पाठ्य-पुस्तकें शिक्षक के अशक्तीकरण के कई प्रतीकों में से एक

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पाठ्यपुस्तक में जकड़ी हमारी शिक्षा, एक अदद निर्धरित पुस्तक के अभाव से प्रभावित होती है? दरअसलहोती है, क्योंकि हमारी शिक्षा प्रणाली पर पाठ्यपुस्तकों का वर्चस्व बहुत गहरा है।

सारी दुनिया में शिक्षा में पाठ्यपुस्तकों की भूमिका और उनके इस्तेमाल करने का ढंग एक-सा नहीं है। कुछ देशों में सरकार ही पाठ्यपुस्तकें छापती है, तो कुछ देशों में सरकारी शिक्षा विभाग केवल सुझाव देते हैं कि बाजार में उपलब्ध् पाठ्यपुस्तकों में से कौन-सी किताबें उपयुक्त हैं। कई देशों में शिक्षकों को पाठ्यपुस्तक चुनने की छूट होती है या फ़िर शिक्षक केवल एक पाठ्यपुस्तक की मदद से नहीं पढ़ाते।

हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी अप्रैल के महीने में सरकारी पाठ्यपुस्तकों के बाजार में उपलब्ध् न होने की खबरें इलैक्ट्रॉनिक मीडिया और अखबारों में उछलती रहेंगी । ऐसी खबरों को छापने से पहले मीडिया किस सीमा तक इनकी तह में जाने और छानबीन करने की कोशिश करता है, यह बहस का एक अलग मुद्दा है। पर पाठ्यपुस्तकों के अभाव में शिक्षकों, स्कूली प्रशासन, मीडिया और अभिभावकों की जैसी प्रतिक्रियाएँ उभरकर आती हैं, उनको देखते हुए ऐसा लगता है,जैसे स्कूली शिक्षण प्रक्रिया पर संकट छा गया है



क्या वास्तव में पाठ्यपुस्तकों का संकट शिक्षा पर संकट होता है? क्या वास्तव में हमारी शिक्षा प्रणाली पर पाठय् पुस्तकों का वर्चस्व बहुत गहरा है लेख एक ही पाठ्यपुस्तक से नियंत्रित शिक्षा शास्त्र और उसी पर आधारितछात्राओं , शिक्षक और अंतत: समाजके लिए हितकारी नहीं है। ऐसी शिक्षा प्रणाली न केवलसीखने की अवधारणा के प्रतिकूल है बल्कि सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में छात्र-छात्राओं की भूमिका को नकारती है और शिक्षकों के अशक्तिकरण को बढ़ावा देती है।


कई देशों में शिक्षक एक ही पुस्तक के विपरीत कई पुस्तकों और शिक्षण-सामग्री का इस्तेमाल करते हैं। वे स्वयं तय करते हैं कि कब किस किताब और शिक्षण सामग्री का इस्तेमाल किया जाए। कुछ देशों में सरकारी बोर्ड व इस्तेमाल किए जाने की बाध्यता होती है। भारत भी कमोबेश इस अंतिम श्रेणी के देशों में से है।

हमारी शिक्षा प्रणाली पर पाठ्यपुस्तकें इस कदर हावी हैं कि न केवल अभिभावकों व आम जनों के बीच बल्कि स्कूल प्रणाली से जुड़े अधिकांश अध्यापकों और प्रशासन के लिए भी किताबें पाठ्यक्रम और पाठ्यचर्या का पर्यायके मानस में यह बात गहरे पैठ चुकी है कि एक अदद निर्धारित को आद्योपांत पूरा करवा देने से और उसके प्रश्नों के उत्तर रटवा देने से किसी विषय की समझ बन जाती है और `पढ़ाई पूरी´ हो जाती है। आखिर पाठ्यपुस्तक केंद्रित शिक्षा हमें इतनी अनिवार्य क्यों लगती है?

इस सोच का संबंध् कुछ हद तक स्कूल के अंतिम वर्षों की मूल्यांकन पद्दति से है। दसवीं और बारहवीं की परीक्षाओं में जिस किस्म के प्रश्न पूछे जाने की परंपरा बनी हुई है, वह बच्चों से केवल इतनी ही अपेक्षा करती है कि वे बंधे-बंधाये ढर्रे के प्रश्नों के बने-बनाए उत्तर लिख दें। ऐसे प्रश्नों में छात्र -छात्राओं की समझ को आँकने की कोई खास गुंजाइश नहीं होती। इन परीक्षाओं का इतना ज्यादा हौवा है कि बाकी स्कूली वर्षों की पढ़ाई भी इनसे प्रभावित और इनके अनुरूप होती है।


चूँकि विभिन्न राज्य बोर्डों का भौगोलिक दायरा काफी विस्तृत होता है, इसलिए समान पाठ्यक्रम और समान पाठ्यपुस्तक को लागू करने के अलावा और किसी विकल्प की कल्पना भी नहीं की जाती। फलस्वरूप पहली कक्षा से ही पढ़ाने के तौर-तरीकों , पाठ्यपुस्तक का स्वरूप और मूल्यांकन पद्दति बोर्ड की परीक्षाओं के अनुरूप ढलने लगते हैं। यहाँ तक कि निजी प्रकाशनों से छपने वाली पाठ्यपुस्तकों का भी एन.सी.ई.आर. टी. के पाठ्यक्रम पर आधरित होना भी आवश्यक हो जाता है और यही इन किताबों के `वैध´होने और स्कूलों द्वारा स्वीकृत किए जाने की पहली शर्त होती है।


(अभी जारी है ....)

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12Comments
  1. इंट्रेस्टिंग्।इंतज़ार रहेगा।

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  2. पाठ्य पुस्तकों की स्वीकार्यता-अस्वीकार्यता, बाजारीकरण और उनकी शिक्षण-प्रक्रिया में सहभागिता का प्रभावी विश्लेषण कर रहे हैं आप.
    शेषांश की प्रतीक्षा में .

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  3. हां, यह चार कालम की टेम्पलेट लगने के बाद पहली बार आया यहां. सुन्दर लग रहा है, सब कुछ व्यवस्थित.

    पर नीचे बहुत दूर तक जाना पड़ रहा है, बस एक काली पट्टी के साथ.

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  4. पाठ्य पुस्तकों की उत्कृष्टता और अनिवार्यता का विकल्प मुझे नजर नहीं आता। पर आपके लेखों को चाव से पढ़ूंगा।

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  5. vicharneey vishay hai.....jari rakhen.

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  6. बढ़िया आलेख प्रस्तुति . आभार

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  7. पाठ्य पुस्तकों की स्वीकार्यता-अस्वीकार्यता, बाजारीकरण, अजी हमे तो लगता है कि हर जगह राजनीति ही चलती है, भारत मे हर नयी सरकार चाहती है अपने ढंग से बच्चो के दिमाग बनाना, जब की यह सब गलत है.
    बाकी इंतजार रहेगा आप की अगली पोस्ट का.
    धन्यवाद इस अच्छे ओर सुंदर लेख के लिये

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  8. बहुत मौजू विषय -शुक्रिया !

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  9. बहुत बढ़िया जानकारी दी है आपने इस लेख के माध्यम से शुक्रिया

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  10. शैक्षिक किताबों के इतर यहॉं उत्‍तर प्रदेश में 'केयर इण्डिया' बाल मनोविज्ञान पर लिखी गयी कविता एवं कहानियों की किताबों के द्वारा बहुत सुन्‍दर प्रयोग कर रही है, जो बेहद सफल भी हो रहा है।

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  11. नया टेम्पलेट अच्छा है.
    यह लेख विचारणीय विषय दे रहा है..इस बात पर कई बार
    विचार रखे गए हैं .मेरी समझ में किताबों की आवश्यकता तो और कुछ समय तक भारत में रहेगी ही.
    LEkin=पिछले वर्ष 2008 [cbse board]से जिस तरह 10th-12thपरीक्षा प्रणाली में परिवर्तन हुआ है..ख़ास कर बोर्ड की परीक्षा में.
    वह इस काफी सकारात्मक लगता है.
    कम से कम 'भाषा विषयों 'में प्रश्न रट्टा पध्यति से हट गए हैं.
    अगले अंक पढने का इंतज़ार है.

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  12. दबाब में रचनात्मकता सम्‍भव नहीं है। दबाब भय की परिणति होता है और भय की स्थिति में मनुष्‍य का मस्तिष्‍क स्वाभाविक ढंग से काम नहीं कर पाता है। मन विकृत हो जाता है। किसी नवाचार की हिम्मत तक नहीं जुटा पाता है। भयग्रस्त मन कभी भी सृजनशील नहीं हो सकता है। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि जब मनुष्‍य तनाव में होता है तब मस्तिष्‍क तक जाने वाला रक्त का संचार मेरूदंड के ऊपरी छोर तक ही प्रोपर रहता है इस कारण मस्तिष्‍क न ठीक तरीके से सोच पाता है और न शरीर के अन्य भागों तक संकेत भेज पाता है। रचनात्मकता के लिये चिंतन का होना जरूरी है और चिंतन दबाब मुक्त परिवेश में ही गति प्राप्त करता है। यदि बच्चा तनाव में है और किसी बोझ से दबा है तो वह नया सोच ही नहीं सकता है और जब सोच ही नहीं सकता है तब रचने की बात तो दूर की कौड़ी है। यह जितना बच्चों के संदर्भ में सही है उतना ही बड़ों के भी। आज हमारी शिक्षा व्यवस्था में स्वतंत्रता, अवसर और चुनौती का घोर अभाव देखा जाता है। बात बच्चे की हो या फिर शिक्षक की वे तमाम तरह के प्रतिबंधों और बोझ से दबे हुए हैं। ~ महेश चंद्र पुनेठा

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