद कैसे कर सकता हूं। इस समय दोनों के लिए मैं एक-सा जिम्मेदार हूं। वे युवक मेरे बुलाने से आये हैं। यदि मैं उन्हें खर्च दे दूं तो वे आज ही जोहानिसबर्ग जाकर पूर्ववत् रहने लगेंगे। यहां आकर मुझ पर उन्होंने कृपा की है। यदि उनके माता-पिता भी यह स्वीकार करते हों तो इसमें कुछ भी आश्चर्य की बात नहीं हो सकती। यहां आकर वे कुछ कष्ट ही उठा रहे हैं। इसका मुझे और आपको भी अनुभव है

ऐसी स्थिति में मेरा धर्म स्पष्ट है। मुझे उन्हें यहीं रखना चाहिए। अत: मेरे लड़कों को भी उन्हीं के साथ रहना है। इसके अतिरिक्त क्या मैं आज से ही अपने लड़कों को यह भेद-भाव सिखाऊं कि वे दूसरों से ऊंचे हैं। यह विचार उनके मस्तिष्क में डालना ही उन्हें गलत मार्ग पर ले जाना होगा। इस स्थिति में रहने से वे गढ़े जायेंगे और भले-बुरे की पहचान करना स्वयं सीखेंगे। हम यह क्यों न मानें कि उनमें यदि सचमुच गुण होगा तो उल्टे उन्हीं की छूत उनके साथियों को लगेगी। जो भी हो, मुझे तो उन्हें यहीं रखना है। यदि इसमें कोई जोखिम भी हो तो उसे सहन करना हमारा धर्म है।
प्रयोग का परिणाम बुरा हुआ, यह तो नहीं कह सकते। मैं यह स्वीकार नहीं करता कि उससे मेरे लड़कों को कोई हानि उठानी पड़ी हो। लाभ होता तो मैं अवश्य देख सका होता। यदि उनमें थोड़ी-बहुत बड़प्पन की भावना रही भी होगी तो वह बिलकुल लुप्त हो गई। उन्होंने सब के साथ मिल-जुल कर रहना सीख लिया। वे आग में तप गये।
इस और इसी प्रकार के अन्य अनुभवों से मुझे यह जान पड़ा है कि यदि माता-पिता की उचित देख-रेख हो तो भले-बुरे लड़कों के साथ रहने और पढ़ने-लिखने से अच्छे लड़कों की कुछ भी हानि नहीं होती।
ऐसा कोई नियम तो है ही नहीं कि अपने लड़कों को तिजोरी में बंद रखने से वे सदाचारी रहते हैं और उससे बाहर निकलने पर वे दुराचारी हो जाते हैं। हां, यह अवश्य है कि जहां अनेक प्रकार से लड़कों के साथ लड़कियां भी पढ़ती-लिखती और साथ रहती हों वहां माता-पिता और शिक्षक की कड़ी परीक्षा होती है और उन्हें सावधान रहना पड़ता है।
.....महात्मा गाँधी

आत्मकथा, खण्ड 4, अध्याय 35, नवजीवन, 15-1-1928 हिन्दी नवजीवन, 19-1-1928


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13Comments
  1. यह विचार आज भी प्रासंगिक हैं और आने वाले कल में भी रहेंगे ,अच्छी प्रस्तुति .

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  2. गांधी के यह सद्विचार नियमित प्रस्तुत कर रहे हैं आप । बेहतर प्रस्तुति ।

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  3. बहुत सुंदर.

    रामराम.

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  4. अकाट्य सत्य।

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  5. यदि सही तरीके से बापू के विचारों का अनुसरण किया जाए तो हमारे देश और समाज की अनेक समस्‍याएं अपने आप सुलझ जाएंगी।

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  6. अति सुंदर विचार

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  7. पढकर अच्छा लगा।

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  8. सच है - दरवाजे खिड़कियां खुली रखने में यह निहित है कि सेग्रेगेशन से अच्छाई को संजो कर नहीं रखा जा सकता।
    पानी अगर अलग थलग रखा जाये तो सड़ता है। उसे तो अच्छे-बुरे के बीच बहना चाहिये।

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  9. बहुत सुंदर प्रस्तुति .

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  10. Wah praveen jee !
    gandhi jee ke vichaar kramshah padh kar achha lag raha hai,
    sundar prastuti ke liye aabhaar..............

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  11. vaise bhaiye aap hain kahan aajkal?
    kuch jaankaari karna tha.

    फतेहपुर se bahar hain kya?

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  12. बहुत सुन्दर विचार प्रेषित कर रहे हैं आप।आभार।

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