क्या आप शिक्षकों को गाली देते हैं?निकम्मा समझते हैं? ..तो यंहां आपका स्वागत है

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15 अगस्त गुजर गया, 5 सितम्बर आने वाला है वही 5 सितम्बर जिस दिन शिक्षक दिवस मनाया जाता है इस ब्लॉग को संचालित करते हुए कई बार ऐसा लगा की क्या वास्तव में शिक्षकों में इतनी गिरावट गई है? जैसा कि मुझे कई टिप्पणियों में यह आहट समझ में आती है तो मैंने सोचा कि क्यों इस पर एक बहस छेड़ ही दी जाए ? वैसे कोशिश यही करूंगा कि यह बहस नियमित शिक्षक दिवस से पहले ही ख़त्म हो जाए जंहा इस दौर में कई टिप्पणियां उत्साहित करती हैं ,वहीँ कुछ टिप्पणियों से यह मंत्र मिलता दिखता है कि अभी सुधार की और गुंजाईश है मैं समझता हूँ यह बहुत गंभीर चिंतन का ही विषय हो सकता है , बशर्ते इसे उसी धनात्मक रूप में लिया जाय हालाकि ब्लॉगजगत में साहित्य और राजनीतिक चिंतन से परे बहुत ज्यादा शोर मचाना सम्भव नहीं है, फिर भी प्राइमरी के मास्टर की यह कोशिश नकार-खाने में तूती की आवाज हो ,इतनी ख्वाहिश मेरी भी है आशा है की इन कड़ियों में आप भी स्वस्थ तरीके से आगे बढ़ने में मदद करेंगे
पुराने आदर्शो ,नई जरूरतों के मध्य वास्तव में कितना संतुलन बनाना आवश्यक है यही इन कड़ियों का वैचारिकशिक्षकों के आधार होगा निश्चित रूप से यह बहस आपकी विस्तृत टिप्पणियों के साथ सा ही आगे बढेगी , अतः पक्ष -विपक्ष जिसमे भी लिखें थोड़ा विस्तार से लिखें शिक्षकों के पक्ष और विपक्ष में जो भी विस्तृत व अध्ययन परक हो ,यह बेहतर बहस का अच्छा प्लेटफोर्म (मंच) हो सकेगा । चलते -चलते आपके विचार के लिए एक कड़ी छोडे जा रहा हूँ ।
सरकारी शिक्षा के विषय में दो लाइन किसी शायर ने लिखी थी .........
तिफ्ल में बू आए क्या ,माँ-बाप के ऐतबार की,
दूध तो डिब्बे का है , तालीम है सरकार की ।।

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16Comments
  1. निश्चित रूप से शिक्षा व्यवस्था और दुरुस्त होने चाहिए ...ये सीधे सीधे देश के विकास से जुडी हुई होती है , लेकिन जहाँ तक निकम्मे पन की बात है कोई भी वयक्ति निकम्मा बनना नहीं चाहता है कुछ हालात ऐसे होते है जो इंसान को निकम्मा बना देते है ...

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  2. मा्स्साब पढ़ाना चाहते हैं और बच्चे पढ़ना चाहते हैं तो फिर गड़बड़ आखिर कहां है। व्यवस्था में, पढ़ाई से बच्चों को स्कूल बुलाने और रोकने की कोशिश कोई सरकार नहीं करती। कोई उन्हें छात्रवृति देना चाहती है कोई दोपहर का खान, कोई मुफ्त में किताबें और कोई मुफ्त में गणवेश। बदले में उनको जितनी पढ़ाई नहीं मिलती उससे कहीं ज़्यादा उनको चाकरी करनी पड़ती है। सरकारी जलसों में धूप में तपस्या, मंत्री जी आये हैं तो स्वागत में घंटों खड़े रहने की तपस्या, कलेक्टर साब आ रहे हैं तो पढ़ाई लिखाई छोड़क उनके इस्तकबाल के लिये झंडिया बनाने की तपस्या। बच्चों से उतना तो ना लो जितना उनको दिया ही नहीं है।
    पप्पू पढ़ाकू, पांचवी पास

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  3. न तो में शिक्षकों को गाली देता हूँ और न ही उन्हें निकम्मा मानता हूँ. पर यह मानता हूँ कि आज कल शिक्षण के छेत्र में ऐसे बहुत लोग आ गए हैं जो इस के योग्य नहीं हैं. कहीं और नौकरी नहीं मिली तो शिक्षक बन गए. काफ़ी फायदे की और आराम दायक नौकरी है यह. मां-बाप इन के भरोसे कर देते हैं अपने बच्चों को कि यह उन्हें पढ़ा कर अच्छा इंसान बनायेंगे, पर बहुत से शिक्षक उन बच्चों का ही शोषण करना शुरू कर देते हैं. रोज अखबारों में ऐसी खबरें आती हैं. शिक्षक और छात्र का सम्बन्ध अब कलंकित हो गया है.

    बस अभी तो इतना ही.

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  4. क्यों गुरु की गरिमा इतनी धूमिल हुई? जब से हमारे देश में उपभोक्तावाद की अपसंस्कृति का बोलबाला हुआ, शिक्षकों की नैतिकता में तेजी से गिरावट आयी है। बिहार-झारखंड में तो प्राईमरी शिक्षकों को दस से बीस हजार रुपये मासिक मिलते हैं,उस पर घर बैठे नौकरी। अधिकतर विज्ञान-शिक्षक या तो प्राईवेट ट्युशन करते है,या फिर साईड बिजीनेस। गाँव में मुखियागिरि या नेतागिरी भी करने से यहाँ बाज नहीं आते। मध्यान्ह भोजन से उनके परिवार का खाना-दाना भी चलता है। मै तीन साल पहले जिला शिक्षा अधीक्षक के पद पर था गुमला जिले में। वहाँ मेरे पास एक टीचर आये और आरजू करने लगे कि ‘मुझे कोई आरोप लगाकर सस्पेंड कर दें क्योंकि वे स्कूल करते हुए अपनी राशन दुकान ठीक से नहीं चला पाते थे।’ मैने उस शिक्षक का डेपुटेशन बिल्कुल शहर के विद्यालय में कर दिया ताकि उन पर खास नज़र पब्लिक भी रख सके। इसलिए यह बडी़ सोचनीय स्थिति है। सरकार भी शिक्षकों से इतने तरह के और लंबी-लंबी अवधि तक शिक्षकेतर कार्य लेती है कि पूरा सिलेबस एक सत्र में तय करा पाना उनके लिये uphill task हो जाता है। अत: इस पर शिक्षक, समाज और सरकार में बैठे बुद्धिजिवियों को भी ध्यान देना होगा। लेख के लिये आभार और धन्यवाद।

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  5. बेसिक शिक्षा की इससे भी खराब हालत यह है कि यहां बच्चा पढ़ने नही छात्रवृत्ति ही लेन आता है। वह परीक्षा के दिन ही स्कूल आता है। बाकी दिन कहीं मजदरी या काम करता है। कापी पर नाम लिखकर भी वह शिक्षक पर अहसान करता है। क्योंकि उत्तर पुस्तकि में वह कुछ लिखे या न लिखे विभाग के आदेशानुसार शिक्षक को उसे उत्तीर्ण करना अनिवार्य है। फुल कर देने के हालत मे शिक्षक को छा़त्र को गर्मियों के अवकाश में उसे पढाना होगा आर स्कूल खुलने पर परीक्षा लेकर उत्तीर्ण करना हागा । अब बताआे कौन शिक्षक अपने अवकाश खोना चाहेगा सो केार काफी छोड़कर आने वाले को पास कर अपना पीछा छुडा लेगा।

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  6. पहले मास्साब का पेट तो भरो देश में बेसिक शिक्षा का जो हाल है वो किसी से छिपा नहीं है। इसके लिये ज़िम्मेदार ठहराने की बात हो तो लोग शिक्षकों से लेकर नेताओं तक को गालियां देते नहीं थकते हैं लेकिन असली कारण की तह तक कोई नहीं जाना चाहता है। जिन शिक्षकों पर बेसिक शिक्षा का भार है उनको ६-७ माह तक वेतन नहीं मिलता है कोई जानता है इस बात को। क्या उनका परिवार नहीं है क्या उनके बीबी बच्चे नहीं हैं, क्या वो रोटी नहीं खाते हैं, क्या वो कपड़े नहीं पहनते हैं। क्या उनको मकान का किराया नहीं देना होता है. क्या उनके स्कूटर में पेट्रोल नहीं पड़ता है। ऐसी हालत में अगर उनसे पढ़ाने में कोई भूल हो जाये या कमी रह जाये तो हर तरह की मलामत। स्कूल इंस्पेक्टर से लेकर बेसिक शिक्षा अधिकारी तक बेचारे मास्टर की खाल खींचने को तैयार रहते हैं। लेकिन बेसिक शिक्षा अधिकारी के ही बगल में कुर्सी डालकर बैठने वाले उस लेखाधिकारी से कोई एक शब्द भी नहीं पूछता जो शिक्षकों के वेतन के बिल छह-छह महीने तक बिना किसी कारण के अटकाकर रखता है। देश का हाल मुझे नहीं पता लेकिन उत्तर प्रदेश और खासतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ, अलीगढ़, बुलंदशहर, आगरा और मथुरा जैसी जगहों पर तो उस शिक्षक का यहीं हाल है जिसे राष्ट्रनिर्माता कहा जाता है। किसी से शिकायत वो कर नहीं सकता क्योंकि फिर नौकरी खतरे में पड़ जायेगी। शिक्षा विभाग का अदना सा बाबू उस शिक्षक या हेडमास्टर को चाहे जब सफाई लेने के लिये दफ्तर बुला लेता है जिसके पढ़ाये हुए कई बच्चे ऊंचे पदों पर बैठे हैं। बुलंदशहर के कई स्कूलों का हाल मुझे पता है जहां शिक्षकों को महीनों वेतन नहीं मिलता है। कुछ स्कूलों में पिछले साल का बोनस अब तक नहीं मिला है जबकि कुछ में मिल चुका है। आखिर इसका क्या पैमाना है। बेसिक शिक्षा से जुड़े अफसरों की निरंकुशता के अलावा और क्या पैमाना हो सकता है इसका। ऐरियर का भी कोई हिसाब किताब नहीं है। शायद लेखाधिकारी महोदय के रहमोकरम पर इस देश की शिक्षा व्यवस्था चल रही है। जो बेसिक शिक्षा इस देश के निर्माताओं की नींव रखती है वो सरकार और अफसरों की प्राथमिकता सूची में सबसे नीचे हैं शायद। आखिर ऐसा कब तक चलेगा, दरमियाने अफसरों और छुठभैये बाबुओं के चंगुल से कब मुक्त होगी विध्या के उपासकों की बिरादरी।

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  7. कोई छोटा-बड़ा सरकारी काम, अभियान शिक्षकों के बगैर पूरा नहीं होता, लेकिन बदलें में थोड़ा-बहुत पैसा मिलना तो दूर उनके काम को कोई काम भी नहीं मानता। सर्दी, गर्मी, बारिश की चिंता किये बगैर जुटे रने वाले शिक्षकों को सबसे ज्यादा परेशानी नौकरशाही से ही है। बेसिक शिक्षा विभाग के ज़िला दफ्तरों में बैठे बाबू इतना तंग करते हैं कि बस पूछिये मत, कई बार रोने को मन करने लगता है। लेकिन रो नहीं पाते। अगर हम ही हिम्मत हार जायेंगे तो उन माता-पिता को क्या मुंह दिखाएंगे जो अपने बच्चों को कुछ बनने के लिये हमारे पास भेजते हैं। अंदर ही अंदर घुलते रहते हैं कुढ़ते रहते हैं। समय पर वेतन,एरियर, बोनस की तो छोड़िये अगर शिक्षक अपने पीएफ में से कुछ पैसा बेटी की शादी के लिये लेना चाहे तो बेसिक शिक्षा के दफ्तर में बैठे बाबू उसकी चकरघिन्नी बना देते हैं और पैसा रिलीज़ करने के लिये सिफारिश तभी आगे बढ़ती है जब......। पश्चिम उत्तर प्रदेश में सहायता प्राप्त स्कूलों के शिक्षकों को मासिक वेतन मिलने की कागज़ी प्रक्रिया ही इतनी लंबी है कि बस पूछिये मत। स्कूल के बाबू से लेकर लेखाधिकारी और ट्रेजरी होते हुए चेक स्कूल आता है, अगर फंड उपलब्ध हो तब। यही कारण है कि बुलंदशहर के कुछ स्कूलों में तो छह-छह महीने लग जाते हैं वेतन मिलने में। सबसे दुखदायी बात ये है कि हम अपने ही वेतन के बारे में पूछताछ नहीं कर सकते, कहीं लेखाधिकारी नाराज़ ना हो जायें। स्कूल के हेडमास्टर से लेकर प्रबंधक तक यही सुझाव देते हैं जो मिल रहा जब मिल रहा है संतोष करो। आखिर कब तक ज़नाब?

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  8. पिछले कुछ सालों में शिक्षा के नाम पर केंद्र सरकार से राज्य को करोड़ों रुपए का अनुदान मिला है। जिससे से गांवों में स्कूलों की इमारतें तो दिखने लगीं हैं। बच्चे भी बड़ी संख्या में स्कूल आने लगे हैं, जहां उनको किताबें, कपड़े और दोपहर का खाना सबकुछ मुफ्त में मिलता है। मगर पढ़ाने वाले शिक्षक कागजों पर ही हैं। स्कूलों में एक या दो शिक्षक ही मिलते हैं। बाकी शिक्षक या तो स्कूल आते नहीं, या फिर पास के शहरों के सरकारी दफ्तरों में अटैच हो जाते हैं।

    इसके चलते अधिकतर स्कूलों में एक कमरे में ही शिक्षक पूरे पांच क्लास के बच्चों को घेरकर पढ़ाने की औपचारिकता पूरी करते रहते हैं।

    हमारे पास ऐसे कई गांव के स्कूलों की जानकारी है जहां एक शिक्षक के भरोसे ही पूरा स्कूल चल रहा है। सरकार की सारी कवायद भोपाल के आसपास ही ठप हो जाती है। ऐसे में दूरदराज के जिलों के हालात क्या होंगे, सोचकर दुख होता है।

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  9. गुरू पद छोड़ा मास्टर बन गये, शिक्षा को कैसे पहचानें।
    शिक्षक तो बन जाते हम सब, पर शिक्षा का मर्म न जानें।।
    काम,क्रोध,पद,लिप्सा से घिर,अपने मन को कलुषित करते।
    शिक्षा को व्यवसाय बनाकर,सरस्वती को नंगा करते।।
    शिक्षा तो संस्कारित करती, संस्कारों को ये क्या जानें?
    शिक्षक तो बन जाते हम सब, पर शिक्षा का मर्म न जानें।।
    शिक्षक का पद पाकर के,वणिकों की बुद्धि अपनाते।
    बच्चों के खाने को आता, कमीशन खाया,घर म¡गवाते।
    असत्य भ्रष्टता स्वार्थों से घिर,व्यक्तित्व विकास,ये क्या जाने?
    शिक्षक तो बन जाते हम सब, पर शिक्षा का मर्म न जानें।।
    छात्रों को शिक्षा दे पाते,नव निर्माण कर वे दिखलाते।
    त्याग बिना जो भोग करें नित,मानव वंश का दंश बढ़ाते।
    पहले खुद को शिक्षित कर लें, शिक्षार्थी भी खुद को मानें।
    शिक्षक तो बन जाते हम सब पर शिक्षा का मर्म न जानें।।

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  10. किसी भी राष्ट्र के निर्माण में युवा वर्ग की भूमिका को हमेशा से ही अत्यंत महत्वपूर्ण गिना जाता है। क्योंकि आमतौर पर युवाओं में वह जोश और जज्बा नजर आता है जिससे राष्ट्र में फैली विभिन्न कुरीतियों को दूर कर समाज में एक स्वस्थ माहौल तैयार किया जा सके। मगर यह बात भी उतनी ही सच है कि इस वर्ग को तराशने और सींचने का दारोमदार काफी हद तक शिक्षक वर्ग के कंधों पर होता है। ज्ञान व अनुभव से वंचित किसी अनजान यात्री के समान बालक शिक्षक रूपी प्रकाश स्तंभ के जरिये ही अपनी डगर फलीभूत करते हुए नजर आते हैं। एक शिक्षक ही वह धुरी होता है जो विद्यार्थी को
    सही-गलत व अच्छे-बुरे की पहचान करवाते हुए बच्चों की अंर्तनिहित शक्तियों को विकसित करने की पृष्ठभूमि तैयार करता है। एक अध्यापक ही प्रेरणा की फुहारों से बालक रूपी मन को सींचकर उसकी नींव को मजबूत करते हैं तथा उनके सर्वांगीण विकास के लिए उनका मार्ग प्रशस्त करता है। किताबी ज्ञान के साथ नैतिक मूल्यों व संस्कार रूपी शिक्षा के माध्यम से एक गुरू ही शिष्य में अच्छे चरित्र का निर्माण करता है। वहीं सर्वोतम शिक्षक वह होता है जो विद्यार्थियों में अधिक से अधिक जानने व प्रश्न करने की उत्सुकता एंव प्रेरणा पैदा करता है। बच्चों को सिर्फ खाली बर्तन या साफ प्लेट समझकर अपनी जानकारी को उनके मस्तिष्क में ठूंसना भर ही ज्ञान नहीं होता बल्कि सीखना एक आजीवन चलने वाली सामाजिक सांस्कृतिक प्रक्रिया है जो दो तरफा होती है। मगर दुर्भाग्यवश अधिकतर शिक्षकों ने उसे एक तरफा बना दिया है। दुर्भाग्य से राजनीति और धर्र्म की सता के साथ-साथ ज्ञान की सता की प्रथा भी आम हो गई है जिसमें शिक्षक स्ंवय को मालिक .देने वाला. तथा विद्यार्थी को मजदूर .पाने वाला. समझता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि समाज में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाला शिक्षक वर्ग अपने कर्तव्यों व दायित्वों का निर्वाह इस प्रकार करे जिससे सम्पूर्ण राष्ट्र उन पर नाज कर सके। अपने शिष्यों को अनुशासन व संस्कारों का पाठ पढ़ा कर एक स्वस्थ व प्रगतिशील समाज की स्थापना में अपना अहम योगदान दे सके।

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  11. बे से बेसिक शिक्षा, ब से बड़ा बजट और ब से ही बंदरबांट।

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  12. सच्चा किस्सा।
    छात्रः साहेब राष्टगान और राष्टगीत में काव अंतर अहै?

    अध्यापकः लौंडा गावै तो राष्टगान और लौंडिया गावै तो राष्टगीत। एतनौ नय जनत्यौ।

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  13. शिक्षक दिवस पर उन गुरुओं को शत-शत नमन जिनके शिष्य इस देश को आगे बढ़ा रहे हैं। जो देश की लुटिया डुबो रहे हैं उनके गुरुओं को भी शत-शत नमन क्योंकि ऐसे शिष्यों की करतूतों से उनका कोई लेना देना नहीं है। मां बाप के बाद गुरु ही ऐसा प्राणी है जो अपने शिष्य की तरक्की देखकर खुश होता है और हरकतें देखकर नाखुश। इस धरती मां के बाद गुरु या शिक्षक ही ऐसा जीव हो हर तरह की बातें सहकर कुछ बोलता नहीं बस अपने कर्म में लगा रहता है।
    पप्पू पढ़ाकू, पांचवी पास

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  14. यह एक कटु सत्य है कि आज शिक्षा के मायने और उद्देश्य बदल गए है. प्रत्येक शिक्षक न तो गुरु हो सकता है न गुरु का स्थान ले सकता है. गुरु तो अति आदरणीय पूज्य देवतुल्य होते है जो व्यक्ति से कुछ पाने कि आशा नही करते अपितु उसे सुयोग्य व विज्ञ बनाना अपना परम पुनीत उद्देश्य समझते है.
    आजका व्यक्ति शिक्षक और गुरु को एक ही मानने कि भूल कने लगा है. आज के इस व्यावसायिक और भौतिकवादी समय में गुरु मिलना तो असंभव व सौभाग्य की बात है. आजके शिक्षक उनका उद्देश्य ये केन प्रकारेण धनोपार्जन हो गया है जिसके लिए छात्रो को ट्यूशन हेतु बाध्य और विवश करते है. शिक्षा का व्यवसायीकरण और बाजारीकरण हो जाने से अनेक विकृतियां उत्पन्न हुई है. प्रश्न पत्र को सेट करना, लीक कराना, अपने कोचिंग या विद्यालय के छात्रो को उत्तीर्ण कराने, मैरिट में लाने, अपने विद्यालय को परीक्षा केन्द्र बनवाने, तरह तरह से नक़ल करवाने जैसे घृणित और निंदनीय कार्यो में रत लोग अपने विद्यार्थियों को क्या दे पायेगे क्या दशा और दिशा दे सकेगे सोचने की बात है. आज विद्यालयों और महाविद्यालयों कि अंदरूनी राजनीति किसी से छुपी नही है.
    विशेषकर उत्तर प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा का इतना बुरा हाल इस लिए है कि प्राथमिक शिक्षक क्षमा कीजियेगा विशेषकर महिलाए विद्यालय जाते ही नही है. वो तैनात तो गाव में होते है पर शहर में रह कर पूरा वेतन लेने जैसा निर्लज्जतापूर्ण कार्य अत्यन्त सहजता से करते है. ये शिक्षिकाये अपने घर में रह कर पूरा वेतन लेती रहती है.
    इस अंधेरे भरे समय में भी रोशनी कि किरण के रूप में ऐसे विरले, प्रणम्य, स्तुत्य है जो शिक्षा और समाज के प्रति समर्पित है और आज का यह दिन उन्ही महामना अपवादों को समर्पित है.

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  15. शिक्षा जगत की सच्चाई |

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  16. शिक्षा जगत की सच्चाई |

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