यदि केन्द्र छह हजार माडल स्कूलों के जरिए छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के प्रति संकल्पबद्ध है तो उसे कुछ और कदम उठाने होंगे। सबसे पहले तो उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि संपूर्ण सरकारी शिक्षा व्यवस्था में गुणवत्ता का स्तर सुधरे। यह काम केंद्र व राज्य, दोनों के स्तर पर होना चाहिए। केंद्रीय सत्ता और राज्य सरकारें इससे अच्छी तरह अवगत हैं कि सरकारी विद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर ऊपर उठने का नाम नहीं ले रहा। वैसे तो प्रत्येक स्तर की सरकारी शिक्षा प्रणाली में गुणवत्ता का अभाव महसूस किया जा रहा है, लेकिन प्राथमिक शिक्षा की दशा तो सबसे अधिक दयनीय है। प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा की गुणवत्ता का जैसा रूप-स्वरूप है उसे देखते हुए यह कहना कठिन है कि सरकार शिक्षा के माध्यम से देश के सर्वागीण विकास के प्रति प्रतिबद्ध है। हमारे नीति-नियंता इससे अपरिचित नहीं हो सकते कि किसी भी राष्ट्र के विकास में उसकी शिक्षा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका होती है, लेकिन विडंबना यह है कि वे उन सुधारों से भी बचते नजर आ रहे हैं जो आवश्यक ही नहीं अपरिहार्य हो चुके हैं।
सरकार ने कंप्यूटर, विज्ञान, हाईटेक लाइब्रेरी और खेलकूद की बेहतर सुविधाओं से लैस छह हजार माडल स्कूलों को खोलने का फैसला भले कर लिया हो, लेकिन उसे मुकाम तक पहुंचाना आसान नहीं लगता। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के तमाम हाथ-पैर चलाने के बाद भी वित्त मंत्रालय ने अभी सिर्फ ढाई हजार माडल स्कूलों को ही खोलने की हरी झंडी दी है।
सूत्रों के मुताबिक मानव संसाधन विकास [HRD] मंत्रालय ने 11वीं योजना में देश के हर ब्लाक में एक माडल स्कूल खोलने की जो योजना बनाई है, व्यावहारिक दिक्कतों के चलते वित्त मंत्रालय उससे पूरी तरह सहमत नहीं है। यही वजह है कि केंद्र और राज्य सरकारों के संयुक्त सहयोग से बनने वाले ढाई हजार स्कूलों को खोलने पर तो उसने रजामंदी दे दी है, लेकिन पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप [PPP] व नवोदय विद्यालय संगठन व केंद्रीय विद्यालय संगठन के तहत खुलने वाले माडल स्कूलों पर उसने सवाल उठा दिया है। बताते हैं कि PPP के जरिए खुलने वाले माडल स्कूलों को लेकर केंद्र-राज्य व निजी क्षेत्र के बीच तौर-तरीकों को लेकर चीजें स्पष्ट नहीं हैं। ऐसे में उसे अमल में लाने में व्यावहारिक दिक्कतें आ सकती हैं। लिहाजा वित्त मंत्रालय ने उस पर सहमति नहीं जताई है।
इंग्लिश मीडियम में कक्षा-एक से इंटर तक के माडल स्कूल खोलने की इस नई योजना के तहत केंद्रीय विद्यालय संगठन [KVS] और नवोदय विद्यालय संगठन [NVS] के अधीन भी पांच-पांच सौ स्कूल खोले जाने थे। जानकारों के अनुसार वित्त मंत्रालय को इन दोनों संगठनों के जरिए एक हजार माडल स्कूलों को खोलने पर एतराज है। तर्क यह है कि NVS व KVS के स्कूलों के विस्तार की अपनी अलग योजना है। ऐसे में नई योजना को उसमें शामिल करने का औचित्य नहीं है।
इस सन्दर्भ में जानना समीचीन होगा कि केब के 2005 के मसौदे के प्रमुख पक्ष न्यूनतम गुणवत्ता, बेहतर डिलीवरी और समान शिक्षा प्रकृति से सम्बंधित थे। कार्य समूह ने अधिकांश बातों को यथावत रखने की सिफारिश की है। जैसे, अनिवार्य शिक्षा का मतलब होगा कि राज्य के लिए अनिवार्य होगा कि वह सबके लिए समतामूलक गुणवत्ता शिक्षा की व्यवस्था करे; स्कूल का न्यूनतम मानक अनिवार्य होगा - यानी कक्षा के लिए कमरे, शिक्षक -छात्र अनुपात, पुस्तकालय, खेल का मैदान, शिक्षकों की अहर्ताएं वगैरह के मानक तय करना होंगे; प्रत्येक स्कूल में एक प्रबंधन समिति होगी जिसमें तीन- चौथाई सदस्य वे पालक होंगे जिनके अपने बच्चे उस स्कूल में पढ़ते हैं; शिक्षा की विषय वस्तु व प्रक्रिया संविधान में वर्णित मूल्यों के अनुरूप होगी; मुफ्तशिक्षा का मतलब होगा कि कोई भी वित्तीय अड़चन बच्चे को स्कूल आने से वंचित नहीं करेगी; कोई भी बच्चे को स्कूल जाने से नहीं रोकेगा; पड़ोस के स्कूल की अवधारणा को क्रियान्वित किया जाएगा; स्कूल में प्रवेश के लिए बच्चे की कोई परीक्षा नहीं होगी; और इस कानून के क्रियान्वयन की निगरानी एक स्वतंत्र आयोग द्वारा की जाएगी जो सीधे संसद को रिपोर्ट देगा।सवाल है वित्तीय बोझ का, जिसके बहाने सत्तर साल पहले गांधीजी को चुप कराया गया था। गणनाओं से पता चलता है कि इस विधेयक को लागू करने का कुल खर्च सकल घरेलू उत्पाद यानी जी.डी.पी. के 6 प्रतिशत से अधिक नहीं होगा। संप्रग सरकार इतने का वायदा तो कर ही चुकी है। यदि यह असंभव या बरबादी पूर्ण खर्च लगता है, तो यह देखिए कि आजादी के 60 साल बाद 6-14 वर्ष के करीब 20 करोड़ बच्चों में से आधे तो प्रारंभिकशिक्षा के स्तर पर ही बाहर हो जाते हैं - वे या तो दाखिल ही नहीं होते या स्कूल छोड़ देते हैं। जो बच्चे टिके रहते हैं, उनमें से अधिकांश का उपलब्धि स्तर भी काफी सोचनीय है।लिहाजा वे 14 वर्ष की उम्र से काफी पहले ही उच्चशिक्षा की दौड़ से बाहर हो जाते हैं।ज्यादा विश्वविद्यालय अथवा कॉलेज उनके लिए कोई मायने नहीं रखते।
गुणवत्ता सुधार का एक आसान पैमाना हमें स्वयं सरकार के दोहरे वित्तीय मापदंडों में मिलता है। प्रारंभिकशिक्षा के स्तर पर किसी औसत सरकारी स्कूल में प्रति छात्र खर्च 2000 रुपए है। इसके विपरीत सरकार द्वारा संचालित केंद्रीय स्कूलों में यह 7000 रुपए है। गुणवत्ता में अंतर नजर आता है। पहले कदम के रूप में सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसके सारे स्कूल केंद्रीय स्कूल का स्तर हासिल करें।
उम्मीद की जानी चाहिए कि संप्रग सरकार के कार्यकाल के इस अंतिम दौर में प्रस्तावित मसौदे में ऐसे भारी फेरबदल नहीं किए जाएंगे जिनसे संसद में विधेयक को प्रस्तुत करने में और विलंब हो। यह भी उम्मीद की जानी चाहिए कि एक बार प्रस्तुत होने के बाद यह विधेयक सिलेक्ट कमेटियों में नहीं उलझेगा। यह भी जरूरी है कि हमारे सांसद दलगत राजनीति से ऊपर उठें और बच्चों के साथ सत्तर साल पहले किए गए अन्याय को दुरुस्त करें।
बहुत उम्दा आलेख-विचारणीय.
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा आलेख।
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