"मीडिया: सच्चाई से व्यवसाय तक की यात्रा - संवाद से अधिक मुनाफे की होड़"

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"मीडिया: सच्चाई से व्यवसाय तक की यात्रा - संवाद से अधिक मुनाफे की होड़"


"हर बात को बाजार में तोलने लगे हैं वो,  
जिनके कंधों पर था सच की मशाल थामना।"

नामी मीडिया हाउसों का स्वरूप पिछले कुछ दशकों में तेजी से बदल गया है। कभी ये संस्थान मात्र समाचार पत्र और पत्रिकाओं तक सीमित थे, जिनका एकमात्र उद्देश्य जनमानस को सटीक जानकारी पहुँचाना और सामाजिक जागरूकता फैलाना था। लेकिन समय के साथ, मीडिया ने अपने व्यवसायिक दायरे को कई गुना बढ़ाया और धीरे-धीरे यह एक बहुआयामी उद्योग का रूप ले चुका है। 

पहले ये न्यूज़ चैनल के बिजनेस में उतरे, फिर इवेंट मैनेजमेंट कंपनियों के रूप में मेले और महोत्सवों का आयोजन करने लगे। अब इनकी गतिविधियाँ सिर्फ खबरें या मनोरंजन तक सीमित नहीं रहीं, बल्कि यह कई तरह के आयोजनों जैसे किसान मेला, ऋण मेला, एजुकेशन फेयर और ओलंपियाड जैसी चीजों को भी धंधे  की शक्ल में उतार चुके हैं।

"खबरों के नाम पर अब इवेंट का खेल है,  
सच की जगह अब बिजनेस का मेल है।"

मीडिया अब सिर्फ खबर देने वाला नहीं रहा, बल्कि एक इवेंट और व्यवसायिक मॉडल के रूप में उभर रहा है। सवाल यह उठता है कि क्या इस व्यवसायिक मॉडल में पत्रकारिता की मूल भावना कहीं खो गई है? जब मीडिया एक बिजनेस मॉडल की ओर बढ़ता है, तो उसका पहला उद्देश्य खबरों के बजाय मुनाफा कमाना हो जाता है। इस व्यावसायिकता ने मीडिया की निष्पक्षता और जनता के प्रति उसकी जवाबदेही को कमजोर किया है।

"साहित्य की सच्चाई, जब बिकने लगे बाजार,  
मंचों पर विचार नहीं, व्यापार का होता प्रहार।"  

वर्तमान में इन मीडिया हाउसों की एक नई दिशा साहित्यिक संवाद के मंच पर देखने को मिल रही है। एक के बाद एक, विभिन्न मीडिया कंपनियां साहित्यिक महोत्सवों और संवादों का आयोजन कर रही हैं। यह कदम उनकी व्यावसायिक रणनीति का एक हिस्सा है, जिसमें साहित्यिक विरासत को भी बाजार का हिस्सा बना दिया गया है। प्रश्न यह उठता है कि क्या यह साहित्य और संवाद की गहराई को समृद्ध करने का प्रयास है या फिर महज़ व्यावसायिक लाभ की ओर बढ़ता एक और कदम?

मीडिया का साहित्यिक संवाद में प्रवेश, एक ओर जहाँ साहित्य के प्रचार-प्रसार में मदद कर सकता है, वहीं इसके पीछे छिपी व्यावसायिक मंशा पर सवाल भी खड़ा करता है। यह समझना ज़रूरी है कि साहित्यिक आयोजनों का मूल उद्देश्य समाज के बौद्धिक विकास को बढ़ावा देना और साहित्यकारों के विचारों का आदान-प्रदान करना है। लेकिन जब ऐसे मंचों का आयोजन मीडिया हाउस के हाथ में आ जाता है, तो साहित्य के मूल्यों के बजाय विज्ञापन, पब्लिसिटी और पैसा कमाने की होड़ दिखाई देती है। साहित्य का व्यवसायीकरण इसे एक 'प्रोडक्ट' की तरह बाजार में बेचने की ओर इशारा करता है, जहाँ इसकी गहराई और संवेदनशीलता कहीं खो जाती है।


इस व्यावसायिकता का प्रभाव साहित्य के स्तर पर भी पड़ सकता है। साहित्यिक आयोजन एक बौद्धिक अभिव्यक्ति के मंच होते हैं, जहाँ विचारों का आदान-प्रदान समाज की सोच और दृष्टिकोण को प्रभावित करता है। लेकिन जब इन मंचों का उद्देश्य मुनाफा कमाना हो जाता है, तो साहित्यकारों के विचार भी व्यावसायिकता के छाँव में आ जाते हैं। इस प्रकार, साहित्य का स्थान धीरे-धीरे बाजार की आवश्यकताओं के अनुरूप तय होता है, जिससे उसकी स्वतंत्रता और गहराई खतरे में पड़ जाती है। यहां तक कि साहित्य की पवित्रता भी अब बिजनेस के इस बढ़ते दायरे का हिस्सा बनती जा रही है।

मीडिया का यह नया रूप उसके पहले के रूप से बिल्कुल भिन्न है, जहां वह समाज के प्रति अधिक जवाबदेह था। अब वह अपने व्यावसायिक लाभ के पीछे दौड़ता दिखता है, और उसकी जिम्मेदारी कहीं पीछे छूटती जा रही है। इस बदलाव पर विचार करते हुए, हमें यह सवाल करना चाहिए कि क्या पत्रकारिता अपनी मूल भूमिका से दूर जा रही है, या यह नया रूप उसकी आवश्यकता बन गया है?

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