पिछली पोस्ट में संजय शर्मा जी की टिपण्णी से दिमाग में दबी हुई बात निकल आई - शिक्षक संघ की राजनीति और उसमे लगे शिक्षकों की दिशा और दुर्दशा पर । बात थोडी अटपटी लग सकती है ,पर इस कड़वे सच को मैं भी मानता हूँ ,की राजनीति के दामन से कीचड को साफ़ करते -करते सरे शिक्षक नेता स्वयं कीचड के समान हो जाते हैं । इस पोस्टिंग में मैंने सोचा कि चलो इस पर भी अपनी बात कह ही डालते हैं। वास्तव में हमारे शिक्षक समुदाय में बहुत बड़ा अध्यापक वर्ग ऐसा है , जो शिक्षक नेताओं की मदद लेता रहता है और भविष्य में लेता रहेगा भी । इसी बीच के कड़ी में पड़ते हुए महत्वाकान्क्षा और पैसे की भूख से उस शिक्षक नेता को अपने पुराने आदर्श व वादे भूलने में आम राजनीति के धुरंधरों की ही तरह बहुत ज्यादा समय नहीं लगता है । आगे चलाकरi वह हर नेता कि तरह निपट भ्रष्टाचारी और अध्यापक के मूल कर्म से दूर होता जाता है , और उसकी मूल अध्यापक प्रवत्ति सिसकती ही रह जाती है ।
हालाकि ये सभी शिक्षक नेताओं पर लागू नहीं होता , पर अधिकांशतः के साथ यह कड़वा सच जुड़ा हुआ है। सर्व शिक्षा अभियान के दौर में शासन के नियमों के तहत भी बहुत बड़ी अध्यापक संख्या ( न्याय पंचायत व ब्लाक पंचायत समन्वयक के रूप में कार्य कर रहे ) ऐसी है ,जो स्कूली गुणा - भाग करते - करते अध्यापकों और शिक्षाधिकारियों के मध्य दलाली जैसे घ्रणित कार्य में शरीक हो जाती है। मजेदार बात बताऊँ कि सर्व शिक्षा अभियान कि एक बैठक में एक एक हमारे साथी का कहना था कि सर्व शिक्षा अभियान का नारा है - " सब पढ़े , सब बढ़ें " को बदल कर कर देना चाहिए - " सब खाएं , सब कमायें " । बताता चलूँ की इस अभियान में आंकडेबाजी की पूरी जिम्मेदारी इन्ही अध्यापकों के ऊपर ही होती है/
आप समझ ही रहे होंगे कि मैं यही कहना चाहता हूँ कि अध्यापक को को उसके मूल कर्म से विलग मत करिए नहीं तो वह बाबू हो जाएगा , दलाल हो जाएगा , भ्रस्टाचारी हो जाएगा , पर बेचारा अध्यापक कंहाँ रह पायेगा ? आशय मेरा आप समझ ही रहे होंगे? शिक्षक राजनीति को अपनी दिशा और दशा को तय करना ही होगा , वरना वह अब उस पुराने वैभव को न प्राप्त कर पायेगी / आखिर में मूल मंत्र बदलाव का वही पकड़ना पड़ेगा - कथनी और करनी में अन्तर न हो और पड़ से चिपकने की लोलुपता न हो /वास्तव में शैषिक गतिविधियों और आयामों में बहुत बड़ा अन्तर आ चुका है और इस दृष्टी से यदि कोई बदलाव हमारे शिक्षक नेताओं द्वारा न किया गया तो फ़िर ज़माने को अपनी राय को विपरीत रखने का पूरा अधिकार होगा ही/
प्रवीण जी आपको बहुत बधाई ,
ReplyDeleteनिश्चित ही आपने प्राईमरी अध्यापक की दुखती नस में मलहम लगाने का काम किया है . आपको धन्यवाद . समाज सोचता है की शिक्षा की दुर्दशा के लिए अध्यापक ही जिम्मेदार है लेकिन कुछ अध्यापकों की करनी समूचे शिक्षक समुदाय को बदनाम कर रही है . आपने सरकारी व्यवस्था पर उंगली उठा कर एक साहसिक कदम उठाया है .शिक्षक नेताओं को आपने आइना दिखाया धन्यवाद .यह बात बिल्कुल सच है की आज का अध्यापक स्कूल में पढाने की अपेक्षा अधिकारियों की चमचागिरी , बाबूगिरी ,दलाली करना ही पसंद करता है क्योंकि ऐसा अध्यापक ही आने वाली विभागीय आपदाओं से निपट सकता है , यह एक कड़वा सच है, पुनः आपको धन्यवाद
आशुतोष
आशुतोष जी धन्यवाद् आपको टिपण्णी के लिए
ReplyDeleteआपने सच ही कहा है की उसी तरह का शिक्षक नेता ही विभागीय समस्यायों से निकल सकता है /
पर हम सब उस तरह होना भी चाहें तो आपको मानना पड़ेगा की हो भी नहीं सकते क्योंकि एक अध्यापक होने के पीछे आप अपने कुछ दायित्वों को , अपनी छवि को चाहकर भी आप भुला नहीं सकते हैं/
सब खाएं सब कमाएं वाली बात आम तौर पर हर तरफ चरितार्थ हो रही है. मध्याह्न भोजन योजना में भी कुछ प्रतिशत अपवादों को छोड़ दें तो आमतौर पर ईमानदारी का सर्वत्र अभाव है.
ReplyDeleteस्क्रॉल करते ब्लॉगरोल संबंधी आपकी शंका के विषय में मेरी राय है कि प्रवीणजी ऐसा बिलकुल संभव है। सागर नाहरजी ने ऐसा करने का तरीका बताया था एक पोस्ट में। ये लीजिए ये रहा लिंक।
ReplyDeletehttp://nahar.wordpress.com/2007/10/18/make-your-blogroll-perfect/
उम्मीद है आपकी समस्या का समाधान हो गया होगा। जब ब्लॉगरोल बनाएं तो हमें भी याद रखें :))
नीलिमा