आश्रम में एक युवक बहुत शरारत करता था। वह झूठ बोलता था। किसी को गिनता नहीं था और दूसरों के साथ लड़ता-झगड़ता था। एक दिन उसने बहुत ही ऊधम मचाया। मैं घबराया। विद्यार्थियों को मैं कभी सजा नहीं देता था। इस बार मुझे बहुत क्रोध आया। मैं उसके पास गया। मैंने उसे समझाया-बुझाया, लेकिन वह किसी तरह नहीं समझा। उसने मुझे धोखा देने की भी कोशिश की। मैंने अपने पास खड़ी हुई रूल-पटरी उठायी और उसकी बाँह पर मार दी।
मारते समय मैं कांप रहा था, यह उसने देख लिया होगा। ऐसा अनुभव किसी विद्यार्थी को मेरी ओर से कभी नहीं हुआ था। विद्यार्थी रो पड़ा। उसने मुझ से क्षमा मांगी। वह इसलिए नहीं रोया कि उसे लकड़ी लगने का दु:ख हुआ। यदि वह मेरा सामना करना चाहता तो उसमें मुझसे निपट लेने की शक्ति थी। उसकी अवस्था 17 वर्ष की रही होगी। उसके शरीर की गठन मजबूत थी। मगर मेरी रूल-पटरी में उसने मेरी पीड़ा का अनुभव किया। इस घटना के बाद उसने कभी मेरा सामना नहीं किया। मगर मुझे वह रूल-पटरी मारने का पछतावा आज तक है।
इस प्रसंग के बाद मैं विद्यार्थियों को सुधारने का अधिक अच्छा ढंग सीख गया। मैं नहीं कह सकता कि यदि इस कला का प्रयोग मैंने उस अवसर पर किया होता तो कैसा परिणाम निकलता। इस प्रसंग को वह युवक तो तुरन्त भूल गया।
मारते समय मैं कांप रहा था, यह उसने देख लिया होगा। ऐसा अनुभव किसी विद्यार्थी को मेरी ओर से कभी नहीं हुआ था। विद्यार्थी रो पड़ा। उसने मुझ से क्षमा मांगी। वह इसलिए नहीं रोया कि उसे लकड़ी लगने का दु:ख हुआ। यदि वह मेरा सामना करना चाहता तो उसमें मुझसे निपट लेने की शक्ति थी। उसकी अवस्था 17 वर्ष की रही होगी। उसके शरीर की गठन मजबूत थी। मगर मेरी रूल-पटरी में उसने मेरी पीड़ा का अनुभव किया। इस घटना के बाद उसने कभी मेरा सामना नहीं किया। मगर मुझे वह रूल-पटरी मारने का पछतावा आज तक है।
मुझे डर है कि मैंने उसे पीटकर अपनी आत्मा के बजाय अपनी पशुता के दर्शन उसे कराये थे। बच्चों को मार-मारकर पढ़ाने के खिलाफ मैं हमेशा रहा हूं। एक ही अवसर मुझे याद है, जब मैंने अपने लड़कों में से एक को मारा था। यह सजा देकर मैंने ठीक किया या नहीं, इसका निर्णय मैं आज तक नहीं कर सका। इस सजा के ठीक होने में मुझे शंका है, क्योंकि उसमें क्रोध भरा हुआ था और दण्ड देने का भाव था। यदि उसमें मात्रा अपना दु:ख ही प्रकट करना होता, तो मैं उस सजा को ठीक समझता। लेकिन उसके भीतर मिली-जुली भावना थी।
इस प्रसंग के बाद मैं विद्यार्थियों को सुधारने का अधिक अच्छा ढंग सीख गया। मैं नहीं कह सकता कि यदि इस कला का प्रयोग मैंने उस अवसर पर किया होता तो कैसा परिणाम निकलता। इस प्रसंग को वह युवक तो तुरन्त भूल गया।
मैं नहीं कह सकता कि उसमें बहुत सुधार हुआ होगा, लेकिन उस प्रसंग ने विद्यार्थी के प्रति शिक्षक के धर्म के विषय में मुझे अधिक सोचने की प्रेरणा दी। इसके बाद युवकों के ऐसे ही कसूर हुए, पर मैंने दण्ड-नीति हरगिज इस्तेमाल नहीं की। इस तरह आत्मिक ज्ञान देने की कोशिश में मैं अपनी आत्मा के गुणों को अधिक समझने लगा।
......महात्मा गांधी
महात्मा गांधी की आत्मकथा, भाग 4, अध्याय 34,
नवजीवन, 8-1-1928
हिन्दी नवजीवन, 12-1-1928
नवजीवन, 8-1-1928
हिन्दी नवजीवन, 12-1-1928
सही है मार पीट कर सुधार नहीं लाया जा सकता, भयभीत जरुर किया जा सकता है.
ReplyDeleteअच्छा पाठ.
अब तो इस दण्ड नीति की कल्पना भी कहाँ की जा सकती है ।
ReplyDeleteविचारों का आभार ।
सहमत हूँ आपसे। सुधार के लिए प्रेम पूर्ण व्यवहार श्रेयष्कर है।
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
सुधार के लिए प्रेम आवश्यक है।
ReplyDeleteमास्टर साहब, आप की पोस्ट पढ़ कर बहुत अच्छा लगा और ले-आउट भी बहुत बढ़िया है। टैक्सट बॉक्स भी बढ़िया लगते हैं।
ReplyDeleteधन्यवाद।
बहुत सुंदर श्रंखला, जारी रहे.
ReplyDeleteरामराम.
आप के इस प्रसंग को पढ कर हमे ं भी अपने अध्यापक याद आ गए जो सम्भत: आप की तरह ही सोच रखते थे।आज भी उन के नाम याद हैं एक थे बी डी भट्ट और दूसरे मिश्रा जी।आप का नाम भी आपके विधार्थीयों को भुला नही होगा।
ReplyDeleteभाई आपकी साफगोई पढ़कर अच्छा लगा.
ReplyDeleteसही है - काटने की बजाय फुफकारना ज्यादा असरकारक है।
ReplyDeleteइसका तो नित्य प्रयोग होता है! :)
आज आपके ब्लॉग पर आपके विचारों और आदर्श तथा वास्तविकता के बीच एक प्राइमरी शिक्षक के उद्देश्यपूर्ण प्रयास से साक्षात्कार किया. आपके ब्लॉग पर विचरण करते हुए खुशी मिली कि कोई व्यक्ति ऐसा तो है जो अलख जगाने की कोशिश में लगा हुआ है. आपके प्रयास के लिए शुभकामना...
ReplyDeleteकभी वक्त निकालकर मेरे ब्लॉग पर भी आयें
http://kuchhkuchh.blogspot.com/
बढ़िया प्रसंग है . आभार
ReplyDeletekhoobsoorat !
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