प्राथमिक शिक्षा
भारतीय परम्पराओं के अनुसार परिवार पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के केन्द्र होते हैं। माता बालक की सर्वप्रथम गुरू मानी जाती हैं जो बालक को शुभ संस्कारों की प्रेरणा देकर उसके व्यवहार को सामाजिकता प्रदान करती हैं। पिता भी माता के पश्चात् गुरू का कार्य करता हैं जो उसे शुभ कार्य की प्रेरणा देकर सदाचार के लिए प्रेरित करता हैं। परन्तु आधुनिक व्यस्त जीवन में भौतिकवादी विचारधाराओं के करण माता-पिता को अवसर ही नहीं मिलता कि वे अपने बालकों को स्वयं शिक्षा दें सकें और उनकी देख-रेख भली प्रकार कर सकें। यह समस्या तब से और अधिक उतपन्र हुई जब माताऍं भी व्यावसायिक जीवन व्यतीत करने लगीं। अपने बच्चों को सुरक्षित छोड़कर और आश्वासन पाकर कि उनके पीछे उनके बालक व्यवहार संशोधन की सीख पाते रहेंगे, उन्हे व्यवसाय पर जाने की चिन्ता हुई। इसलिए पूर्व-प्राथमिक विद्यालयों की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी।
जर्मनी के शिक्षाशास्त्री फ्रोबेल पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के आधुनिक जन्मदाता माने जा सकते हैं। इन्होंने 1837 ई. में ब्लेकनवर्ग नामक नगर में किण्डरगार्टन स्कूल की स्थापना की थी। धीरे-धीरे किण्डरगार्टन विद्यालय की प्रणाली पूर्व-प्राथमिक स्तर पर सभी देशों में फैल गयी। जैसे कि ऊपर कहा जा चुका हैं, भारत में पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के लिए कोई साविधिक विद्यालय नहीं थे वरन् इस उत्तरदायित्व को माता और पिता अविधिक रूप में निभाते थे। परन्तु यह परम्परा तभी तक लाभदायक थी जब माता-पिता सुशिक्षित, सुसंस्कृत एवं कर्त्तव्यपरायण थे। परन्तु जैसे-जैसे स्त्री-शिक्षा और प्रौढ़ों की शिक्षा की अवनति होती गयी, माता-पिता पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के लिए अयोग्य हो गए। इस स्थिति में साविधिक विद्यालयों कीं आवश्यकता अनुभव हुई। भारत ने जर्मनी से ही इस पूर्व प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था को ग्रहण किया। मॉण्टेसरी पध्दति भी इसी स्तर की शिक्षा-पध्दति हैं जिसे प्रत्येक देश ने स्वीकार किया हैं। भारत में इस स्तर की शिक्षा-व्यवस्था सुविकसित नहीं हैं।
जर्मनी के शिक्षाशास्त्री फ्रोबेल पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के आधुनिक जन्मदाता माने जा सकते हैं। इन्होंने 1837 ई. में ब्लेकनवर्ग नामक नगर में किण्डरगार्टन स्कूल की स्थापना की थी। धीरे-धीरे किण्डरगार्टन विद्यालय की प्रणाली पूर्व-प्राथमिक स्तर पर सभी देशों में फैल गयी। जैसे कि ऊपर कहा जा चुका हैं, भारत में पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के लिए कोई साविधिक विद्यालय नहीं थे वरन् इस उत्तरदायित्व को माता और पिता अविधिक रूप में निभाते थे। परन्तु यह परम्परा तभी तक लाभदायक थी जब माता-पिता सुशिक्षित, सुसंस्कृत एवं कर्त्तव्यपरायण थे। परन्तु जैसे-जैसे स्त्री-शिक्षा और प्रौढ़ों की शिक्षा की अवनति होती गयी, माता-पिता पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के लिए अयोग्य हो गए। इस स्थिति में साविधिक विद्यालयों कीं आवश्यकता अनुभव हुई। भारत ने जर्मनी से ही इस पूर्व प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था को ग्रहण किया। मॉण्टेसरी पध्दति भी इसी स्तर की शिक्षा-पध्दति हैं जिसे प्रत्येक देश ने स्वीकार किया हैं। भारत में इस स्तर की शिक्षा-व्यवस्था सुविकसित नहीं हैं।
पूर्व-प्राथमिक विद्यालय एवं उनकी व्यवस्था
पूर्व-प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था के लिए तीन प्रकार के विद्यालय पाए जाते हैं जिनमें बालक-बालिकाओं की आयु के प्रथम 4 अथवा 6 वर्ष व्यतीत हो जाते हैं। इस काल में बालक आचरण एवं व्यवहार-सम्बन्धी शिक्षा तो प्राप्त करते ही हैं, वे मनोवैज्ञानिक ढंग से सामान्य साक्षरता भी पाते हैं। ये तीन प्रकार के विद्यालय निम्नलिखित हैं -
(1) किण्डरगार्टन स्कूल- फ्रॉबेल के शिक्षा-दर्शन पर आधारित विद्यालय हैं जिनमें बालक न्यूनतम 4 वर्ष की आयु में प्रवेश पाता हैं। इस आयु के 4-6 वर्षों मे बालक सदाचरण, व्यवहार और साक्षरता प्राप्त करके प्रथमिक शिक्षा के लिए तैयार होता हैं। इस शिक्षा प्रणाली में खेल और उपहारों का उपयोग करके बालकों को शिक्षा दी जाती हैं।
(2) नर्सरी स्कूल- श्रीमती मार्गेट मैकमिलन की शिक्षा-विचारधारा पर आश्रित विद्यालय हैं जिनमें बालक-बालिकाओं का शारीरिक, मानसिक एवं बौध्दिक विकस किया जाता हैं। इन विद्यालयों में 2 से 4 वर्ष की आयु के बालक प्रवेश पा सकते हैं।
(3) मॉण्टेसरी विद्यालय- डॉ. मोरिया मॉण्टेसरी व्दारा स्थापित बाल-विद्यालय हैं जहॉं विविध उपकरणों की सहायता से, खेल-पध्दति से बालक स्वयं शिक्षा पाते हैं। इन विद्यालयों में 2 वर्ष से 6 वर्ष की आयु होने तक बच्चा पूर्व-प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करता हैं।
इन पूर्व-प्राथमिक विद्यालयों का उत्तरदायित्व बहुत भारी हैं। इन संस्थाओं की शिक्षा की छाप बालकों के जीवन में अन्त तक प्रभाव लाती हैं। इन विद्यालयों में पूर्ण सतर्कता, सावधानी एवं मनोंवैज्ञानिकता व्यवहार में लानी आवयश्यक हैं जिससे बालकों का शारीरिक, मानसिक एवं बौध्दक विकास सुगमता से हो सके। उपर्युक्त विद्यालयों में बालोपयोगी किसी भी शिक्षा-पध्दति को अपनाया जा सकता हैं। इन विद्यालयों में शारीरिक विकास के लिए चिकित्सा-निरीक्षण, खेल-कूद, व्यायाम, स्वच्छ शुध्द वायु, पौष्टिक आहार, शुध्द प्रकाश एवं जल की व्यवस्था करके चरित्र-निर्माण की अच्छी आदतें उतपन्न की जाती हैं। बालकों का परीवार से घनिष्ठ सम्बन्ध बना रहता हैं। बालक खेल-खेल में समाजिक जीवन के गुण प्राप्त करके व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। इन विद्यालयों में भाषा, कला, संगीत, गणित आदि का मनोवैज्ञानिक ढंग से ज्ञान दिया जाता हैं।
(1) किण्डरगार्टन स्कूल- फ्रॉबेल के शिक्षा-दर्शन पर आधारित विद्यालय हैं जिनमें बालक न्यूनतम 4 वर्ष की आयु में प्रवेश पाता हैं। इस आयु के 4-6 वर्षों मे बालक सदाचरण, व्यवहार और साक्षरता प्राप्त करके प्रथमिक शिक्षा के लिए तैयार होता हैं। इस शिक्षा प्रणाली में खेल और उपहारों का उपयोग करके बालकों को शिक्षा दी जाती हैं।
(2) नर्सरी स्कूल- श्रीमती मार्गेट मैकमिलन की शिक्षा-विचारधारा पर आश्रित विद्यालय हैं जिनमें बालक-बालिकाओं का शारीरिक, मानसिक एवं बौध्दिक विकस किया जाता हैं। इन विद्यालयों में 2 से 4 वर्ष की आयु के बालक प्रवेश पा सकते हैं।
(3) मॉण्टेसरी विद्यालय- डॉ. मोरिया मॉण्टेसरी व्दारा स्थापित बाल-विद्यालय हैं जहॉं विविध उपकरणों की सहायता से, खेल-पध्दति से बालक स्वयं शिक्षा पाते हैं। इन विद्यालयों में 2 वर्ष से 6 वर्ष की आयु होने तक बच्चा पूर्व-प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करता हैं।
इन पूर्व-प्राथमिक विद्यालयों का उत्तरदायित्व बहुत भारी हैं। इन संस्थाओं की शिक्षा की छाप बालकों के जीवन में अन्त तक प्रभाव लाती हैं। इन विद्यालयों में पूर्ण सतर्कता, सावधानी एवं मनोंवैज्ञानिकता व्यवहार में लानी आवयश्यक हैं जिससे बालकों का शारीरिक, मानसिक एवं बौध्दक विकास सुगमता से हो सके। उपर्युक्त विद्यालयों में बालोपयोगी किसी भी शिक्षा-पध्दति को अपनाया जा सकता हैं। इन विद्यालयों में शारीरिक विकास के लिए चिकित्सा-निरीक्षण, खेल-कूद, व्यायाम, स्वच्छ शुध्द वायु, पौष्टिक आहार, शुध्द प्रकाश एवं जल की व्यवस्था करके चरित्र-निर्माण की अच्छी आदतें उतपन्न की जाती हैं। बालकों का परीवार से घनिष्ठ सम्बन्ध बना रहता हैं। बालक खेल-खेल में समाजिक जीवन के गुण प्राप्त करके व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। इन विद्यालयों में भाषा, कला, संगीत, गणित आदि का मनोवैज्ञानिक ढंग से ज्ञान दिया जाता हैं।
प्राथमिक शिक्षा
भारत में यद्यपि बहुत समय से इस बात का अनुभव किया जाता रहा था कि भारतीय नागरिकों में व्याप्त निरक्षरता को समाप्त किया जाना चाहिए, परन्तु स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् तो स्वतन्त्र नागरिकों को स्वतन्त्रता की सुरक्षा और प्रगति के लिए तैयार करने के उद्देश्य से जनमत को सफल बनाने के प्रयास करने आवश्यक प्रतीत हुए। जनमत की सफलता साक्षरता पर आधारित होती हैं। अतः साक्षरता के प्रसार के लिए प्राथमिक शिक्षा की अनिवार्यता पर बल देना पड़ा। पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से प्राथमिक शिक्षा के विकास में सराहनीय प्रयत्न किये गये। प्रथम योजना के प्रारम्भ में 42% बालक-बालीकाओं के लिए प्राथमिक शिक्षा-सुविधाऍ प्राप्त थी। प्रथम पंचवर्षीय योजना में 60% तथा व्दितीय पंचवर्षीय योजना में 100% प्राथमिक शिक्षा-विकास लाने की योजना बनायी गयी। 6 वर्ष से 11 वर्ष की आयु के बालकों के लिए अनिवार्य शिक्षा-योजनाऍ लागू की गयीं और अनिवार्य शिक्षा को निःशुल्क देने का भी निर्णय किया गया। परन्तु चौथी योजना तक भी 100% प्राथमिक निःशुल्क अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था नहीं की जा सकी।