नीरज का भविष्य : बचपन की मजबूरी से भविष्य की उड़ान?
(गरीबी के कंधों पर बचपन का बोझ और जिम्मेदारियों में उलझे नीरज की कहानी। दुकानदारी कर रहे नौ साल पहले सड़क किनारे बैठे एक बच्चे नीरज का संघर्ष केवल उसका अपना संघर्ष नहीं है, बल्कि यह हम सबके के लिए भी एक संघर्ष है, चुनौती है।)
फेसबुक मेमोरी देखते हुए नौ साल पहले की बात याद आई। गर्मियों की तपती दोपहर में, अपने जिले फतेहपुर के आंबापुर कस्बे के बाजार में मैंने सड़क किनारे एक बच्चे को देखा था। उसका नाम नीरज था। वह अपनी छोटी सी दुकान में रुमाल, पेन और छोटे खिलौने बेच रहा था। उम्र यही कोई दस साल होगी, लेकिन बातों में दुनियादारी और व्यवहार में जिम्मेदारी साफ झलक रही थी।
मुझे अच्छी तरह से याद है, मैंने उससे जबरिया बात करने के बहाने रुमाल खरीदने की कोशिश की थी।
"क्या नाम है तुम्हारा?"
"नीरज," उसने मुस्कुराते हुए कहा था।
"स्कूल जाते हो?"
"हाँ, नाम लिखा है। हफ्ते में एक-दो दिन जाता हूँ।"
उसने बड़े आराम से बताया कि सुबह दुकान खोलना, ग्राहकों से मोलभाव करना और शाम को पैसे गिनना उसका रोज़ का काम था। उसके लिए स्कूल जाना एक अनिश्चित सा ख्वाब था, जो कभी-कभी हकीकत बनता था।
"पढ़ाई क्यों नहीं करते?" मैंने पूछा था।
"पढ़ाई जरूरी है, लेकिन दुकान बंद कर दी तो घर का खर्च कैसे चलेगा?" उसकी आवाज़ में एक मजबूरी और ठहराव था।
उस दिन की बात मेरे मन में गहरी छाप छोड़ गई। नीरज की आंखों में जो चमक और समझदारी थी, वह मुझे आज भी याद है। मैंने जाते-जाते उससे कहा था, "स्कूल जाना मत छोड़ना। पढ़ाई तुम्हारे लिए वो रास्ता खोलेगी, जो ये दुकान कभी नहीं कर पाएगी। नीरज ने केवल मुस्कुरा कर मौन जवाब दिया था"
आज नौ साल बाद बाद, अचानक नीरज की याद फेसबुक ने दिलाई। क्या वह अब भी उस दुकान पर बैठा होगा? क्या वह पढ़ाई पूरी कर पाया होगा? मैंने खुद से पूछा, क्या नीरज अब एक समझदार और आत्मनिर्भर युवा बन चुका होगा या फिर उसकी जिंदगी दुकानदारी में ही उलझकर रह गई होगी?
मैंने उस समय नीरज से जो बातें की थीं, वो शायद उसकी जिंदगी में एक छोटी सी प्रेरणा बन गई होंगी? या नहीं? लेकिन सिर्फ बातें काफी नहीं होतीं। हमें ऐसे बच्चों के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। उनके माता-पिता को यह समझाना होगा कि शिक्षा न केवल उनके बच्चों का भविष्य संवार सकती है, बल्कि उनका वर्तमान भी बेहतर बना सकती है। सरकारों को भी कुछ दबाव माता पिता पर बनाना होगा, कि बच्चे प्रतिदिन स्कूल में उपस्थित रह सकें। स्कूलों में भी यह बदलाव करना होगा कि मां बाप स्कूलों को अपने बच्चे के लिए उपयोगी मान सकें।
नीरज अब जहां भी हो, उसकी सफलता मेरे लिए एक उम्मीद की किरण है। लेकिन उसके जैसे न जाने कितने बच्चे आज भी दुकानों और कामों में उलझे हुए हैं। उनके पास सपने हैं, लेकिन उन्हें पूरा करने का कोई रास्ता नहीं।
यह कहानी सिर्फ नीरज की नहीं, उन सभी बच्चों की है, जो गरीबी और जिम्मेदारियों के बीच अपने बचपन और भविष्य को गवां रहे हैं। यह हमें सोचने पर मजबूर करती है—क्या हम उनके लिए कुछ कर रहे हैं? या उन्हें उसी हालात में छोड़कर आगे बढ़ रहे हैं? यह सवाल आज भी उतना अहम है, जितना पहले।
✍️ प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर
परिचय
बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।
शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।