ऐसा ज्यादातर बहुत कम होता है कि किसी बच्चे से यह सवाल किया जाए कि उसे अपना स्कूल कैसा लगा ?कैसा लगता है उसका स्कूल उसे ? कैसी दुनिया है उसकी , जहाँ वह अपने रोज के 7-8 घंटे व्यतीत करता है । उस दुनिया के बारे में उसके क्या विचार हैं ? क्या सोचता है वह उसके बारे में ?
यह कहते तो सब हैं कि शिक्षा व्यवस्था के केंद्र में बच्चों को रखा जाए।शायद आज के प्रशिक्षण कार्यक्रमों में बता भी दिया जाता है की आज की शिक्षा बाल-केंद्रित है , लेकिन शायद ही कभी पाठ्यक्रम, स्कूल के प्रबंधन, पढ़ाने के तरीकों, शिक्षकों के व्यवहार आदि पर बच्चों से कोई रेगुलर फीड-बैक लिया जाता हो।
हम सब कई बार स्कूल, कॉलेज से लौटकर अपने असंख्य अनुभव, अहसास, भावनाएं... कभी खुशी, कभी गुस्सा, कभी उदासी... कड़वे-मीठे अनुभव अपने घर , माता-पिता के सामने व्यक्त जरूर करते थे । कभी-कभी कुछ अनुभव-अहसास मन के भीतर छिपाए भी रखते थे । रोजमर्रा के जीवन में, आज भी कभी-न-कभी, कहीं-न-कहीं, कुछ ऐसा घट जाता है या दिख-सुन जाता है कि उससे हम सभी को अनायास ही बचपन या किशोरावस्था का कोई - न - कोई दृश्य याद आ जाता है या कोई पुरानी बात अंतर्मन में कौंध जाती है, या धधक जाती है।
फिर शिक्षा की यादों को यूँ उधेड़ना ...मेरी अकेले की ही क्यों रहे? क्यों न वह समाज भी इसमें शामिल हो, जिसने यह व्यवस्था बनाई है, जिस समाज का हम आप अभिन्न हिस्सा हैं । वैसे किसी ने यह पड़ताल करने का हक़ मुझे नहीं दिया है ........ और आपको ।
अधिकतर ‘बड़ों की इस बड़ी दुनिया’ में इसी बात की चिंता ज्यादा रहती है कि स्कूल को बच्चा कैसा लगा, स्कूल के सिस्टम में बच्चा कितना फिट रहा, कितना सफल रहा, कितना असफल रहा । शायद ही कभी किसी बच्चे से यह प्रश्न पुछा गया हो कि वह अपने स्कूल को किस नजरिये से देखता है , वह उसके बारे में क्या सोचता है , बच्चे की नजर में वह स्कूल पास है फ़ेल .... इस दृष्टि से यह विवेचन शायद ही कभी हुआ हो ?
यह कहते तो सब हैं कि शिक्षा व्यवस्था के केंद्र में बच्चों को रखा जाए।शायद आज के प्रशिक्षण कार्यक्रमों में बता भी दिया जाता है की आज की शिक्षा बाल-केंद्रित है , लेकिन शायद ही कभी पाठ्यक्रम, स्कूल के प्रबंधन, पढ़ाने के तरीकों, शिक्षकों के व्यवहार आदि पर बच्चों से कोई रेगुलर फीड-बैक लिया जाता हो।
बच्चे की परीक्षाएं तो सभी लेते हैं, उसे पास-फेल, सफल-असफल तो सभी ठहराते ......... पर शिक्षा की, शिक्षा की व्यवस्था की परीक्षा कौन लेता है, शिक्षा व्यवस्था की सफलता-असफलता की जांच-परख कौन करता है, शिक्षा व्यवस्था के गुण-दोषों का निर्णय कौन लेता है? जाहिर है, इस प्रकार के निर्णयों में बच्चे की सफलता- असफलता के स्तर भले ही ध्यान में रखे जाते हों पर स्वयं बच्चे की इस निर्णय प्रक्रिया में कोई भूमिका नहीं होती। इस संवाद में बच्चा कहीं भी परिदृश्य में नहीं रहता है ।
हम सब कई बार स्कूल, कॉलेज से लौटकर अपने असंख्य अनुभव, अहसास, भावनाएं... कभी खुशी, कभी गुस्सा, कभी उदासी... कड़वे-मीठे अनुभव अपने घर , माता-पिता के सामने व्यक्त जरूर करते थे । कभी-कभी कुछ अनुभव-अहसास मन के भीतर छिपाए भी रखते थे । रोजमर्रा के जीवन में, आज भी कभी-न-कभी, कहीं-न-कहीं, कुछ ऐसा घट जाता है या दिख-सुन जाता है कि उससे हम सभी को अनायास ही बचपन या किशोरावस्था का कोई - न - कोई दृश्य याद आ जाता है या कोई पुरानी बात अंतर्मन में कौंध जाती है, या धधक जाती है।
जब मैं स्कूल-कॉलेज में पढ़ा करता था तो मन में कभी कभी यह विचार अवश्य आता था की कभी यह कार्य इस तरह न होकर किसी और तरीके से हो ।पर कभी भी यह उदगार व्यक्त न कर पाया ....... आख़िर कौन जिम्मेवार है इस व्यवस्था का ?? समाज की इस व्यवस्था के भीतर, शिक्षा की इस औपचारिक व्यवस्था को समाज ने ही तो बनाया है, हम सभी ने तो इसे यह रूप दिया है, इसलिए हम सभी तो इसके जिम्मेवार हैं ही ।
फिर शिक्षा की यादों को यूँ उधेड़ना ...मेरी अकेले की ही क्यों रहे? क्यों न वह समाज भी इसमें शामिल हो, जिसने यह व्यवस्था बनाई है, जिस समाज का हम आप अभिन्न हिस्सा हैं । वैसे किसी ने यह पड़ताल करने का हक़ मुझे नहीं दिया है ........ और आपको ।
बहुत सही लिखा है.
ReplyDeleteबच्चे स्कूल की पूरी बात कहाँ बताते हैं??
आज कल ,बच्चों को स्कूल अच्छा नहीं लगता-क्योंकि कड़ा अनुशासन और सिर्फ़ पढ़ाई पर ही
स्कूल का ध्यान केद्रित रहना एक वजह है.
बच्चों को पिकनिक तक न ले जाना,आपस में एक दूसरे से बात
न करने देना.अध्यापकों के प्रति डर बना रहना आदि.
ऐसे माहोल में बच्चे स्कूल के प्रति कैसा भाव रखगे???
येल्लो जी; हम आकलन करें तो हमारे बचपन के कई स्कूल डी ग्रेड के निकलेंगे। और कई मास्टर तो पियून से गये बीते!
ReplyDeleteऑफकोर्स, कई तो उत्कृष्टतम भी थे।
"फिर शिक्षा की यादों को यूँ उधेड़ना ...मेरी अकेले की ही क्यों रहे?".....
ReplyDeleteऐसा नहीं है प्रवीण भाई. हम सब हैं.
bahut bahut achchhi bat bat kahi hai apne.
ReplyDeleteबहुत सही लिखा है.
ReplyDelete"pr shikhsha ki, shikhsha ki vyavastha ki priksha kaun leta hai"
ReplyDeletebahot hi sanjeeda muddoN ko barhi bebaaki se uthaya hai aapne...
aise kai sach jo hamesha niruttar hi rahte haiN....
aur jimmevaar hm sb hi haiN.
badhaaee svikaareiN.
---MUFLIS---
जब हम आईआईटी में थे तब हर कोर्स के बाद प्रोफेसर का आंकलन करते थे. कई मापदंडो पर अंक देने होते थे. जैसे प्रोफेसर का ज्ञान, उसके पढाने का तरीका, क्लास के पहले की उसकी तैयारी, पूछे गए सवालों का जवाब उसने कैसे दिया वगैरह.
ReplyDeleteपर प्राईमरी स्तर पर ऐसा कर पाना सम्भव नहीं.
प्राईमरी तो हमने भी ठेठ पूर्वी उत्तर प्रदेश से किया, जिसमें मास्टर साहब पढाने के लिए नहीं होते :-)
Praveen ji ,
ReplyDeleteBahut hee vajib prashna uthaya hai apne .Ham sabhee bachchon se skool to chhodiye ghar par kabhee ye janane kee koshish naheen karte ki bachcha kya khana chahta hai,kab padhna,kab sona,kab khelna chahta hai..Akhir hamne use janam jo de diya hai..
kafee samvedansheel aur vichar vala mudda hai ye.
Hemant Kumar
I would say that still i didn't find many peopole especially in smaller towns and non-graded private/government scholls chose to become a teacher,I don't find them driven.I don't find a bus driver who's commited towards his job or i don't even find myself to be commited and this commitment will only come from good and responsible education.thanx.
ReplyDeleteBilkul sahi likha hai apne.
ReplyDeleteBilkul sahi likha hai apne.
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