अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करना जन्मसिद्ध अधिकार है !

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रवींद्र नाथ जी के विचारों की अन्तिम कड़ी में पेश हैं उनके मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने के बारे में .......आगे इस बात को बढाते हुए ज्ञान जी की छोडी हुई चिंतन की लकीर पर कुछ रोशनी डालने की कोशिश करूंगा ।


रवीन्द्रनाथ टैगोर ने मातृभाषा को बड़े सम्मान से देखा और कहा कि अपनी भाषा में शिक्षा पाना जन्मसिद्ध अधिकार है। मातृभाषा में शिक्षा दी जाए या नहीं इस तरह की कोई बहस होना ही बेकार है, उन्होंने कहा है कि अपनी मातृभाषा में शिक्षा पाने का जन्मसिद्ध अधिकार भी इस अभागे देश में तर्क और बहस-मुहाबिसे का विषय बना हुआ है। उनकी मान्यता थी कि जिस तरह हमने माँ की गोद में जन्म लिया है, उसी तरह मातृभाषा की गोद में जन्म लिया है, ये दोनों माताएँ हमारे लिए सजीव और अपरिहार्य हैं। रवीन्द्रनाथ ने मातृभाषा की महत्ता को समझा और उसे समझाने का प्रयास भी किया।

वर्तमान में यह धारणा बलवती होती जा रही है कि विद्यार्थियों को मातृभाषा में शिक्षा देना मनोवैज्ञानिक और व्यवहारिक रूप से वांछनीय है क्योंकि विद्यालय आने पर बच्चे यदि अपनी भाषा को व्यवहृत होते देखते हैं, तो वे विद्यालय में आत्मीयता का अनुभव करने लगते हैं और यदि उन्हें सब कुछ उन्हीं की भाषा में पढ़ाया जाता है, तो उनके लिए सारी चीजों को समझना बेहद आसान हो जाता है।

सर्वसाधारण की शिक्षा के विषय में विचार करते हुए गुरुदेव ने अपनी चिंता इन शब्दों में प्रकट की मातृ-भाषा में यदि शिक्षा की धाराप्रशस्त न हो तो इस विद्याहीन देश में मरुवासी मन का क्या होगा । इस कथन से जाहिर होता है कि उनके मन में यह विचार था कि इस देश में लोगों को शिक्षित करना अपेक्षित है और मातृभाषा के माध्यम से ही शिक्षा प्रदान करना ही सबसे प्रभावी कदम है।


भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी `निज भाषा´ कहकर प्रकारांतर से मातृभाषा के महत्व को अपने निम्नलिखित बहुचर्चित दोहे में निर्दिष्ट किया है। निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा ज्ञाने के , मिटै हिय को सूल।। वस्तुत: प्रत्येक चिंतक, रचनाकार मातृभाषा को महत्व देते हुए अपने-अपने ढंग से, उसके बारे में अपने मंतव्य प्रकट करता है। गुरुदेव रवीन्द्र ने जिस बात को अपने निबंध में अच्छी तरह से समझाया है, उसी बात को भारतेंदु ने कविता के माध्यम से लोगों को अवगत कराने की सफल चेष्टा की है।

इस संदर्भ में रवीन्द्रनाथ ने जापान का दृष्टांत रखा है कि इस देश में जितनी उन्नति हुई है, वह वहाँ की अपनी भाषा जापानी के ही कारण है। जापान ने अपनी भाषा की क्षमता पर भरोसा किया और अंग्रेजी के प्रभुत्व से जापानी भाषा को बचाकर रखा।

गुरुदेव ने चिंतन-प्रक्रिया से गुजरते हुए जनसामान्य के लिए इस महत्वपूर्ण विचार को प्रस्तुत किया कि अनावश्यक को जिस परिमाण में हम अत्यावश्यक बना डालेंगे उसी परिमाण में हमारी शक्ति का अपव्यय होता चला जाएगा। धनी यूरोप के समान हमारे पास संबल नहीं है। यूरोपवालों के लिए जो सहज है हमारे लिए वही भारस्वरूप हो जाता है। सुगमता, सरलता और सहजता ही वास्तविक सभ्यता है। अत्यधिक आयोजन की जटिलता एक प्रकार की बर्बरता है।


ध्यातव्य है कि गुरुदेव ने उपर्युक्त विचार शिक्षा की समस्या पर विचार करते हुए प्रकट किए थे। इस तरह उनका मंतव्य स्पष्ट था कि शिक्षित होने के क्रम में अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि हमें अपने परिवेश के अनुरूप आचरण करना चाहिए और फिजूलखर्ची और आडंबर के प्रदर्शन से बचना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से हम अपनी अर्थ-व्यवस्था के दायरे में रहेंगे और दिखावा करके हम प्रकारांतर से उन लोगों के अपमान करने के पाप से भी बच जाएंगे जो अर्थाभाव में दो जून की रोटी भी नहीं खा पा रहे हैं।

यों तो गुरुदेव ने अपने लेखन में शिक्षा से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर विचार किया है परंतु यहाँ उनमें से कुछ का उल्लेख इस आशय से किया गया है कि इस बात का अनुभव किया जा सके कि उन्होंने शिक्षा पर जो चिंतन किया है, उनके समय के समाज से सम्बन्ध होने के साथ-साथ आज के समय की शैक्षिक समस्याओं का परिचय कराता है और उनके समाधान के सुझाव प्रस्तुत करता है। इस रूप में उनके विचारों की सार्थकता तथा प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।

यदि हम लोग गुरुदेव के शैक्षिक विचारों से जुड़े बिंदुओं को ध्यान में रखें और उनके अनुरूप कार्य करें, तो वर्तमान समय की बहुत-सी समस्याओं से छुटकारा मिल सकता है जिसका दूरगामी सकारात्मक परिणाम सामने आएगा।

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  1. हम लोग गुरुदेव के शैक्षिक विचारों से जुड़े बिंदुओं को ध्यान में रखें और उनके अनुरूप कार्य करें, तो वर्तमान समय की बहुत-सी समस्याओं से छुटकारा मिल सकता है जिसका दूरगामी सकारात्मक परिणाम सामने आएगा।
    बहुत बढ़िया आलेख . अपनी मातृ भाषा में शिक्षा ग्रहण करना हमारा जन्म सिध्ध अधिकार है आपके विचारो से शतप्रतिशत सहमत हूँ . बढ़िया पोस्ट

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  2. बहुत जिम्मेदारी और परिश्रम से लिखी यह पोस्ट संदर्भनीय है ! मतृभाषा में शिक्षा का अधिकार तो होना ही चाहिए ! शुक्रिया !

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  4. सच में; प्रारम्भिक शिक्षा मातृभाषा में होनी चाहिये। बहुत कुछ वैसे ही जैसे बच्चे को मां का दूध मिलना चाहिये।

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  5. सिर्फ़ एक भारत ही ऎसा देश है जहां अपनी मात्र भाषा को ही दुत्कारा जाता है, बाकी सब जगह अपनी अपनी मात्र भाषा ही चलती है,
    धन्यवाद

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  6. मातृभाषा शिक्षण पर केन्द्रित इस पोस्ट के लिये आभार.

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  7. बिल्कुल ठीक लिखा है आपने.. मातृभाषा में शिक्षण अधिकार तो होना ही चाहिए सबको..

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  8. आप के इस लेख में लिखे विचारों से सहमत हूँ.
    गुरुदेव ने जापान का जिक्र किया है..मैं चीन के बारे में भी यही कहना चाहती हूँ.
    गुरदेव की कही गई बातों और विचारों से अगर अहम कुछ सीख कर अमल में ला सके तो
    शायद भविष्य में सकारात्मक नतीजे देखने को मिलें.लेकिन यह करना बहुत मुश्किल है..
    अंग्रेज़ी माध्यम में पढने वाले बच्चों में 'अमूमन' हिन्दी सीखने की चाह कम होती है .
    खाडी देशों में पढने वाले बच्चों के साथ,मेरा अपना व्यक्तिगत अनुभव यही है की किसी भी तरह कोशिश करें मगर उन्हें अपनी matr भाषा
    'बोली 'तक ठीक लगती है..बाकि न पढने में न लिखने में -बोल-चाल से ज्यादा सीखने में रूची नहीं जागती है.
    अंग्रेज़ी 'आसान 'बाकि सब मुश्किल लगता है--चाहे दक्षिण भारतीय बच्चे हो या हिन्दी बोलने वाले उत्तर भारतीय.

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  9. सर्व शिक्षा मातृभाषामा नहुनु सुक्ष्म गतिमा दास हुनु हो |

    मातृभाषाको सम्मान राष्ट्रको सम्मान |

    माताको दुध शिशुलाई शिक्षा मातृभाषामा प्रभाव पर्छ सृष्टिलाई प्रकाशको गतिमा |

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