शैक्षिक विशेषज्ञों के अनुभवों से परे बतौर शिक्षक या शैक्षिक तंत्र में काम करने वाले व्यक्ति के अनुभवों और प्रयासों का दस्तावेजीकृत रूप सामान्यतः बहुत कम ही सामने आता है। हिन्दी में तो यह लगभग न के ही बराबर है। यह लेख ऐसे शिक्षकीय प्रयासों को प्रेरित करने की कोशिश भर है और कुछ ऐसे प्रयासों को सामने रखती है जिससे अध्यापन कर्म में संलग्न शिक्षक अपने अनुभवों को, स्व-प्रयासों से अपने दैनिक कार्यों को आत्मकथ्य अथवा डायरी / पुस्तक रूप में प्रस्तुत कर सकें?
हम सब जानते हैं कि ऐसे शिक्षकों की कमी नहीं है जो अपने विषयों के अच्छे ज्ञाता होते हैं और कक्षाओं में मन लगाकर बहुत अच्छा पढ़ाते भी हैं। शिक्षण काल में इस सन्दर्भ में बहुत बार सुख-दुख भी पाते हैं। शिक्षकों, अभिभावकों और विद्यार्थियों के संपर्क में उन्हें कई प्रकार के खट्टे-मीठे अनुभव भी होते हैं। लेकिन अनुभवों का स्वरूप ठीक से पहचानने वाले, उनकी उपयोगिता, आवश्यकता और महत्ता को समझकर दूसरों तक पहुंचाने का काम करने वाले शिक्षक बिरले ही होते हैं और दूसरों के अनुभव और ज्ञान से प्रेरणा प्राप्त कर अपने कार्य की गुणवत्ता बढ़ाने में रुचि रखने वाले शिक्षक भी बिरले ही होते हैं। लिखने वाले भी बिरले और लिखे हुए का अध्ययन कर अपना पुनर्प्रशिक्षण करने वाले भी बिरले। ऐसे लोग बहुत हैं जो एक बार कोई प्रशिक्षण पाठ्यक्रम पूरा करके अपने-आपको सर्वांग शिक्षित-प्रशिक्षित मान लेने का भ्रम पाल बैठते हैं। ऐसा भ्रम हम न पालें। हम कोशिश करें कि अपनी गुणवत्ता बढ़ाने के लिए बार-बार श्रेष्ठ शिक्षा साहित्य पर ध्यान देने वाले शिक्षकों की संख्या बढ़े। जाहिर है ऐसे शिक्षकीय प्रयासों का दस्तावेजी रूप में हम सबके सामने आना बहुत जरुरी है।
हमें यह भी कोशिश करनी चाहिए कि हमारे शिक्षक ऐसे साहित्य की खोज और उपलब्धि में रुचि लें जो नए ज्ञान से भरा हो, प्रेरक हो और रोचक भी हो। जो शिक्षक अपने अध्ययन और अनुभव में रुचि लते हैं वे शिक्षा-साहित्य रचते हैं। नया ज्ञान और नए विचार देते हैं। जो अपने अनुभवों के संप्रेषण में रुचि लेते हैं वे या तो डायरी लिखते हैं या आत्मकथा लिखते हैं या इन अनुभवों के समूह को नए शिक्षा सिद्धांतों का आधार देकर एक अच्छा वैचारिक ग्रंथ लिख देते हैं। कुछ ऐसे भी शिक्षक होते हैं जो अपने अध्यापकीय अनुभवों को कथात्मक रूप दे देते हैं। वे कथा की रचना करने में निपुण होते हैं। ऐसे शिक्षकों को इन अनुभवों को हम सबके और शिक्षा व्यवस्था के भले के लिए अपने इन अनुभवों को सामने लाना चाहिए।
माकारेंको की ‘रोड टु लाइफ’ और गिजुभाई का ‘दिवास्वप्न’ उनके अध्यापकीय जीवन के अनुभवों का कथात्मक निचोड़ है। गिजुभाई ने ‘दिवास्वप्न’ लिखी। तेत्सुको कुरोयानागी ने जापानी भाषा में ‘तोत्तोचान’ लिखी। जॉन डिवी, पेस्तोलॉजी, रूसो के अनुभव भी आपने शिक्षक-प्रशिक्षण पाठ्यक्रम की पुस्तकों में कुछ-कुछ पढ़े होंगे। जॉन होल्ट, टैगोर, अरविंद और गांधीजी को भी पढ़ा होगा। ये सब महान शिक्षक थे। जो शिक्षक शिक्षण की प्रक्रिया पर गहराई से सोचता है और अनुसंधान, डायरी, उपन्यास, आत्मकथा या किसी भी विधा द्वारा वैचारिक या कथात्मक प्रस्तुति द्वारा अपने अनुभव और विचार अन्यों तक पहुंचाता है वह हम पर बहुत बड़ा उपकार करता है। हम शिक्षक के रूप में लाभान्वित होते हैं और अभिभावक तथा शिक्षार्थी के रूप में भी लाभान्वित होते हैं। हर अच्छा और सच्चा शिक्षक अपने शिक्षण कार्य के उन्नयन के उपायों पर विचार करता है, स्वाध्याय करता है और सपने देखता है। लेकिन हम कई बार देख चुके हैं कि यह व्यवस्था उसकी इस मौलिक सूझ-बूझ की कोई कद्र नहीं करती, बल्कि आदेश देती हैं कि वह उसी ढर्रे पर चले जिस पर पहले सभी चलते आए हैं। उसे सपना देखने ही नहीं देते जो कि इस दस्तावेजीकरण की प्रक्रिया का अहम् अंग है अपने सपने को पल्लवित करना और सपने को पूरा करने का प्रयास और ऐसे प्रयासों को अनुभव रूप में लिखने की कोशिश करना।
गिजुभाई ने सपना देखा कि वे ढर्रे पर नहीं चलेंगे। शिक्षाधिकारी ने भी पहले तो शंका की किन्तु जब पूरी छूट दी और साल भर बाद अपनी आंखों से परिणाम देखा तो गदगद हो गए। अध्यापक की मौलिक सूझ-बूझ तथा प्रयोग और नव-चिन्तन में कई तरह के प्रयोग, अनुप्रयोग और अंतर्दिशा ही शैक्षिक विकास की नई दिशा और नई ऊंचाइयां जरूर पहुँचा सकेंगे। सपने देखने के लिए भी सहारा चाहिए। नया ज्ञान पाने का अवसर हो, नए प्रयोगों की छूट हो, नई-पुरानी श्रेष्ठ पुस्तकें, पत्रिकाएं तथा अनुसंधान प्रतिवेदन, शिक्षकों के अनुभव पढ़ने की रुचि हो तो शिक्षक की सक्रियता निश्चित ही एक नया रूप लेती है। गिजुभाई को मोंटेसरी तथा गांधी जी जैसे आदर्श प्रेरणा स्रोत मिले और भी जो जो अच्छा गुरु और अच्छा साहित्य उन्हें मिला उससे वे गुण ग्रहण करते गए।
जिन्होंने भी शिक्षकों के प्रशिक्षण की कल्पना की थी उनकी मंशा यही थी कि शिक्षक को गुण मिलें, ज्ञान मिले। अध्ययन, अभ्यास और प्रयोग का पृष्ठबल मिले। प्रशिक्षक की एक अलग पाठ्यचर्या बनी, अलग पाठ्यक्रमों और पाठ्यपुस्तकों का निर्माण हुआ और सेवाकाल में ही सरकारी व्यय पर सरकारी संस्थाओं में सेवारत शिक्षकों के प्रशिक्षण का प्रबंध हुआ। इन संस्थाओं से शिक्षकों को नई-नई खोजों, नई-नई विधियों और नई-नई पुस्तकों-पत्रिकाओं का संदेश लेकर अपने विद्यालय लौटे और सहयोगी शिक्षकों में उस ज्ञान को बांटा। कालांतर में निहित स्वार्थवश यह प्रणाली दूषित हो गई। अतः आवश्यकता है कि सीधे कक्षा शिक्षण में जुड़े हमारे शिक्षकों के दिन-प्रतिदिन के शैक्षिक अनुभवों को नीति निर्धारकों तक और अन्य नियामक संस्थाओं तक पहुंचाया जाए। ऐसी स्थिति में सभी शिक्षकों को अपने अनुभवों को दस्तावेजीकृत करने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
इस संबंध में दो पुस्तकें हमारे शिक्षण कार्य में नई दृष्टि और नए अनुभव देने वाली है इन्हें जब पढ़ते हैं तो ऐसे लगता है कि जैसे नई जान आ गई हो। गिजुभाई की पुस्तक ‘दिवास्वप्न’ तेत्सुको कुरोयानागी की पुस्तक ‘तोत्तोचान’। ये दोनों पुस्तकें हैं तो दोनों लेखकों के जीवन के शैक्षिक अनुभव ही किन्तु अधिकाँश रूप इनका कथात्मक है। लगता है जैसे उपन्यास हैं। दोनों पुस्तकें इतनी रोचक / इतनी विचारपूर्ण और इतनी प्रेरणाप्रद हैं कि जो पढ़ेगा उसमें नई जान आ जाएगी, नए प्राणों का संचार हो जाएगा।
इन शैक्षिक अनुभवों को जानना जितना आल्हादकारी है उतना ही लाभकारी भी है। यह हमारा दर्पण है। इसमें जो नजर आ रहा है वह हमारे ही काम का बिंब है। यह काम हम रोज करते हैं। अब हम देखें कि उन्हीं कामों को करते इन्हें क्या अनुभव हुए। काम वे ही हैं जो हम भी करते हैं लेकिन अनुभव भिन्न हैं। यह भिन्नता है अनुभवों के प्रकार की। ये अनुभव इतनी गहराई और बारीकी से देखने को किसी और आत्मकथा में नहीं मिलेंगे। एक नजरिये से देखिए तो शिक्षण कार्य को निपुणता से करने की उनकी चेष्टा और दूसरे नजरिये से देखिए तो किस दृष्टि से उन्होंने क्या-क्या काम किए हैं? शिक्षा सिद्धांतों के गहरे अध्ययन तथा समसामयिक शैक्षिक विचार सारणियों के प्रति सजगता बिना कोई अधुनातन शैक्षिक दृष्टि बन नहीं सकती। तो हमें जरुरत है इसी चेष्टा और ऐसी दृष्टि की ही।
कक्षा शिक्षण के अनुभवों के कारण इनको हर शिक्षक की क्षमता, योग्यता, अनुभव और कल्पनाशक्ति से शिक्षण विधि या उसकी शैक्षिक दृष्टि का भी पता चल जाता है। ऐसे शिक्षकों की बारीक से बारीक गतिविधि यदि इसी बहाने दस्तावेजी रूप में अंकित हो जाएतो क्या कहने? आप मानेंगे कि कक्षा शिक्षण में रूचि ले रहे शिक्षक के नजरिये से ऐसे आत्मकथ्य की हर बात मौलिक होगी क्योंकि हर अनुभव निश्छल, निष्कपट, नितांत निजी अनुभव होगा। यह लेखक की आत्मकथा से आगे बढ़कर एक विशेष कालखण्ड का शैक्षिक इतिहास भी होगा। शिक्षक ही नहीं, शिक्षा प्रशासक, शिक्षक-प्रशिक्षक, अभिभावक और प्रशिक्षणार्थी जो भी इसे पढ़ेगा, नई दृष्टि और नई प्रेरणा पाएगा।
उपरोक्त आलेख 'प्रारम्भ ~ शैक्षिक संवाद : शैक्षिक विचार एवं संवाद की पत्रिका में प्रकशित' |
bhaiya tottochan k kuch ansh humne pade hai ..suchmuch bahot achchha lagaa...pr is drishtikon se padna ab shayad ek nyaa anubhav dega jald hi ye kitaabe mere sangrah me hogi dhanyavad
ReplyDeleteप्रीती जी !
Deleteतोतोचान बहुत ही उत्तम पुस्तक है इस सन्दर्भ में कि बच्चे के नजरिये से स्कूल और अध्यापक कैसे हों? क्या उनका महत्त्व हो? किस रूप में वह स्वयं को बच्चों के सामने प्रस्तुत करें? आदि आदि !
वैसे आप तोतोचान की यह पुस्तक ऑनलाइन पीडीऍफ़ फाइल के रूप में यहाँ @ http://bit.ly/1ezy7VG से पढ़ सकती हैं!
प्रवीण जी, लेख प्रकाशन की बधाई. आपके ब्लॉग, फेसबुक लेख, आपका वेबपेज को निरंतर निरखता रहता हूँ. ये बात और है कि कभी आपसे सीधा संवाद नहीं हुआ. आपके लेख अत्यंत उच्च कोटि के और मात्र अध्यापक समाज ही नहीं वरन सभी के लिए प्रेरणास्रोत हैं.
ReplyDelete.
अशोक सिंह रघुवंशी
अशोक जी !
Deleteबहुत धन्यवाद ............. लेख प्रकशित होना तो एक बहान था .......... वापस अपने ट्रैक पर आना था! जल्दी ही कभी ना कभी सीधा सम्पर्क भी होगा ही :)
अच्छा यह लगा कि आप ऐसे शख्स निकले जो विभागीय आदेशों और शासनादेशों की सीमा को तोड़ते हुए इस शैक्षिक ब्लॉग विमर्श तक आ पहुंचे .....आभारी हूँ आपका !
किसी के भी आत्मकथ्य और लोगों को दृष्टि देते हैं फिर शिक्षक के तो बात ही क्या -प्रशंसनीय!
ReplyDeletepravin ji
ReplyDeleteachha kam hai .lge rhe .dil se bdhai .
kuchh aise hi kam mai bhi ,shaikshik samvad manch, namk ek shikshko ka manch bna kar Banda me 10 school me kr rha hu.apne anubhav likhte hai .n.c.f.2005 lgta hai skoolo me utr aya hai. jaldi milte hai .
बहुत अच्छा लेख है.
ReplyDeleteबड़ा ही विचारशील लेख, शिक्षण की प्रक्रिया को समझना बहुत ही रोचक है और उससे होकर निकलना उतना ही सन्तोष देने वाला।
ReplyDeleteप्रवीण भाई आपका ये लेख एक न्यूज़ लेटर मे प्रकाशित करना चाहता हू। आपकी क्या राय है
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