शिक्षा का मूल है - ग्रहण करना

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जड़ निर्भयता

निर्भयता ही सब शिक्षाओं की जड़ है। यहां से शिक्षा आरंभ होती है, समाप्त नहीं। यदि तुम उसकी नींव पर अपनी शिक्षा खड़ी नहीं करोगे तो वह एक दिन गिर पड़ेगी। ...विनयपूर्वक और वीरता से, फल की चिन्ता किये बिना, तुम सत्य बोला करो जैसा कि बारह वर्ष के बालक प्रह्लाद ने किया था।



कोल्हापुर के विद्यार्थियों को दिये गये उपदेश का अंश(हिन्दी नवजीवन) 31-3-1927





अक्षर-ज्ञान


...सत्य की खोज तो अनपढ़ कर सकता है, बच्चा कर सकता है, स्त्री कर सकती है, पुरुष कर सकता है। अक्षर-ज्ञान कभी-कभी हिरण्मयपात्रा का काम करता है और सत्य का मुंह ढांप लेता है। यह कह कर मैं अक्षर-ज्ञान की निन्दा नहीं करता, लेकिन उसे उसके उचित स्थान पर रखता हूं। अनेक साधनों में यह भी एक साधन है।



प्रेमा बहिन कंटक के नाम´, 19-2-1932( नवजीवन,प्र.मं. अहमदाबाद)







सोचने की कला



मेरी दृष्टि से विचार करने की कला अच्छी शिक्षा है। यह कला हाथ आ जाय तो दूसरी सारी कलाएं उसके पीछे सुन्दर रीति से सज जायं।



यरवदा मिन्दर 28-8-1932( आश्रमवासियों से)





गुण-ग्रहण



शिक्षा का मूल अर्थ है - ग्रहण करना। तुम्हारी आत्मा में जो सबसे अच्छे गुण हैं यदि उन्हें तुमने ग्रहण कर लिया तो इसका यह अर्थ होगा कि तुमने श्रेष्ठ शिक्षा प्राप्त कर ली।



मदुरई की विद्यार्थी-सभा में दिये गये भाषण का अंश, 26-1-1934(हरिजन सेवक)

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13Comments
  1. praveen jee,
    shiksha par itnaa goodh darshan par kar achha laga....mujhe khushi hai ki ek shikshak honue ke naate aap bahut see sakaaraatmak baatein saamne rakh rahe hain...

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  2. ्गांधी जी की बार सरल शब्दों में बता दी.. बहुत खुब..

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  3. बहुत आभार-इस बार पुनः इतनी सरलता से समझाने के लिए.

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  4. विचारणीय उद्धरण हैं।

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  5. कम-से-कम प्राथमिक शिक्षा में गांधीजी के विचारो को अपनाने का प्रयास कर देखना चाहिए.

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  6. बेहतर प्रस्तुतिकरण । आभार ।

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  7. आपको अपने ब्‍लाग पर की खुशी हुई, निरंतर आते रहियेगा। शिक्षा आधारित पोस्‍ट पढ़ कर अच्‍छा लगा।

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  8. प्रवीण भाई,
    शिक्षा शब्द का मैं तो एक ही भावार्थ एवं परिभाषा समझ पाता हूँ , समझ क्या पाता हूँ केवल यही समझ पाया हूँ '' जो ज्ञान मानों-मस्तिष्क को परिमार्जित एवं परिवर्धित कर उसमें ' सर्वजन हिताय,सर्वजन सुखाय को प्राथमिकता देते हुए कम से कम बहुजन हिताय;बहुजन सुखाय की सदेच्छा एवं सद् भावना उत्पन्न कर सके, वास्तव में उसी ज्ञान को शिक्षा कहा जा सकता है " यही हमारी प्राचीन मान्यता है | इसी क्रम में कहा जा गया है ' विद्या विनयम् ददाति ', वैदिक पौराणिक आख्यान हैं की जिसे भी अपनी विद्या का ज्ञान का अंहकार हुआ या जिसने धोखे से या झूठ बोल कर विद्या पाई उसकी विद्या आवश्यकता के समय विस्मृत हो गयी , क्यों की अंहकार सदेच्छओं में नहीं आता|
    वास्तविकता तो यह है कि यदि हम अपनी शास्त्रोक्त प्राचीनतम अवधारणाओं एवं शब्द विशेष के भावार्थों अर्थात परिभाषाओं पर ही स्थिर मात्र रहें तो भी जीवन सहज और सरल हो जाता है ,क्यों कि यह भावार्थ एवं परिभाषाएँ ही किसी शब्द विशेष आत्माएँ है उनकी रूहें है| यही शिक्षा की मूल भावना है :मूल उद्देश्य है इसी लिए उपनिषदों का मूल सूत्र ही था '"तमसो मा ज्योतिर्गमय:"" |

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  9. बहुत सहज और सरल तरीका. बहुत आभार इस प्रस्तुती के लिये.

    रामराम.

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  10. आज की पोस्ट का प्रस्तुतीकरण मन मोहक है
    बधाइयां सर जी

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  11. विचार करने की कला वास्तव में सर्वाधिक उपयोगी शिक्षा है।

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  12. अच्छी बात है

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