भारत में मैकॉलेवादी शिक्षा को लेकर असंतोष और बहस बड़ी पुरानी है। जहाँ राष्ट्रवादी मनीषियों ने इसे त्याग कर राष्ट्रीय शिक्षा की स्थापना करने की आवश्यकता पर बल दिया, वहीं अनेक शिक्षाविदों और नीतिकारों ने उसी शिक्षा के सकारात्मक पहलुओं की आवश्यकता पहचानने को रेखांकित किया है । भारत में वर्तमान शिक्षापद्दति में सभी असंतुष्ट हैं। किंतु क्या इसका कोई सार्थक, कारगर और स्वीकार्य विकल्प है? इस का उत्तर अनिश्चिततासे ग्रस्त है।
आधुनिक विकास की बिडंबनाओं और शिक्षा की चुनौतियों पर गंभीरता से विचार करने वाले लगभग सभी लोग मानते हैं कि आज की शिक्षा सार्वजनिक कल्याण की चिंता कम करती है, निजी उन्नति की लालसा और प्रेरणा अधिक देती है। किंतु समस्या यहीं तक सीमित नहीं है। यह शिक्षा लोगों में वैयक्तिक रूप से सुखी होने की चाह तो बढ़ाती है, किंतु उसका कोई सुसंगत मार्ग दिखाने में नितांत विफल रहती है।
इसलिए सभी लोग दुविधा में हैं। वे भी जो पारंपरिक आधुनिक या अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली को चला रहे हैं, और वे भी जो इसके स्थान पर किसी विकल्प की खोज में लगे हुए हैं। साथ ही, यह दुविधा जितनी वैकल्पिक शिक्षा की तलाश करने वालों में है, उतनी ही उन स्थानीय ग्रामवासियों को भी जो वर्तमान स्कूली शिक्षा से अंसतुष्ट हैं। वे मानते हैं कि चालू स्कूली शिक्षा प्राय: लड़कों को निकम्मा, व्यर्थ का अहंकारी बना देती है। वह ‘न घर के, न घाट’ के रहते हैं। अपने समाज और तरीकों से कटते जाते हैं। वैसे लड़के खेती–बारी जैसे पारंपरिक काम में हाथ तो बँटाते नहीं, बस जेब में हाथ डाले घूमते रहते हैं। उलटे अपने गरीब, अशिक्षित माता–पिता से सीधे मुँह बात करना भी बंद कर देते हैं। यह विडंबना गाँव के लोग रोज स्वयं देखते, भोगते हैं। फ़िर भी वही ग्रामवासी उसी स्कूली शिक्षा से मुँह मोड़ नहीं पाते। उल्टे, उनके बच्चों को विशेषकर अंग्रेजी की शिक्षा अवश्य मिले, इसकी चाह रखते हैं। आधुनिकता और विकास से झुँझलाहट, फ़िरभी उसी की चाह यही द्वंद्व । अपना कर्म–मार्ग स्पष्ट समझ पाने का द्वंद्व। विशेषकर स्कूल और संयुक्त परिवारसम्बन्धी महिलाएं स्कूल चाहती भी हैं, पर उसके परिणामों से असंतुष्ट भी हैं। क्योंकि यह उनके बच्चों को पाखंडी, अशिष्ट व मिथ्याचारी बना देता है।
आज के शिक्षक का यह कहना उसी द्वंद्व का उदाहरण है कि आज हृदय से शिक्षक का काम करने वाले नहीं मिलते। युवक–युवतियाँ नौकरी के रूप में पढ़ाना स्वीकार करते हैं, वैसे प्रयत्नों से उन्हें सहानुभूति प्राय: मौखिक ही रहती है। जैसे ही उनके सामने कोई अधिक लाभकारी काम उपस्थित होता है, वे फ़ौरन उधर बढ़ जाते है। गाँव के लोगों की सेवा, उनका उत्थान जैसे आदर्श तुरंत दम तोड़ देते हैं। इस तरह वास्तव में कोई आदर्शवादी शिक्षक मिल पाना अत्यधिक कठिन होता जा रहा है।
फ़िर वैकल्पिक शिक्षा संगठन के बढ़ने से अन्य समस्याएँ भी खड़ी होती हैं। यह वही समस्याएँ हैं जो पश्चिमी तौर–तरीकों पर आधारित किसी भी संगठन के विस्तार और विकास के साथ स्वभावत: उत्पन्न होती हैं, और दुनिया में इसका कोई उपाय नहीं ढूँढा जा सका है। इस प्रकार, चाहे कितने भी अच्छे उद्देश्य से संगठन क्यों न बना हो, सपफलता और समय के साथ उसमें सत्ता, सुविधा और पद–सोपान की सामान्य समस्याएँ खड़ी हो ही जाती हैं। इससे कार्यकर्ताओं में अवांछित भाव उत्पन्न होने लगते हैं। संगठन और उसके संचालकों की आलोचनाएँ, आक्षेप सुनाई पड़ने लगते हैं। यह सब उसी आधुनिकता और विकास के आकर्षणों का ही रूप है, जिससे संघर्ष करने के लिए वैकल्पिक शिक्षा के प्रयत्न आरंभ होते हैं।
आधुनिक विकास की बिडंबनाओं और शिक्षा की चुनौतियों पर गंभीरता से विचार करने वाले लगभग सभी लोग मानते हैं कि आज की शिक्षा सार्वजनिक कल्याण की चिंता कम करती है, निजी उन्नति की लालसा और प्रेरणा अधिक देती है। किंतु समस्या यहीं तक सीमित नहीं है। यह शिक्षा लोगों में वैयक्तिक रूप से सुखी होने की चाह तो बढ़ाती है, किंतु उसका कोई सुसंगत मार्ग दिखाने में नितांत विफल रहती है।
इसलिए सभी लोग दुविधा में हैं। वे भी जो पारंपरिक आधुनिक या अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली को चला रहे हैं, और वे भी जो इसके स्थान पर किसी विकल्प की खोज में लगे हुए हैं। साथ ही, यह दुविधा जितनी वैकल्पिक शिक्षा की तलाश करने वालों में है, उतनी ही उन स्थानीय ग्रामवासियों को भी जो वर्तमान स्कूली शिक्षा से अंसतुष्ट हैं। वे मानते हैं कि चालू स्कूली शिक्षा प्राय: लड़कों को निकम्मा, व्यर्थ का अहंकारी बना देती है। वह ‘न घर के, न घाट’ के रहते हैं। अपने समाज और तरीकों से कटते जाते हैं। वैसे लड़के खेती–बारी जैसे पारंपरिक काम में हाथ तो बँटाते नहीं, बस जेब में हाथ डाले घूमते रहते हैं। उलटे अपने गरीब, अशिक्षित माता–पिता से सीधे मुँह बात करना भी बंद कर देते हैं। यह विडंबना गाँव के लोग रोज स्वयं देखते, भोगते हैं। फ़िर भी वही ग्रामवासी उसी स्कूली शिक्षा से मुँह मोड़ नहीं पाते। उल्टे, उनके बच्चों को विशेषकर अंग्रेजी की शिक्षा अवश्य मिले, इसकी चाह रखते हैं। आधुनिकता और विकास से झुँझलाहट, फ़िरभी उसी की चाह यही द्वंद्व । अपना कर्म–मार्ग स्पष्ट समझ पाने का द्वंद्व। विशेषकर स्कूल और संयुक्त परिवारसम्बन्धी महिलाएं स्कूल चाहती भी हैं, पर उसके परिणामों से असंतुष्ट भी हैं। क्योंकि यह उनके बच्चों को पाखंडी, अशिष्ट व मिथ्याचारी बना देता है।
आज के शिक्षक का यह कहना उसी द्वंद्व का उदाहरण है कि आज हृदय से शिक्षक का काम करने वाले नहीं मिलते। युवक–युवतियाँ नौकरी के रूप में पढ़ाना स्वीकार करते हैं, वैसे प्रयत्नों से उन्हें सहानुभूति प्राय: मौखिक ही रहती है। जैसे ही उनके सामने कोई अधिक लाभकारी काम उपस्थित होता है, वे फ़ौरन उधर बढ़ जाते है। गाँव के लोगों की सेवा, उनका उत्थान जैसे आदर्श तुरंत दम तोड़ देते हैं। इस तरह वास्तव में कोई आदर्शवादी शिक्षक मिल पाना अत्यधिक कठिन होता जा रहा है।
फ़िर वैकल्पिक शिक्षा संगठन के बढ़ने से अन्य समस्याएँ भी खड़ी होती हैं। यह वही समस्याएँ हैं जो पश्चिमी तौर–तरीकों पर आधारित किसी भी संगठन के विस्तार और विकास के साथ स्वभावत: उत्पन्न होती हैं, और दुनिया में इसका कोई उपाय नहीं ढूँढा जा सका है। इस प्रकार, चाहे कितने भी अच्छे उद्देश्य से संगठन क्यों न बना हो, सपफलता और समय के साथ उसमें सत्ता, सुविधा और पद–सोपान की सामान्य समस्याएँ खड़ी हो ही जाती हैं। इससे कार्यकर्ताओं में अवांछित भाव उत्पन्न होने लगते हैं। संगठन और उसके संचालकों की आलोचनाएँ, आक्षेप सुनाई पड़ने लगते हैं। यह सब उसी आधुनिकता और विकास के आकर्षणों का ही रूप है, जिससे संघर्ष करने के लिए वैकल्पिक शिक्षा के प्रयत्न आरंभ होते हैं।
वैकल्पिक शिक्षा के प्रयोग में ऐसे लोगों के सहयोग की अपेक्षा की जाती है जिन्हें भारतीय परंपरा की चेतना, आधुनिकता की समझ और सत्यनिष्ठा हो। इन तीन मूलाधारों पर वैकल्पिक शिक्षा के उपाय में देश भर से सहयोगी जुटाने के प्रयत्न सफल हो सकते हैं। किंतु समस्या यह है कि अनेक धरणाएं गड्ड–मड्ड हो गई हैं। आज स्वतंत्रता और फ्रीडम , सुख और सुविधा , जानना और समझना जैसे दो भिन्न अर्थ वाले शब्द एक बना दिए गए हैं। इन्हें अलग करना नितांत आवश्यक है। हमने अपने शब्दों की अनमोल अवधारणाओं को त्याग कर उसमें पश्चिमी शब्दों के अर्थ डाल दिए गए हैं यह एक भयंकर दुर्घटना हुई है, जिससे प्राय: हम समस्या ही नहीं समझ पाते। स्थानीय स्तर पर छोटे–छोटे प्रयोगों से ही कुछ परिणाम आने की उम्मीद की जा सकती है । क्या इस संकेत से वैकल्पिक शिक्षा की दिशामिलेगी? समय ही बताएगा।
प्रवीण भाई,
ReplyDeleteआपका प्रयास बहुत बढ़िया है.....लगातार देख रहा हूं। डाक से भी मंगवाता हूं। मेरे माता-पिता भी अध्यापक ही रहे हैं ... स्वयं पत्रकार हूं तो सब कुछ जाना पहचाना लगता है और इसीलिए इस प्रयास की सराहना करता हूं.....जै जै...
जैसे लोग आत्मविकास पर एक थ्योरी पढ़ते हैं पर अमल करने की बजाय दूसरी पर जम्प करते हैं; उसी तरह शिक्षा में प्रयोग का भी है।
ReplyDeleteबेहतर है कि शिक्षा का प्रबन्धन ठीक किया जाये, बजाय तरह तरह के प्रयोग के!
सच कहा समय ही बताएगा ..और उस समय का इन्तिज़ार आँख मुंद के करने से कुछ नही होने वाला ..इसके लिए सामूहिक प्रयास की जरुरत है
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