उत्तर प्रदेश के जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थानों के संदर्भ में यह जो तथ्य सामने आया कि उनमें वरिष्ठ प्रवक्ताओं की भारी कमी है वह यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि प्राथमिक शिक्षकों के प्रशिक्षण के मामले में किस प्रकार कामचलाऊ रवैया अपना लिया गया है। यह आश्चर्यजनक है कि राज्य के 32 जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थानों में एक भी वरिष्ठ प्रवक्ता नहीं है। अन्य जगहों पर इनकी संख्या 1-2 ही है शिक्षकों के प्रशिक्षण की असंतोषजनक स्थिति न केवल सर्वशिक्षा अभियान को कमजोर करने वाली है, बल्कि प्राथमिक शिक्षा में सुधार के राज्य सरकार के संकल्प पर भी सवाल खड़े करती है। ऐसा लगता है कि प्राथमिक शिक्षा के ढांचे में सुधार का कार्य राज्य सरकार की प्राथमिकता सूची में शामिल ही नहीं है। यदि ऐसा नहीं होता तो ऐसी कोई व्यवस्था अवश्य की जाती कि सभी डायट में शिक्षकों के प्रशिक्षण का कार्य सही तरह चलता रहे। डायट में वरिष्ठ प्रवक्ताओं के अभाव की यह स्थिति तब है जब उत्तर प्रदेश प्राथमिक शिक्षा के मामले में किस्म-किस्म की अव्यवस्थाओं के लिए ही अधिक जाना जाता है।
राज्य के लगभग आधे जिलों के डायट में वरिष्ठ प्रवक्ताओं का अभाव यह भी बताता है कि शिक्षकों को इतना सक्षम बनाने की कहीं कोई पहल नहीं हो रही जिससे वे छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान कर सकें। सवाल यह है कि यदि शिक्षकों को सही तरह प्रशिक्षित नहीं किया जाएगा तो वे विद्यालयों में छात्रों को अच्छी शिक्षा कैसे दे सकेंगे? होना तो यह चाहिए था कि प्राथमिक शिक्षा के ढांचे में सुधार की शुरुआत डायट से ही की जाती, लेकिन सामने यह आ रहा है कि इन संस्थानों में शिक्षकों की उपलब्धता के मानकों का पालन नहीं किया जा रहा। यह निराशाजनक है कि सभी जिलों के डायट में न केवल मानक से आधे पदों पर वरिष्ठ प्रवक्ताओं की नियुक्ति की गई है, बल्कि जो नियुक्त भी किए गए हैं उनमें से लगभग आधे अन्य दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं। ऐसे में यह सहज ही समझा जा सकता है कि इन संस्थानों में विशिष्ट बीटीसी पाठ्यक्रम को निर्धारित अवधि में क्यों पूरा नहीं किया जा पा रहा? राज्य सरकार को न केवल डायट में प्रवक्ताओं का अभाव दूर करना चाहिए, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि इन संस्थानों में प्रशिक्षण का कार्यक्रम समय पर और सही तरह पूरा हो।
चलते चलते बताता चलूँ कि प्रत्येक संस्थान में कम से कम १० प्राथमिक शिक्षक सम्बद्ध हैं , जोकि संस्थान के दैनिंदिन कार्यों में अपना सहयोग कर रहे हैं , वास्तव में उनके सहयोग के बगैर संस्थान का सञ्चालन सम्भव ही नहीं हैं ।
राज्य के लगभग आधे जिलों के डायट में वरिष्ठ प्रवक्ताओं का अभाव यह भी बताता है कि शिक्षकों को इतना सक्षम बनाने की कहीं कोई पहल नहीं हो रही जिससे वे छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान कर सकें। सवाल यह है कि यदि शिक्षकों को सही तरह प्रशिक्षित नहीं किया जाएगा तो वे विद्यालयों में छात्रों को अच्छी शिक्षा कैसे दे सकेंगे? होना तो यह चाहिए था कि प्राथमिक शिक्षा के ढांचे में सुधार की शुरुआत डायट से ही की जाती, लेकिन सामने यह आ रहा है कि इन संस्थानों में शिक्षकों की उपलब्धता के मानकों का पालन नहीं किया जा रहा। यह निराशाजनक है कि सभी जिलों के डायट में न केवल मानक से आधे पदों पर वरिष्ठ प्रवक्ताओं की नियुक्ति की गई है, बल्कि जो नियुक्त भी किए गए हैं उनमें से लगभग आधे अन्य दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं। ऐसे में यह सहज ही समझा जा सकता है कि इन संस्थानों में विशिष्ट बीटीसी पाठ्यक्रम को निर्धारित अवधि में क्यों पूरा नहीं किया जा पा रहा? राज्य सरकार को न केवल डायट में प्रवक्ताओं का अभाव दूर करना चाहिए, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि इन संस्थानों में प्रशिक्षण का कार्यक्रम समय पर और सही तरह पूरा हो।
चलते चलते बताता चलूँ कि प्रत्येक संस्थान में कम से कम १० प्राथमिक शिक्षक सम्बद्ध हैं , जोकि संस्थान के दैनिंदिन कार्यों में अपना सहयोग कर रहे हैं , वास्तव में उनके सहयोग के बगैर संस्थान का सञ्चालन सम्भव ही नहीं हैं ।
मास्टर साहब,
ReplyDeleteबड़ी सफाई से आपने सच्चाई गोल कर दी। वस्तुतः डायट में ‘वरिष्ठ प्रवक्ता’ का पद प्रान्तीय शिक्षा सेवा (PES) के अधिकारियों को डम्प करने का स्थान बना दिया गया है। जो अधिकारी बी.एस.ए. की कुर्सी से किसी कारणवश हटाया जाता है, वह डायट में भेज दिया जाता है। डायट ज्वाइन करने के अगले दिन से ही उसकी सारी ऊर्जा इसी जोड़-तोड़ में खर्च होती है कि कैसे इस वनवास से छुटकारा मिले और बी.एस.ए. की शक्तिशाली कुर्सी हाथ लग जाय। क्लास पढ़ाने में उनका मन नहीं लगता है।
इन दो पदों को तकनीकी रूप से बराबर का रखा गया है, लेकिन व्यवहार में इनमें वही अन्तर है जो राजा और रंक में होता है।
इसी विसंगति का परिणाम है कि अधिकारी अपने कर्तव्य का पालन पूरी निष्ठा से नहीं कर पाते। मन्त्री जी का कृपा पात्र बनने और बने रहने के लिए उन्हें बहुत कुछ ऐसा करना पड़ता है जो उनके जॉब चार्ट में नहीं लिखा होता।
डायट(DIET) की दशा तबतक नहीं सुधरेगी जब तक इसे अलग कैडर के विशेषज्ञ प्रशिक्षक सभी स्तरों पर नहीं मिलेंगे। प्रशासनिक अधिकारियों को यहाँ जबरिया ठेलकर उनसे काम लेना सम्भव नहीं है।
आपने कहावत सुनी होगी कि किसी घोड़े को जबरिया खींचकर नदी के किनारे लाया तो जा सकता है लेकिन उसे वहाँ जबरिया पानी नहीं पिलाया जा सकता... :)
सिद्धार्थ जी !
ReplyDeleteनमस्कार!
आप जो कह रहे है वह पूरा सच है , पर जो सच्चाई गोल करने की आप बात कह रहें हैं वह , भी बड़ा कड़वा सच है.
पर उस सच्चाई के बारे में उस लेख में लिखना उतना बड़ा आवश्यक नहीं मैंने समझा , क्योंकि वह एक अलग विषय-वस्तु से सम्बंधित था /
मेरे लेख का विषय केवल DIETs की दुर्दशा को दिखाना था , न की वहां कौन आता है , कौन भागने की फिराक में रहता है ......
वतुतः आपने यह जोड़ कर मेरी मदद ही की है , जिसके लिए आपको धन्यवाद्!
बड़ा अच्छा लगा की आप हिन्दी ब्लॉग्गिंग की दुनिया में उत्तर-प्रदेश की प्राथमिक शिक्षा से भली भांति परिचित दिखते हैं ;
आगे यह चर्चा में मददगार होगा /