नारियों का संसार केवल घर तक ही सीमित क्यों?
नारियों को सुरक्षा प्रदान करने की इसी भावना से ही शायद हम उन्हें केवल घरेलू कार्य का हिस्सेदार समझते हैं। जैसे कि खाना बनाना। ये कार्य जहां तक घर की चाहरदीवारी तक सीमित है बहुत सरल है। अत: ये लडकियों के लिये ही रखा जाये। लेकिन जैसे ही ये काम घर के बाहर चला जाता है- चाय की दुकान, होटल या रेस्टोरेंट के लिये हो जाता है। लडकियों का काम रह जाता है केवल पानी देना, बर्तन साफ करना।
जब तक कोई कार्य धनोपार्जन के लिये न हो, तब तक वो नारियों के हिस्से में ही रहता है, जब भी आर्थिक पक्ष आ जाता है तब वो पुरूषों का क्षेत्र हो जाता है।
घर के अन्य कार्य- खेती बाडी से लेकर नौकरी, व्यवसाय पुरूषों के कार्य माने जाते हैं। इसके दो ही कारण हो सकते हैं, पहला सुरक्षा, दूसरा सामर्थ्य । क्या लडकियां बाहर के काम के लिये अनुपयुक्त हैं?
दूसरी तरफ से - देखा जाये, जब आवश्यकता हो, या परिवार के पुरूषों में किसी भी कारण से अक्षमता दिखाई दे, तब शहर या गांव की सभी स्तर की नारियां सभी कार्य की जिम्मेदारी दृढता के साथ पूरा करती हैं। वहां उसकी योग्यता, कार्यक्षमता, दैहिक बल-बुद्धि, प्रति उत्पन्न गीत आदि में वे स्वाभाविक रूप से श्रेष्ठता का परिचय देती हैं। कृषक के घर में हल जोतने का काम, खेत के काम, व्यवसाय, दुकानदारी आदि सभी कार्यों को नारियां सरलतापूर्वक कर लेती हैं। इन कार्यों के बावजूद उनके पास गृहस्थी के दूसरे काम भी रहते हैं। इन सभी क्षेत्रों में सुरक्षा, दैहिक क्षमता आदि का प्रश्न ही नहीं उठता है।
बाजार में सब्जी से लेकर मछली विक्रेताओं में 50% से भी अधिक महिलायें होती हैं। ऐसे भी कुछ परिवार दिखायी देते हैं जहाँ पुरूष वर्ग सारा जीवन आलस्य में ही व्यतीत करता है। पूरे दिन गप्पबाजी करके तथा मित्रों के साथ समय बिताकर घर लौटते हैं। वे लोग बेफिक्र होकर नारियों के अर्जित धन पर जीवित रहते हैं। जिनके अर्जित पैसे से उनके नशे का खर्च चलता है, उनके ऊपर अत्याचार करने से भी वे नहीं चूकते हैं। स्त्री, कन्या पर मारपीट करना एक रोजमर्रा की घटना है किन्तु नारियों के साथ होने वाले दुव्र्यवहार पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। तथापि इन्हीं लडकियों को पढाने, पौष्टिक आहार देने आदि के मामले में पुरूष पूर्ण रूप से उदासीन रहते हैं। अत: सुरक्षा, शारीरिक अक्षमता, शालीनता आदि के बहाने नारियों को वंचित करना, यातना देना तथा दबा कर उनकी उनकी मानसिक शक्ति को दुर्बल करने का एक कौशल मात्र है।
जो कार्य पुरूषों के लिये चिन्हित एवं कठिन समझा जाता है, वो सभी कार्य महिलायें योग्यता से कर सकती हैं। `लडकियों के काम´ से क्या समझा जाता है? हर परिवार में लडकियों को इस प्रकार बनाया जाता है, जिससे वे केवल कुछ विशेष क्षेत्रों मे दक्ष हो सकें। जैसे कि खाना-पकाना, घर सजाना, घर-द्वार साफ-सुथरा रखना, कपडे धोना, बर्तन मलना, बच्चों का लालन-पालन करना, रोगियों की सेवा-सुश्रुषा करना, सभी की सेवा करना आदि कार्यों को लडकियों के कार्य समझा जाता है। बाल्यावस्था से ही लडकियों को यह एहसास दिलाया जाता है कि लडकियों के यही कार्य हैं। वे लोग भी यही समझती हैं कि घरेलू कार्य पुरूषों के लिये नहीं हैं। पुरूषों को घर के बाहर और भी अनेक महत्वपूर्ण कार्य करने पडते हैं। उनके मन में यह भी धारणा बनी हुयी है कि लडकों का स्थान उन लोगों से ऊंचा है। लडके जिस प्रकार अपना जीवन निर्वाह करते हैं,लडकियों के लिये वैसे चलना शोभा नहीं देता। केवल यही नहीं लडके पुरूष होने के नाते जिन सुविधाओं का भोग करते हैं, लडकियों के लिये वो सभी सुविधाओं की मांग करना एक दु:साहसिक कार्य है।
प्रत्येक परिवार में मॉं लडकियों को यही शिक्षा देती आयी है। जिस कारण लडकियों की यही मानसिकता एक पीढी से से दूसरी पीढी तक चली आ रही है। पुरूष प्रधान समाज ने ही नारी के कमजोर होने की भावना का विकास किया है। इससे दो लाभ हुए हैं- प्रतिष्ठा की लडाई में प्रतिद्वंदी केवल पुरूष ही हैं। दूसरी बात सुख एवं आराम के लिये एक दासी की व्यवस्था सुनिश्चित हुई। उन्नत समाज में भी अन्दर से यही मानसिकता कार्य कर रही है। इसका प्रकार भिन्न हो सकता है।
किस प्रकार नारी का आत्मविश्वास खो जाता है कि एक लडकी की जिन्दगी की शुरूआत ही होती है अवज्ञा से। परिवार में लडके का जन्म होने पर बधाई गीत से स्वागत किया जाता है। दूसरी तरफ लडकी का जन्म होने पर परिवार में शोक की लहर छा जाती है।
थोडे बडे होने के बाद लडकियों को एहसास दिलाया जाता है कि उनकी स्वयं की कोई इच्छा-अनिच्छा नहीं हो सकती, कुछ मांग नहीं सकतीं, जो मिल जाये उसी में संतुष्ट रहें। ग्रामीण क्षेत्रों में सम्पन्न परिवारों में भी मछली, मीट, दूध, अंडे आदि पौष्टिक खाद्य पदार्थ पुरूषों को ही पहले दिया जाता है। अगर कुछ बचता है तो वह लडकियों के लिये। इस व्यवहार से लडकियां भी स्वयं को उपेक्षित समझने लगती है। जिस समय उसका भाई किताब लेकर स्कूल जाता है, दोस्तों के साथ खेल-कूद करता है: उसी समय लडकियों को घर के कार्यों में हाथ बंटाना पडता है। छोटे भाई-बहनों की देख-रेख करनी होती है। घर की दहलीज पार करने का अधिकार उसका नहीं है। वो विद्यालय जायेगी कि नहीं, कितना पढेगी, किस उम्र में उसका विवाह होगा, उसके इन गंभीर विषयों को उनके अभिभावक ही तय करते हैं, वे ही उसका भविष्य निर्धारित करते हैं। उस स्थान पर उसकी इच्छा-अनिच्छा की कोई कीमत नहीं होती है। उसका एक ही कर्तव्य है- अभिभावकों के आदेशों का पालन करना, जिसके परिणामस्वरूप वो धीरे-धीरे अपना आत्म-विश्वास एवं आत्म-सम्मान खा बैठती है। अपने जीवन के छोटे-छा टे निर्णय ल ने की क्षमता भी नहीं रहती है। अपन मन की बात खुलकर कहने का साहस भी नहीं रहता है।
यही मानसिक पराधीनता जो कि बाद में मानसिक विकृति क रूप में दिखायी पडती है उसी भाव को यह समाज नारी की विशेषता के रूप में मानता है। इससे स्वयं को मुक्त करन का साहस नारी में नहीं होता है। जो भी कोई बहुत कोशिश करता है उसे अवांछित दु:साहस बताकर समाज दबा देता है।युगों-युगों से चली आ रही इस मानसिकता से उबरने की कोशिश करना ही प्रगति के पथ को प्रशस्त करेगा ।
एक महत्वपूर्ण बात कही है आपने इस प्रविष्टि में .
ReplyDeleteयद्यपि युगों युगों की बात नहीं कहा जा सकता इस मानसिकता को . पुराने समय में स्त्री वर्तमान से ज्यादा गौरवपूर्ण जीवन जिया करती थी, और सार्वजनिक जीवन में उसकी गहरी भूमिका थी.
खैर, यह एक अलग मुद्दा है, विश्वास है इस पर भी बात करेंगे ही आप.
बहुत सही बात कही है आपने. समाज में ऐसा माहौल बना पाना हम सब की जिम्मेदारी है जिसमें कोई भी कहीं भी असुरक्षित महसूस न करे!
ReplyDeleteयह अधिकार बेटी का भी है
क्या कहते थे बापू पुरूष और स्त्री की समानता के बारे मे , जान ले
माँ यानी वो महिला जो आप को अपने पैरो पर खड़े होना सिखाये
सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत
सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत
ham apne blog par nirantar "conditioning of woamn " kae virudh likh kar jagruktaa laane ki koshis kar rahae haen aur kartey rahaegae
बस मैं इतना ही कहना चाहूंगा की जब भी लड़कियों को काम करने का मौका दिया जाता है वे लड़कों से पीछे नहीं रहती.आवश्यकता है उनपर विश्वास के साथ जिम्मेदारी सौंपने का..........
ReplyDeleteन लड़कियां बाहर के काम के लिये अनुपयुक्त हैं
ReplyDeleteन लड़के ही घर के काम के लिए अनुपयुक्त हैं
पापी पेट का सवाल है
इस सवाल का जवाब
पाने के लिए
कर्म करना आवश्यक है।
अब परिस्थितियां बदल रही हैं - नारी की परिभाषा भी बदल रही है। अब उसे अबला या कमज़ोर नहीं समझा जाता। रही परिवार में नारी का या पुरुष के वर्चस्व की, तो दोनों में से कोई एक ही कमान्डर हो सकता है। भले ही आप पुरुष को यह उपाधि दें पर यह तो स्त्री की इजाज़त से ही मिल सकती है :)
ReplyDeleteवो मर्द मर्द नही जो नारी को अबला समझे, उस की कमाई पर ऎश करे, जुआ ओर शारब पीये... नारी मां बहन बेटी ओर बीबी है जो कदम कदम पर मर्द का सहारा बनती है राह दिखाती है, उसे चलना सीखाती है गर्व से समाज मै रहना सीखती है.
ReplyDeleteआप ने बहुत सुंदर लिखा.
धन्यवाद
आपने एक बेहद महत्वपूर्ण विषय पर बहुत गम्भीरता से लिखा है । पढ़कर बहुत अच्छा लगा । आशा है भविष्य में भी इस मुद्दे पर लिखते रहेंगे।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
ghar ho ya bahar nari ki ki upyogita har jagah hai ,yah ekdam saty hai .......na mano to aapapne kshetr men hi dekh len striyon ki sankhya barabar hogi ...ya fir adhik
ReplyDeletesochana ye hoga ki unhen ham kitana protsahit kar sakate hain
dhanyawaad
par harayna or rajsthan ki wah report jo NDTV par dikhayi thi wah isse bhi jayada khatarnak thi, aisa aksar rajsthan or haryana main jyada dikhai de raha hain par in sabse alag hume apni nikkami sarkar ko aagah karna hoga ki wah Lwaw banane ke baad aakar dekhe ki kya sacchai hain aisa blog to sarkar ke paas jaroor jana chaiye, bahut accha likha hain
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