पिछली चर्चा को आगे बढाते हुए रवीन्द्र नाथ टैगोर के " गुरु और अध्यापक " के मध्य असल अन्तर को समझने की कोशिश की गई है ................. मेरी नजर में आज यह बात प्रासंगिक चाहे जितनी हो पर आज के समय में या सच्चे अर्थों में या पूरी इमानदारी से कहें तो लागू नहीं हो सकती है । आप का क्या कहना है?
शिक्षा-प्रणाली में विद्यार्थी को केन्द्र में रखने की आवश्यकता को महत्वपूर्ण ढंग से रेखांकित करने के बावजूद रवीन्द्रनाथ ने गुरु की भूमिका और महत्ता पर विशेष बल दिया है। उल्लेखनीय है कि इस संदर्भ में उन्होंने `गुरु´ को शिक्षक से अलग करके देखा है। उनके अनुसार, प्रारम्भ में ही ज्ञान शिक्षा का आश्रम स्थापित करने के लिए गुरु की आवश्यकता पड़ती है। शिक्षक तो आवेदन करते ही लाइन लगा देते हैं , पर गुरु तो फरमाइश करते ही नहीं मिल सकते।
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने स्वार्थग्रस्त शिक्षकों पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा है कि आज के शिक्षक दुकानदार हैं, विद्यादान उनका व्यवसाय हो गया है। इसलिए वे ख़रीददार की खोज में फिरते रहते हैं । व्यवसायियों से लोग चीजें ख़रीद सकते हैं, पर उनके यहाँ बिक्री की चीजों की सूची में स्नेह , श्रद्धा , निष्ठा आदि हार्दिक गुण भी रहेंगे ऐसी आशा कोई नहीं कर सकता। इस आशा के अनुसार ही शिक्षक लोग वेतन लेते हैं और विद्या-वस्तु बेचते हैं । यहीं पर छात्रों के साथ उनका सारा संपर्क समापन के रास्ते पर अग्रसर हो जाता है। ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति में अनेक शिक्षक जो लेन-देन के संबंध से ऊपर उठ पाते हैं, वे केवल अपनी निजी विशेषता के फलस्वरूप । गुरुदेव के इन विचारों का असल निचोड़ है कि आज की शिक्षा का जो संकट है, उसके तमाम कारणों में से सबसेबड़ा कारण यह है कि समाज में गुरु का लोप हो गया है, और शिक्षक शेष रह गए।
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी गुरुदेव की, शिक्षक और गुरु के बारे में व्यक्त अवधारणा को इसी रूप में आगे बढाते हुएकहा है कि आजकल जो लोग शिक्षा देते हैं वे शिक्षक हैं, लेकिन उन दिनों जो लोग शिक्षा देते थे वे गुरु होते थे। वे लोग शिक्षा के साथ एक ऐसी वस्तु देते थे जो गुरु और शिष्य के आध्यात्मिक संबंध से भिन्न किसी प्रकार का देना पावना नहीं हो सकती। विद्यार्थियों के साथ इसी प्रकार के उच्च -स्तरीय चारित्रिक संबंध की स्थापना ही शांति निकेतन विद्यालय का मुख्य उद्देश्य है ।
उन्होंने गुरु के व्यक्तित्व में मनुष्यत्व की अनिवार्यता पर बल दिया। मनुष्यत्व से दूर गए `मास्टर साहब´ को उन्होंने सबक रटाने का उस्ताद कहा है। इस तरह गुरुदेव ने गुरु के बारे में जो आदर्श कल्पना की, वह आज के शिक्षकों के सामने आदर्श कायम करती है।
शिक्षा-प्रणाली में विद्यार्थी को केन्द्र में रखने की आवश्यकता को महत्वपूर्ण ढंग से रेखांकित करने के बावजूद रवीन्द्रनाथ ने गुरु की भूमिका और महत्ता पर विशेष बल दिया है। उल्लेखनीय है कि इस संदर्भ में उन्होंने `गुरु´ को शिक्षक से अलग करके देखा है। उनके अनुसार, प्रारम्भ में ही ज्ञान शिक्षा का आश्रम स्थापित करने के लिए गुरु की आवश्यकता पड़ती है। शिक्षक तो आवेदन करते ही लाइन लगा देते हैं , पर गुरु तो फरमाइश करते ही नहीं मिल सकते।
यहाँ गुरुदेव ने जो अंतर दर्शाया है, उसके पीछे दृष्टि संभवत: यह रही है कि शिक्षक केवल शिक्षा देता है जबकि गुरु छात्राओं के अंतर्मन को परिष्कृत करते हुए उसे उन्नत करता हुआ जीवन को सही ढंग से जीने का विवेकपूर्ण दृष्टिकोण प्रदान करता है। टैगोर के अनुसार शिक्षक कदाचित् शिक्षा देने के कार्य में उद्देश्य रखता है कि प्रतिदान के बदले में उसे पैसा मिले, वह विद्यार्थी के घर से मिले या विद्यालय से वेतन के रूप में।
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने स्वार्थग्रस्त शिक्षकों पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा है कि आज के शिक्षक दुकानदार हैं, विद्यादान उनका व्यवसाय हो गया है। इसलिए वे ख़रीददार की खोज में फिरते रहते हैं । व्यवसायियों से लोग चीजें ख़रीद सकते हैं, पर उनके यहाँ बिक्री की चीजों की सूची में स्नेह , श्रद्धा , निष्ठा आदि हार्दिक गुण भी रहेंगे ऐसी आशा कोई नहीं कर सकता। इस आशा के अनुसार ही शिक्षक लोग वेतन लेते हैं और विद्या-वस्तु बेचते हैं । यहीं पर छात्रों के साथ उनका सारा संपर्क समापन के रास्ते पर अग्रसर हो जाता है। ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति में अनेक शिक्षक जो लेन-देन के संबंध से ऊपर उठ पाते हैं, वे केवल अपनी निजी विशेषता के फलस्वरूप । गुरुदेव के इन विचारों का असल निचोड़ है कि आज की शिक्षा का जो संकट है, उसके तमाम कारणों में से सबसेबड़ा कारण यह है कि समाज में गुरु का लोप हो गया है, और शिक्षक शेष रह गए।
आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षकों को गुरु के रूप में परिणित होना चाहिए। संभवत: इसी तथ्य को ध्यान में रखकर गुरुदेव ने कहा कि यदि हमें आदर्श विद्यालय की स्थापना करनी है तो जनसमाज से दूर निर्जन में,मुक्ति का एहसास दिलाती तथा प्रकृति के मध्य उसकी व्यवस्था करनी होगी। वहाँ अध्यापकगण एकांत में अध्ययन तथा अध्यापन में व्यस्त रहेंगे और छात्र उस ज्ञान-चर्चा के के बीच अपना असली विकास करेंगे। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इस परिकल्पना को सैद्धांतिक स्तर पर ही नहीं रखा, उसे कार्यरूप में बदलने का कार्य भी संभव कर दिखाया। उनके द्वारा स्थापित शांति निकेतन इस बात का जीवंत प्रमाण माना जाना चाहिए है। कथनी-करनी में अदभुत संतुलन की स्थिति शांति निकेतन में बखूबी देखी जा सकती है।
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी गुरुदेव की, शिक्षक और गुरु के बारे में व्यक्त अवधारणा को इसी रूप में आगे बढाते हुएकहा है कि आजकल जो लोग शिक्षा देते हैं वे शिक्षक हैं, लेकिन उन दिनों जो लोग शिक्षा देते थे वे गुरु होते थे। वे लोग शिक्षा के साथ एक ऐसी वस्तु देते थे जो गुरु और शिष्य के आध्यात्मिक संबंध से भिन्न किसी प्रकार का देना पावना नहीं हो सकती। विद्यार्थियों के साथ इसी प्रकार के उच्च -स्तरीय चारित्रिक संबंध की स्थापना ही शांति निकेतन विद्यालय का मुख्य उद्देश्य है ।
उन्होंने गुरु के व्यक्तित्व में मनुष्यत्व की अनिवार्यता पर बल दिया। मनुष्यत्व से दूर गए `मास्टर साहब´ को उन्होंने सबक रटाने का उस्ताद कहा है। इस तरह गुरुदेव ने गुरु के बारे में जो आदर्श कल्पना की, वह आज के शिक्षकों के सामने आदर्श कायम करती है।
पिछले लेख पर खरी खरी कहने वाले डा. साहब ने एक विचारणीय बिन्दु रखा ......आज के लेख पढने के बाद कहीं यह सच नहीं लग रहा आपको?
- छोड़ो कल की बातें..
यह स्वप्नलोक की बातें हैं॥
जो गुरुदेव टैगोर के अन्य लेख भी हैं,
मैकाले शिक्षापद्धति की पुरजोर वकालत करते हैं,
क्या सही है.. क्या गलत ?
टिप्पणी न करूँ तो बेहतर ही है ।
शिक्षा एक उपभोक्ता प्रयोज्य से अधिक कुछ न रह गया है ।
छोड़ो कल की बातें॥
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी गुरुदेव की, शिक्षक और गुरु के बारे में व्यक्त अवधारणा को इसी रूप में आगे बढाते हुएकहा है कि आजकल जो लोग शिक्षा देते हैं वे शिक्षक हैं, लेकिन उन दिनों जो लोग शिक्षा देते थे वे गुरु होते थे। वे लोग शिक्षा के साथ एक ऐसी वस्तु देते थे जो गुरु और शिष्य के आध्यात्मिक संबंध से भिन्न किसी प्रकार का देना पावना नहीं हो सकती।
ReplyDeleteबहुत लाजवाब लिखा है आपने. काश इन महापुरुषों द्वारा कही गई बातों का पालन हो सके.
रामराम.
आपके आलेख के लिये धन्यवाद.
ReplyDeleteप्रवीण जी बहुत सुंदर लेख लिखा, इस के लिये आप का धन्यवाद
ReplyDeleteअच्छा लिखा है आपने ....बधाई के पात्र हैं आप ..
ReplyDeleteअनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
Sundar gambheer aalekhan
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ReplyDeleteऊड़ी बाबा, आपने तो फँसा लिया मास्टर साहेब !
रवीन्द्र, मुझे लगता है, प्रासंगिक हैं। वैसे ही जैसे गांधी।
ReplyDeleteaapki ek-ek pankti gambhirta liye hue hai master ji,dhanyawaad ke to aap hakdaar hai hi saath hi shubhkamnao ke bhi.
ReplyDeletevichar kabhee purane nahin hote bas logo ka najariya badal jata hai. narayan narayan
ReplyDeleteटेगोर के बहुत सारे विचारों को "शाश्वत सत्य" की श्रेणी में रखा जा सकता है. वे पुराने नहीं होते, लेकिन उनको मूर्त रूप देते समय वर्तमान परिवेश को ध्यान में रखना जरूरी है.
ReplyDeleteचिट्ठे के बारे में एक बात -- इतने बडे अक्षरों की जरूरत नहीं है. बगलपट्टी के अक्षरों के समान छोटे अक्षर हों तो काम चल जायगा.
सस्नेह -- शास्त्री
शिक्षक और "गुरु" में बहुत अच्छा अंतर बताया आपने.
ReplyDeleteकाश सारे शिक्षक गुरू होते. सब छोडिये, यदि 10% भी हो जाये तो समाज का कायापलट हो जाये.
-- शास्त्री जे सी फिलिप
-- बूंद बूंद से घट भरे. आज आपकी एक छोटी सी टिप्पणी, एक छोटा सा प्रोत्साहन, कल हिन्दीजगत को एक बडा सागर बना सकता है. आईये, आज कम से कम दस चिट्ठों पर टिप्पणी देकर उनको प्रोत्साहित करें!!
bahut sunder lekh hai bdhaai
ReplyDeletegoodf
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