बचपन का सिनेमा अक्सर गीतों, नृत्य और रोमांच से भरा होता था। जब भी श्याम बेनेगल की कोई फिल्म देखता था, तो ऐसा लगता जैसे यह बाकी फिल्मों से अलग है। न गाने, न नाच, और कई बार तो इतने लंबे अंतराल में संवाद आते कि रुककर सोचने की जरूरत पड़ती थी। उस समय श्याम बेनेगल की फिल्में धीमी और जटिल लगती थीं, लेकिन जैसे-जैसे समाज और जीवन को देखने का दृष्टिकोण गहराता गया, उनकी सादगी और गहराई मन को भाने लगी। उनके सिनेमा ने सिखाया कि कला का अर्थ केवल आनंद नहीं, जागरूकता भी है।
गांव की धूल से कहानी बुनते थे,
उनके किरदार भी सच्चाई चुनते थे।
श्याम बेनेगल ने सिनेमा को केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज के साथ संवाद का माध्यम बनाया। उनके निर्देशन में बनी पहली फिल्म 'अंकुर' (1974) ने समाज की कड़वी सच्चाई को परदे पर उकेरा। उनकी फिल्मों ने नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, शबाना आजमी, स्मिता पाटिल जैसे कलाकारों को न केवल पहचान दिलाई, बल्कि उन्हें समाज का दर्पण भी बनाया।
उनकी कृतियों में ग्रामीण संकट, नारीवादी चिंताएं और सामाजिक मुद्दों की गहरी पकड़ देखने को मिलती है। 'भारत एक खोज' और 'संविधान' जैसी ऐतिहासिक सीरीज ने हमें हमारे इतिहास और मूल्यों से जोड़ा। उन्होंने सिनेमा को केवल कथा सुनाने का माध्यम नहीं, बल्कि समाज का सच्चा प्रतिबिंब बना दिया।
श्याम बेनेगल के निधन से भारतीय सिनेमा ने एक ऐसा युगपुरुष खो दिया, जिसकी कमी कभी पूरी नहीं हो सकती। उनकी फिल्में हमारे लिए एक सबक हैं कि सिनेमा केवल आनंद नहीं, जागरूकता और संवेदनशीलता का भी माध्यम है। उनकी सादगी, दृष्टि और संवेदनशीलता को नमन।
अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि 🙏💐🚩