मास्टर जी छात्रों से इन दिनों होमवर्क नहीं बल्कि मध्याह्न भोजन का स्वाद पूछते हैं। मध्याह्न भोजन की निगरानी के बोझ तले दब कर शिक्षक शिक्षा की मुख्य धारा से दूर होते जा रहे हैं। विद्यालयों में दिनभर बर्तनों की खनक के बीच अभिभावकों और शिक्षकों के अरमान चकनाचूर हो रहे हैं। पढ़ाई-लिखाई सब साढ़े बाइस !! मिड डे मील के लिए भले ही ग्राम शिक्षा समिति और माता समिति का गठन किया गया हो लेकिन जिम्मेवारी परोक्ष रूप से शिक्षकों के माथे ही मढ़ दी गयी है। एक शिक्षकीय व दो शिक्षकीय विद्यालयों की वर्तमान बेसिक शिक्षकीय परिस्थिति में मध्याह्न भोजन ने शैक्षणिक व्यवस्था की कमर तोड़कर रख दी है।
कहने को तो मध्याह्न भोजन योजना सरकार की महत्वाकांक्षी योजनाओं में से एक है। लेकिन इस योजना ने प्रदेश के कमोवेश हर विद्यालय को गुणात्मक शिक्षा की मुख्यधारा से बेपटरी(शायद डिरेल) कर दिया है। ऐसे तो मिड डे मील के संचालन की पूरी जिम्मेवारी ग्राम शिक्षा समिति के अध्यक्ष व माता समिति की संयोजिका की होती है। लेकिन हाल के दिनों में मध्याह्न भोजन में गड़बड़ी के कारण विभाग का कोड़ा इस कदर हेडमास्टरों एवं सहायक अध्यापकों के साथ साथ शिक्षा मित्रों पर बरसा है कि सबने मध्याह्न भोजन को दुरुस्त करने की ठान ली है। विद्यालय के बाकी काम-काज भले ही हाशिये पर चला जाय लेकिन मध्याह्न भोजन में गड़बड़ी नहीं होनी चाहिए।
प्रधानाध्यापकों ने इसके लिए बकायदे एक शिक्षक को प्रतिनियुक्त कर दिया है। खाना बनने से लेकर बंटने तक उक्त शिक्षक अध्यापन से दूर रहते हैं। यदि देखा जाय तो एक शिक्षक को 15 से 20 हजार रुपए के बीच प्राप्त होते हैं। ऐसे में मध्याह्न भोजन की निगरानी में सरकार की मोटी रकम जा रही है। पूरे उत्तर प्रदेश में आज भी नयी नियुक्तियों के बावजूद सैकडों की संख्या में बंद और एकल शिक्षक वाले विद्यालय मौजूद हैं | ऐसे विद्यालयों में तो शिक्षा का माखौल उड़ रहा है। शिक्षक आते हैं पढ़ाने लेकिन उनका ध्यान मध्याह्न भोजन में ही लगा रहता है। अब सरकार तय करे कि क्या बच्चों का पेट भरना ही जरूरी है या बच्चे को एक कुशल नागरिक भी बनाना है। यदि सफल व शिक्षित नागरिक बनाना है तो शिक्षकों को मिड डे मील से अलग रखने की मांग को बार-बार हवा में क्यों उड़ाया जा रहा है।
इसका एक दूसरा पहलू भी है जिससे मन और कुंठित हो जाता है ...... मिड डे मील के सहारे बच्चों की सेहत से खिलवाड़ ? सबसे सस्ता और घटिया मसाले, डालें, और चिकनाई के लिए घटिया पाम आयल भी नए नवेले ब्रांडेड पैकिंग की शक्ल में दिखाई पड़ने लगे हैं|
हमारे यहाँ बोलते हैं सब धान बाइस पसेरी
ReplyDeleteप्रवीण जी ,
ReplyDeleteइस अंकुश लगे इसका कोई प्रभावशाली तरीका भी आप ही सूझा दें तो अच्छा होगा |
भाई जी, आप का ब्लॉग ई मेल सब्सक्राइब कर रखा है। चुप चाप पढ़ लेता हूँ। बड़ा संतोष मिलता है।
ReplyDeleteइस मुद्दे पर बहुत दिन से लिखने को सोच रहा था। तय कर नहीं पा रहा था कि व्यंग्य हो या सादा लेखन। अब आप लिख दिए, संतोष हुआ।
@गिरिजेश भाई !!
ReplyDeleteआप लिखो तो और बढ़िया रहेगा !!
हो सके तो व्यंग ही लिख डाले !!
मैं तो अपनी इधर उधर की दशाएं टीप दिया करता हूँ !
@Varun Kumar Jaiswal
ReplyDeleteवरुण जी !
मेरे हिसाब से यदि आप मिड डे मील चलाना चाहते हैं ...इसमें कोई बुराई नहीं है; पर इससे शिक्षकों को मुक्त कर दें |दूसरी आज की पंचायती व्यवस्था में जब लूट मची हुई हो ...तो मिड डे मील के नाम से बच्चों की सेहत से खिलवाड़ होना ठीक नहीं लगता ?
प्रशासन का नजरिया इस आंकड़े से समझ सकते हैं; मेरे जिले फतेहपुर में पिछले पांच साल में किसी प्रधान के खिलाफ कोई कार्यवाही मिड डे मील के मामले पर नहीं हुई ...जबकि शिक्षकों और हेड मास्टरों के खिलाफ लगभग 170 मामले !!
जबकि अध्यापक का दायित्व वितरण तक सीमित है !!
कुल जमा इस पोस्ट से अपना उद्देश्य एक दो मास्टरों वाले स्कूलों में इससे पड़ने वाले बोझ की ओर ध्यान दिलाना था !!!!!!!!!
सच है! प्राइमरी स्कूल के मास्टर साहब की मरन है।
ReplyDeleteजनगणना ,पशुगणना , इलेक्शन ड्यूटी , मिड डे मील इतना भार पढाते कब होंगे मास्टर जी . वैसे मैं हर मिलने वालो को सलाह देता हूँ की बच्चो को बी ई या ऍम बी ऐ करने से बेहतर है बी टी सी कराना . आखिर घर जमाई जैसी नौकरी और कौन सी होंगी .
ReplyDeleteबहुत ही सटीक अभिव्यक्ति . मिड डे का असर पढाई पर पड़ रहा है .आभार
ReplyDeleteजरूरी मुद्दा उठाया है आपने। वैसे पूरे कुंए में भांग पड़ी है
ReplyDeleteप्रवीण जी ..सही बात कही है आपने...मैनें अपने गांव के प्राथमिक विद्यालय में भी यही स्थिति देखी थी ...मगर इसका हल उन्होंने कुछ यूं निकाला कि ..कुछ गरीब बेरोजगार लोगों को अपनी निगरानी में ही ये जिम्मेदारी सौंप दी..उनके खुद के बच्चे विद्यालय में ही पढते हैं..और बदले में उन्हें भी दोपहर का भोजन करा दिया जाता है..अब स्थिति बहुत बेहतर है...
ReplyDeleteआँखें खोलता एक लेख ...बच्चों के भविष्य के प्रति सचेत रहने की जिम्मेवारी सरकार एवं व्यवस्था की है, उम्मीद है इस लेख से कुछ लोगों को समझ अवश्य आएगी !
ReplyDeleteबहुत दिन बाद आपके ब्लाग पर आ पाया, शुभकामनायें !
शायद इस परियोजना का मूल उद्देश्य ही अधिक से अधिक बच्चो को स्कूल बुलाना है ! शिक्षा की गुणवत्ता या बेहतरी का विचार तो सम्भवतः इसके अभीष्टो में ही नही !
ReplyDeleteअसल में कोई संस्था जब अपने कोर कम्पीटेंसी से अलग कुछ करने लगे तो मामला चौपट होने का ही होता है।
ReplyDeleteमास्टर का काम है पढ़ाना। तरकारी छीलना नहीं!
@dhiru singh {धीरू सिंह}
ReplyDeleteधीरू भाई सलाह तो सब को देते होंगे ? पर कोई मजबूरी में ही बना होगा वरना प्राईमरी का मास्टर कोई न बना न होगा ?
शायद घर जमाई कोई बनना ना चाहता हो?
मैं तो सक्रिय और उर्जावान साथी चाहता हूँ !!
@सतीश जी !!
ReplyDeleteआते रहा करिए ; वैसे मैं भी इधर अनियमित रहा हूँ!!
@आर्जव
ReplyDeleteसमस्या तो यही है की जब एक आम आदमी इस बात को समझ लेता है तो फिर सरकारी विशेषज्ञों को यह समस्याएं क्यों नहीं दीख पड़ती हैं?
ज्ञान जी !!
ReplyDeleteपूरे लेख का सार आपकी दो लाइना में है |
जब तक इन स्कीमों को लागू करने वाले जोकरों को ये समझ नहीं आएगा कि डिब्बाबंद खाना कहीं ज़्यादा पौष्टकि, सुरक्षित, समय की बर्बादी रोकने वाला है...मास्टर लोग यूं ही रोटियां थापेंगे व बच्चे बड़े होकर उपले.
ReplyDeleteमैं कुछ समय केरल में था - हमने अपने अध्ययन में पाया कि केरल में शिक्षा-स्तर कहीं उंचा होने का कारण वहां एक एसी व्यवस्था है जिसमें सरकार का कोई रोल नहीं है.
ReplyDeleteबच्चे स्कूल के बाद कुछ घंटो की सामूहिक ट्यूशन पढ़ते हैं. इसकी फीस 10-15 रूपये महीना थी. जिसमें होमवर्क भी करवा दिया जाता था. गांव के ही शिक्षित युवक-युवतियां तब तक पढ़ाते हैं जब तक उन्हें कोई नौकरी/काम नहीं मिल जाता. उनके जाने पर दूसरे लोग उनका स्थान ले लेते हैं. स्थान गांव के बीच, गांव की ही जमीन होता है. शैड बगैहरा भी गांव की ही संपती होती है. अलबत्ता ट्यूशन फीस पढ़ाने वाले आपस में बांटते हैं जिससे उनका छोटा-मोटा ख़र्चा निकलता रहता है.
उत्तर भारत में सरकारों को सबकुछ अपने ही कंधों पर लादे चलने की आदत त्यागनी होगी. मास्टरों को बस पढ़ाने दो, कुक व कुली न बनाआे.
मिड डे मील एक सही प्रयास है लेकिन किस कीमत पर.. अध्यापन से दूर और स्वास्थ्य दृ्ष्टी से भी कमिया...दोनो ही बाते आपने सही उज़ागर की है. मेरे ख्याल से सरकार को ये कार्य किसी सामाजिक संस्था को दे देना चाहिये.
ReplyDeleteप्रतिबिम्ब बडथ्वाल
www.merachintan.blogspot.com.
भला हो शिक्षामित्रों का। कुछ जगहों पर क्लास तो चल रही है.. वरना गौरमेंट ने तो मास्टर साब को मिड डे मील और भूकम्परोधी कक्ष बनवाने में ही बिजी रखा हुआ हैं।
ReplyDeleteमिड डे मील एक क्रांतिकारी कदम साबित होता अगर इसका क्रियान्वयन सही तरीके से किया जाता। लेकिन लगता है अभी सरकारों में ऐसी योजनाओं को लागू करने की इच्छाशक्ति का अभाव है।
ReplyDeleteसमस्त २२ टिप्पणियाँ और आपका लेख पढ़ा. आप एकमात्र व्यक्ति हैं, जो भारतवर्ष की नींव को सींचते हुए से प्रतीत होते हैं. यह नींव ही तो कल का राष्ट्र बनाएगी, इसे तो मज़बूत करना ही होगा.
ReplyDeleteये मिड-डे मील की समस्या वास्तव में बहुत ही विकराल रूप लेती जा रही है. वर्तमान सरकार को इस पर सोचना चाहिए पर वह जोड़-तोड़ की राजनीति में ही जुटी हुई है.
प्रवीण जी, आपने बिल्कुल सच लिखा है---मिड डे मील योजना, शिक्षकों को तो शिक्षाण से विमुख कर ही रही है साथ ही बच्चे भी पढ़ाई से दूर हो रहे हैं। दरअसल यह हमारे योजना बनाने वालों की योजनाओं की खामियां ही कही जायेंगी। मिड डे मील योजना शुरू होने के बाद से ही विवादों में फ़ंस गयी। अखबार और आंकड़े बता सकते हैं कि इस योजना ने हमारी प्राथमिक शिक्षा का कितना कल्याण किया है। हम लोग तो इसी विभाग की फ़िल्में बनाने के दौरान देख चुके हैं कि इस योजना का क्या हश्र हो रहा है। बहुत से विद्यालयों में तो पूरे दिन दावत का ही माहौल रहता है।बच्चे खाना तैयार होने के बाद घर से बर्तन लेने जाते हैं---और खाना खाकर वापस घर बर्तन रखने जाते हैं----फ़िर लौट कर आते ही नहीं----ऐसे में कब उन्हें पढ़ने का समय मिलेगा। हां सरकारी आंकड़ों में जरूर सब कुछ ठीक ठाक दिखाया जाता है। हां, उसी व्यवस्था का एक हिस्सा होने के बावजूद आपने इस योजना की खामियों पर लिखा---आप इसके लिये बधाई के पात्र हैं।
ReplyDeleteपूर्णतः सहमत हूँ आपसे...
ReplyDeleteयहाँ तो अधिकांशतः यह हाल है कि बच्चे खाने के लिए स्कूल जाते हैं...भोजन काल तक शिक्षक भोज्नाव्यवस्था में ,बच्चे खेल कूद में संलग्न रहते हैं और खाने के बाद बच्चे घर की राह लेते हैं और शिक्षक चैन की राह...
मुसीबत यह कि कोई बच्चा अगर घर से कुछ उल्टा सुलटा खाकर आ जाये और तबियत बिगड़ जाए तो भी शिक्षकों के प्राण गले में आ अटकते हैं कि सारा दोष इस मध्यान्ह भोजन पर न आ जाए...
बस शिक्षा के साथ मखौल है यह योजना...