स्कूल नाईट क्लब या शराबखाने तो नहीं?

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सब जानते हैं कि आख़िर बच्चे तो बच्चे हैं। फिर चाहे वे स्कूल में हों, घर पर या खेल के मैदान में। जहां बच्चे होंगे वहां शोरगुल तो होगा ही और उनकी शैतानियां भी। लेकिन इस ख़बर के अनुसार लगता है कि ब्रिटेन के मिडलैंड्स के एक स्कूल को बच्चों यही सब शरारतें कुछ ज्यादा ही भारी पड़ने लगी हैं। तभी तो बच्चों को बिलकुल शांत रखने के लिए स्कूल के प्रशासन ने बाउंसरों व पूर्व सैन्यकर्मियों को नियुक्त किया है।


दरअसल क्लब, पब और बियर बार में तैनात हट्टे-कट्टे सुरक्षाकर्मियों को बाउंसर कहा जाता है। जिनका काम किसी प्रकार की अराजकता व अव्यवस्था को रोकना होता है। स्कूल ने एक एजेंसी से संपर्क कर बाउंसरों की भर्ती भी कर ली है। इनका काम सिर्फ बच्चों की निगरानी करना ही नहीं होगा, बल्कि टीचर की अनुपस्थिति में बच्चों को शांत रखने की जिम्मेदारी भी इनकी होगी। उधर, नेशनल यूनियन आफ टीचर्स ने प्रशिक्षित बाउंसरों की नियुक्ति पर आपत्ति जताते हुए हर क्लास को एक प्रशिक्षित टीचर देने की मांग की।

कामडेन के गणित के शिक्षक एंड्रयू बैसले ने कहा कि यह विचार बच्चों की पढ़ाई से ज्यादा उन पर नियंत्रण रखने से जुड़ा लगता है। बाउंसर होने का मतलब है कि आप कठोर और तेज आवाज वाले हैं। मैं बाउंसर का प्रशिक्षण लेकर शिक्षक बनने के खिलाफ नहीं हूं। लेकिन यदि आप टीचर बनना चाहते हैं तो आपको बच्चों के साथ पेश आने का सलीका आना चाहिए। बैसले के अनुसार बाउंसरों को बच्चों के साथ पेश आने का सलीका नहीं सिखाया जाता। उन्होंने बताया कि इतने कम दिनों में ही एक बाउंसर को नौकरी से निकलना भी पड़ा है। उसने स्कूल के एक स्टाफ के साथ बदतमीजी की थी।


इस ख़बर पर अब क्या कहा जाए ? अभी तक तो हम अपने भारत में इन तरीकों पर उंगली उठा रहे थे ....परअब विकसित देशों में भी ऐसे हालात हैं ...... तब तो और गंभीरता से हमें सोचना पड़ेगा ?

मैं मानता हूँ कि किसी भी कार्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए व्यवस्था का होना अति आवश्यक है। कक्षा व्यवस्था शैक्षिक कार्यक्रमों की धुरी है। अत: इसी के आधार पर अध्यापक एवं बच्चों के बीच रिश्ता बनता है, एक दूसरे को आपस में समझने का अवसर मिलता है तथा पढ़ाई का भी माहौल बनता है। कहा जाता है कि - शिक्षा के क्षेत्र में जैसी कक्षा व्यवस्था होगी वैसा ही शिक्षण कार्य होगा। नये निर्धारित क्ष्य की प्राप्ति के लिए पुरानी चली रही पारम्परिक व्यवस्था से हट कर कुछ नई व्यवस्था बनानी चाहिए। पर व्यवस्था के नाम पर बाउंसरों की तैनाती ???

(समाचार साभार लिंक )

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10Comments
  1. मास्साब बुरा मत मानियेगा पर अगर हमे इसी तरह से विकसित होने की और बढते रहे तो जल्द ही भारत के स्कूलो मे भी आपको यही सब दिखाई देगा
    अभी मै कुछ दिन पहले एक अखबार मे लेख देख रहा था कि ब्रिटेन ( जिसे भारत वासी महान ग्रेट कहते है) की सरकार के मंत्रीगण देश की महिलायो से कंडोम साथ के लेकर चलने की गुजारिश कर रहे थे . उनका कहना था कि पुरुष उन महिलाओ को ज्यादा पसंद करते है जिनके पास कंडोम होता है .
    यहा हमारे देश की राजधानी दिल्ली मे कई जगह सरकारी विज्ञापन दिखाई दे रहे है जिनमे लिखा है आप दिल्ली मे है कंडोम के साथ चले
    कल टीवी मे भी एक भारतीय विज्ञापन दिखाई दिया . कभी भी कही भी कुछ भी हो सकता है आपका मूड बन सकता है हमेशा अनचाहे गर्भपात से बचने के लिये जरूर रखे जरूर कंडोम
    अब आप ही सोचे कि हम कितनी जल्द विकसित होने जा रहे है :)

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  2. अध्यापक के लिये अब शारीरिक सौष्ठव भी आवश्यक होने लगा । वाह रे, नेशनल यूनियन ऑफ टीचर्स !
    मुझे तो अपने सींकिया पहलवान गणित के मास्टर साहब आज भी सपने तक में डराते हैं । और उनकी लोकप्रियता के क्या कहने ? पूरा कस्बा उन्हे ही असली मास्टर मानता था उन दिनों ।

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  3. मास्साब बच्चो के उद्द्ण्ड होने के पिछे बहुत से कारण हो सकते है,मगर मुझे ऐसा लगता है हाल ही मे पैसे का वज़न कुछ ज्यादा बढा है।पहले पैसा दिखाने की चीज़ नही होती थी और आजकल तो बस दिखावा ही है।शायद इसी दिखावे ने बच्चो मे भी अपने पालक की ताक़त का दिखवा करने की आदत डाल दी है और हो सकता है में गलत हूं मगर पालक ही बच्चो को बढावा दे रहे हैं।हम लोग भी बहुत नटखट और उद्द्ण्ड छात्र रहे है मगर स्कूल मे गुरूजनो के पीटने के बाद मजाल है जो घर पर जाकर कभी बताया हो।गाल लाल दिखने पर पता न चल जाये छोटा भाई न बता दे,कोई दोस्त न बता दे इस बात की चिंता रहती थी घर पर शिकायत पहुंचती थी तो स्कूल से पहले घर पर सुताई-पीटाई हो जाती थी। अब मामला उल्टा है,मास्टर ज़रा सा डांट दे तो घर वाले लड़ने पहुंच जाते है,अपने बच्चे की गल्ती सुधारने की बजाय पैसे के दम पर स्कूल बदल देते हैं,ऐसा करके वे बच्चो को मास्टर से बड़ा समझने का मौका दे देते हैं। और भी बहुत से कारण है,आप मास्साब है आप मुझसे बेहतर जानते हैं।

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  4. प्रवीण जी ,
    बच्चे चाहे उद्दंड हों या बदमाश ...उन पर अंकुश लगाने के लिए बाउंसरों को बुलाना वाकई चिंता की बात है .मेरा तो यही मानना है की बच्चों को हम जितना मित्रवत व्यव्हार करके प्रभावित कर सकते हैं उतना कठोर अनुशासन से नहीं ...
    हेमंत कुमार

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  5. पहले की तुलना में आजकल के बच्‍चे तो सचमुच बहुत शैतानी करते हैं ... पर इसके कारण ढूंढना आवश्‍यक है कि वो शैतान क्‍यूं होते जा रहे हैं ... चाहे घर हो या स्‍कूल ... माहौल ऐसा तैयार होना चाहिए कि बच्‍चे कम शैतानी करें ... बच्‍चे सिर्फ प्‍यार और जरूरत हुई तो आंख दिखाकर ही संभाले जा सकते हैं ... बाउंसरों का भय दिखाकर या तो वे डरपोक हो जाएंगे या फिर गुंडे ही ... व्‍यक्तित्‍व का समुचित विकास तो कदापि नहीं हो सकता।

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  6. अरे बाप रे !
    हमारी क्लास में तो एक छड़ी होती थी और वो भी कभी इस्तेमाल नहीं होती थी. पर मजाल की हमलोग कुछ शरारत करते... ज़माना बड़ी तेजी से बदल रहा है.

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  7. अनिल पुसदकर जी से हम सहमत हैं. हमें बाउंसर का यह मतलब नहीं मालूम था. आभार.

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  8. सर जी
    हर ओर एक ही दृश्य
    अनुशासन हीनता
    ये हमारे समाज में भी जारी
    है

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  9. क्या गंभीरता से सोचने के लिए यह जरूरी है कि ऐसे हालत विकसित देशों में भी हों? अगर विकसित देशों में ऐसा नहीं होता तो भारतीय स्कूलों में बच्चों की पिटाई की जा सकती है. हम कब आजाद होंगे?

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